ज़रूरी है किसान बाजारों का विकास

महानगरों के ‘माल’ का कमाल ही है कि कस्बों में भी शो-रूम संस्कृति ने अपने पैर जमाने शुरू कर दिए हैं।  पूंजीवादी मार्केट तो तेजी से पनप रही हैं किन्तु गांवों के हाल अभी भी बेहाल हैं। गांवों के देश भारत में अलग इंडिया तो चमक रहा है किन्तु हमारा हिन्दुस्तान उपेक्षित है। अपेक्षा का शिकार है किसान जो दिन-रात कड़ी मेहनत कर आत्महत्या कर रहा है।  जरूरी है किसान बाजारों का विकास। यही एकमात्र तरीका है पिछड़े हुए खलिहानों में प्रगति के मार्ग प्रशस्त करने का। व्यवसायिक दृष्टि किसानों को जहां कर्जग्रस्तता से मुक्ति दिलाएगी, वहीं जीने का मार्ग भी प्रशस्त करेगी। संगठित रिटेल से किसानों और ग्राहकों को लाभ मिलेगा। मौजूदा हालात किसानों के अनुकूल नहीं हैं। एक अध्ययन से प्राप्त जानकारी के अनुसार फिलहाल भारतीय किसानों को अपने उत्पादों के खुदरा मूल्य का कुल 35-40 प्रतिशत तक मिल पाता है। जिन देशों में खुदरा व्यापार बहुत संगठित है, वहां किसानों का हिस्सा 65 प्रतिशत तक होता है। अधिक मूल्य की प्राप्ति से भारत में खेती से होने वाली आय में काफी वृद्धि हो सकती है। जरूरी है किसानों की समस्याओं पर खुली परिचर्चा करने की। कृषि की उपेक्षा कर अर्थ-व्यवस्था में सुधार की उम्मीद करना सिवाए बेवकूफी के कुछ नहीं कहा जाएगा। अनाज के मामले में आत्मनिर्भरता जरूर आयी है किन्तु किसानों को न तो गेहूं का, न ही धान का और न ही गन्ने का सम्मानजनक दाम मिल रहा है। दुखी तो कपास उत्पादक भी हैं। फलों एवं सब्जियों के व्यापारी मालामाल हो रहे हैं, किसान अभी भी फटेहाल ही हैं अत: यह कहना जरूरी है कि किसान बाजारों को विकसित किये बगैर गांवों की गरीबी, बेरोजगारी एवं पिछड़ापन समाप्त नहीं किया जा सकता। लाखों टन अनाज बरसात में सुरक्षित गोदामों के अभाव में सड़ जाता है। गरीबी की मार से पीड़ित जनता भुखमरी से आज भी जूझ रही है। कुपोषण से बच्चों की मौत का सिलसिला बदस्तूर जारी है। सुपर बाजारों की तरह किसान बाजारों में भी सही दाम में सही माल उपलब्ध कराया जाए। किसानों को बिचौलियों से मुक्ति दिलायी जाए क्योंकि मलाई यही खा रहे हैं। उपभोक्ता महंगे दाम पर अनाज खरीद रहा है। फल एवं सब्जियां खरीद रहा है। तेल के दाम देखिए। तिलहन और दलहन के बाजार पर जमाखोरों ने वर्चस्व स्थापित कर रखा है। संगठित रिटेल से ही किसान और ग्राहक लाभान्वित हो पायेंगे। 
(अदिति)