ईवीएम की आड़ में अपनी हार की पेशबंदी करने लगा विपक्ष

मोदी विरोधी मोर्चे के नेता आजकल एक और कैंपेन कर रहे हैं। वो कह रहे हैं कि मोदी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम की वजह से जीतते हैं। वैसे ईवीएम को गलत ठहराने वाला राग तो पुराना है। बीती 17 अप्रैल को कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में चुनाव प्रचार करते हुए दावा किया कि अगर ईवीएम से छेड़छाड़ न हो तो भाजपा 180 सीटों पर सिमट जाएगी। जो राजनीतिक दल और नेता पिछले पांच साल तक जमीन पर उतरे नहीं, आज जब उन्हें अपनी हार साफ तौर पर दिख रही है तो उन्होंने ईवीएम की हार में पेशबंदी शुरू कर दी है। आखिरकार अपनी गलतियों, कमियां और कमजोरियों का ठीकरा किसी के सिर तो फोड़ना ही है। ऐसे में बेजुबान ईवीएम से बेहतर विकल्प कोई दूसरा नहीं हो सकता।
देश में जारी आम चुनाव की पहली चरण की 102 लोकसभा सीटों पर 19 अप्रैल को मतदान हो चुका है। करोड़ों देशवासियों ने उन्हीं ईवीएम का बटन दबाकर अपना वोट दिया है जिन पर अधिकतर विपक्षी दल प्रलाप कर रहे हैं। वे दल चुनावी दौड़ में शामिल हैं, उनके सांसद और विधायक चुने जाने हैं लेकिन वे ईवीएम पर अब भी संदेह कर रहे हैं। ईवीएम की शुरुआत कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के ही कार्यकाल में हुई थी। 2004 के उस दौर से लेकर आज तक करीब 340 करोड़ मतदाता अपने संवैधानिक मताधिकार का प्रयोग कर चुके हैं और 4 लोकसभा चुनाव ईवीएम के जरिए सम्पन्न कराए जा चुके हैं। 26 विधानसभा चुनावों और एक लोकसभा चुनाव में वीवीपैट पर्ची का भी इस्तेमाल किया जा चुका है। इसी ईवीएम के दम पर आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में तीन बार और पंजाब में एक बार चुनाव जीता, 2012 में समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला, बहुजन समाज पार्टी को 2007 में उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला और कांग्रेस ने 2023 में तेलंगाना जीता। 2018 के विधानसभा चुनाव में राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में कांग्रेस सत्तारूढ़ हुई थी। तब भी मतदान ईवीएम के जरिए ही हुआ था। वर्तमान में तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना और पंजाब आदि राज्यों में गैर-भाजपा दलों की सरकारें हैं जो ईवीएम के जरिए ही सत्तासीन हुई हैं। अगर विपक्ष को लगता है कि ईवीएम में हेरफेर किया गया है, तो वो प्रचार करने ही क्यों जाता है? विपक्ष उन राज्यों में चयनात्मक आलोचना करता है जहां वो चुनाव हार जाता है। असल में विपक्ष को अपनी हार को स्वीकार करने और समझने की ज़रूरत है।
ईवीएम को लेकर अक्सर प्रलाप मचाया जाता रहा है और चुनाव आयोग को भी कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है, यह प्रवृत्ति दुराग्रह पूर्ण है। आयोग ने ईवीएम को हैक करने या उसके सिस्टम से छेड़छाड़ करने के मद्देनज़र सभी राजनीतिक दलों को आमंत्रित किया था, कुछ दल गए भी, लेकिन कोई भी आपत्ति नहीं उठा सका या गड़बड़ी को साबित नहीं कर सका। एक बार फिर यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। दो न्यायाधीशों की खंडपीठ ने निर्णय सुरक्षित रखा है। वास्तव में प्रश्न यह है कि विपक्ष का चरित्र इतना दोगला क्यों है? संवैधानिक व्यवस्थाओं के ही विरुद्ध क्यों है? ईवीएम का प्रयोग छोड़कर बैलेट वाले मतदान के पाषाण काल की ओर लौटना क्यों चाहता है? हालांकि बूथ छापने, लूटने और फर्जी मतदान के उस दौर को सर्वोच्च न्यायालय पृथक कर चुका है।
2009 के आम चुनावों में जब भाजपा के नेता ईवीएम पर सवाल उठा रहे थे, ठीक उसी वक्त ओडिशा कांग्रेस के नेता जेबी पटनायक ने भी राज्य विधानसभा में बीजू जनता दल की जीत की वजह ईवीएम को ठहराया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद कांग्रेस के नेता और असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी ईवीएम पर सवाल उठाए थे और कहा था कि भाजपा की जीत की वजह ईवीएम है। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि भारत में जब तक पार्टियां चुनाव नहीं हारने लगतीं तब तक उन्हें ईवीएम मशीन से कोई शिकायत नहीं होती। मौजूदा समय में भारत का प्रत्येक राजनीतिक दल कभी ना कभी ईवीएम का विरोध कर चुका है। ऐसे में संसद की संयुक्त संसदीय समिति को ईवीएम के इस्तेमाल की जांच करनी चाहिए।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, एक आम चुनाव में 55 लाख से अधिक ईवीएम का प्रयोग किया जाता है और करीब 1.5 करोड़ चुनावकर्मी मतदान प्रक्रिया में हिस्सा लेते हैं। सभी एक विशेष पार्टी के पक्षधर हो जाएं या ईवीएम का प्रोग्राम एक ही पार्टी के पक्ष में तय कर दिया जाए और इतने चुनाव कर्मी एक साथ ‘भ्रष्ट’ हो जाएं, यह बिल्कुल भी संभव नहीं है। ईवीएम किसी लैपटॉप, कम्प्यूटर अथवा इंटरनेट नेटवर्क से जुड़ी हुई नहीं है, उसे हैक करना या छेड़छाड़ करना भी संभव नहीं है, अलबत्ता मशीन में तकनीकी खराबी ज़रूर आ सकती है। उस स्थिति में ईवीएम बदलने की पारदर्शी व्यवस्था है। वैसे चुनाव आयोग समय-समय पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को आधुनिक बनाने की दिशा में काम करता रहा है। चुनाव आयोग ने अदालत में अपना समूचा पक्ष रखा है। वीवीपैट पर्ची और वोटिंग के आपसी मिलान पर भी स्पष्टीकरण दिया है। पर्ची 7 सैकेंड के लिए दिखती है। उसके बाद पर्ची मशीन में ही चली जाती है। न्यायिक पीठ को बताया गया कि पर्ची को मतदाता को देना जोखिम का काम है। इससे गोपनीयता भंग हो सकती है और बाहर निकालने पर पर्ची का दुरुपयोग भी किया जा सकता है। याचिकाकर्ता एडीआर ने मतदान और पर्ची की 100 प्रतिशत क्रॉस चेकिंग की मांग की है। न्यायिक पीठ के सामने चुनाव आयोग ने खुलासा किया कि 4 करोड़ ईवीएम वोट और वीवीपैट पर्चियों के मिलान कराए गए हैं। बहरहाल अदालती फैसले की प्रतीक्षा है। अब चुनाव की निष्पक्षता, ईमानदारी बरकरार रहे, मतदाताओं के जेहन में लेशमात्र भी संदेह नहीं होना चाहिए और आयोग की संवैधानिक स्वायत्तता भी बनी रहे, उस संदर्भ में अदालत को निर्णय देना है।
वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल यानी वीवीपैट से निकलने वाली सभी पर्चियों का मिलान इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से पड़े वोटों के साथ कराने की मांग वाली याचिका पर मंगलवार को सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजीव खन्ना और दीपांकर दत्ता की बेंच ने एडीआर की याचिका पर सुनवाई के दौरान 1960 के दशक में बैलेट पेपर से चुनाव के दौर को याद किया और कहा कि देश में फिलहाल मतदाताओं की संख्या 96 करोड़ से अधिक है। ऐसे में बैलेट पेपर या वीवीपैट की 100 प्रतिशत गिनती की व्यवस्था से चुनाव कराना बहुत चुनौती वाला काम होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हम सभी जानते हैं कि जब बैलेट पेपर थे तो क्या होता था। आप जानते होंगे, लेकिन हम भूले नहीं हैं।’ वैसे बैलेट पेपर से चुनाव कराए जाने की स्थिति में भारत की चुनावी प्रक्रिया लम्बी भी होगी और खर्च भी बढ़ेगा। देश की जनता समझने लगी है कि कौन सकारात्मक राजनीति कर रहा है और कौन डर, भय और भ्रम के जरिये जनादेश पाना चाहता है। किसने उन्हें उनका हक दिया है? ऐसे में बेहतर होगा विपक्ष ईवीएम पर संदेह करने और जनता में भ्रम फैलाने की बजाय अपने आचरण को सुधारे।