क्यों न अपनी असहमति व्यक्त करे स्त्री लेखन

राष्ट्र मानव मन की अभिव्यक्ति की उत्तम साधना है। राष्ट्र साधना करने वाले लोग साहित्यकार कहलाते हैं। साहित्यकार होना पुरुष अथवा स्त्री सभी के लिए अर्थवान है। दोनों में से कोई भी जीवन के कष्ट, मुसीबतों, बाधाओं अथवा जीवन संघर्ष को रचना में ढाल सकता है। रचना धर्मिता निरन्तर साधना की मांग करती है और अनेक कठिनाइयों से गुज़रना होता है परन्तु रचनात्मक समाज में एक स्त्री के लिए यह यात्रा कुछ ज्यादा कठिन है। इस भूमंडलीकरण के दबाव और बहाव में संघर्ष और अस्मिता के संकटों में इज़ाफा ही हुआ है। धार्मिक बन्धन, पुरुष सत्ता का वर्चस्व, घटिया राजनीति, छीना-झपटी के माहौल ने और भी कठिनाइयां पैदा की हैं।हम यह पूछें कि अभिव्यक्ति के लेखन ही क्यों तो उनका पक्ष होगा-तथ्यात्मक वस्तु स्थिति, स्वीकृत नैतिकता बोध, बाह्य तार्किकता और एकांगी सत्य से अपने को मुक्त रखना या कहना चाहिए कि अतिक्रमण करने के लिए लेखन ज़रूरी लगा। जैसा कि मृदुला गर्ग कहती हैं। लेखन इस सबके लिए सर्वोत्तम माध्यम लगा। वह एक वैकल्पिक यथार्थ की संरचना करना चाहती थी। उनके लिए बीज राष्ट्र प्रतिरोध है। अपने आप को सतत् प्रतिरोधी के रूप में देखती है। ऐसा प्रतिरोध या असहमति, जो व्यवस्था में ही नहीं, अपने से हुए मोहभंग से पैदा होती है। वह औरों को भी असहमति के लिए उकसाती है। तथा निरन्तर विकसित होते समय के विभिन्न प्रतिरूपों के प्रति सहिष्णु बनाती है।  इन पंक्तियों के लेखक को जब एक बार चित्रा मुदगल से बातचीत करने का अवसर मिला, उनसे पूछा- स्त्री विमर्श को किस रूप में देखती हैं आप? उत्तर मिला- मैं उदास हूं। किसी सीमा तक असहमत भी। आधी दुनिया के दुनियावी अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए साहित्य में विमर्श के रूप में आरम्भ हुए विवेकपूर्ण समानता के आकांक्षी स्वर जाने-अनजाने पितृसत्ता की अव्यक्त साजिशों का शिकार हो पटरी से उतर फार्मूलावाद हो गये। क्या उसे पुरुष से मुक्ति की ज़रूरत है? का उत्तर है पितृसत्ता से उसे मुक्ति चाहिए-पुरुष से नहीं और यह भी कि आधी आबादी को समाज से अपनी आज़ादी के लिए सीखना होगा कि स्त्री को वह किस तरह से समझे और देखे। मृदुला गर्ग ने देह पर स्त्री अधिकार को लेकर जो टिप्पणी की कुछ इस प्रकार थी-यह भी कि आजकल स्त्रियां अपनी यौनिक इच्छाओं पर ज्यादा खुलकर लिख रही हैं। मैं समझती हूं कि देह पर स्त्री के नियंत्रण की हाय-तौबा का स्त्री आज़ादी पर कुछ विरोधात्मक असर भी पड़ा है। इससे ‘देह पर उनका खुद का नियंत्रण भले साबित हो जाए पर जैंडर राजनीति और विषम समाज में स्त्री की भूमिका पर उनकी सोच की दिशा साफ नहीं होती। मेरे लिए देह की आज़ादी से कहीं ज्यादा ज़रूरी है, विचार और विरोध करने की आज़ादी।’ अपने उपन्यास ‘करु गुलाब में’ इन्होंने स्त्रियों की अस्मिता पर कुछ खास बातें की हैं। दुष्कर्म, पारिवारिक विघटन, अकेलापन, स्त्री-पुरुष संबंध। जैंडर को लेकर कई गलतफहमियों तथा भ्रमों की बाबत भी। उनका यह अनुभव भी रहा कि स्त्री लेखकों को पारिवारिक तथा साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिबंध का डर ज्यादा रहा है। उनके अनुसार प्रतिबंध पांच तरह के हैं-पारिवारिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आतंकवादी। वह भीड़ द्वारा लागू प्रतिबंधों को आतंकवादी मानती हैं, चाहे वह धर्म की आड़ क्यों न ले।
साहित्य के प्रति समर्पित लेखिकाओं को देह मुक्ति की बात एक भ्रम ही लगी। साहित्य में देह मुक्ति एक रैकेट की तरह चला। स्त्री देह पुरुष के संकीर्ण दृष्टिकोण के मुताबिक शोषण का एक हथियार बना रहा। स्त्री स्वतंत्रता को देह की स्वतंत्रता के साथ ही जोड़कर देखना उनके सिंहासन से गिराना है। सवाल है उसकी अस्मिता का, उसके चयन का, उसके बौधिक हस्तक्षेप का, उसके न्याय वंचित होने का। साहित्य वही है जो जीवनानुभव, जीवन संघर्ष, मनुष्यता के होने के साथ प्रवाहमान है। लोकतंत्र में स्त्री को अपने अस्तित्व के साथ जुड़े तमाम प्रश्नों को अपनी रचना में उठाने को अख्तियार है। यह काम उन्होंने किया भी है। राजनीति, धर्म, पुरुष वर्चस्व को उसमें टांग अड़ाने की ज़रूरत नहीं। बेहतर है कि वे अपनी पंचायत में सारे सवाल पूछे जिनको लेकर पुरुष समाज अपराधी रहा है।