हाथ की सफाई 

अनेक भारतीयों की भांति हम भी बेहद ‘सफाई पसंद’ व्यक्ति हैं। ‘स्वच्छ भारत’ अभियान की शुरुआत तो गत् कुछ अर्सा पहले ही शुरू हुई है। हम तो बचपन से ही अपने सफाई अभियान में जुटे हुए हैं। डटे हुए हैं। वही व्यक्ति किसी भी काम में सफल हो सकता है, जो मेहनत, लग्न से जी न चुराता हो। ईमानदार हो। अपने काम व लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो। ईमानदारी का तो लोगों को ही पता होगा कि वह हम में है या नहीं? किंतु हमें पता है कि हम अपने सफाई अभियान के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हैं और इस काम में काफी मेहनत व लग्न से लगे हुए हैं। हमारे परिजनों, पड़ोसियों, गली-मोहल्ले वालों तथा अन्य लोगों को हमारी ‘सफाई पसंद’ तबीयत, शख्सियत भले ही अच्छी न लगती हो। लेकिन हमने ठान रखी है,अपनी ताकत तान रखी है कि हम ‘सफाई पसंद’ हैं और हर हाल में ऐसे ही बने रहेंगे। हमने अपने सफाई अभियान की शुरुआत बचपन में ही अपने घर से कर दी थी। जब मनमाफिक जेब खर्च न मिलता, तो हम अपने पिता जी की पतलून या कोट की जेब में से बटुआ निकाल बड़ी सफाई से कुछ करंसी नोट अपनी जेब में रख लेते और दबे पांव घर से निकल जाते। पूरे रुपये खर्च करने के बाद ही लौटते। पिता जी को जब एहसास होता कि उनके बटुए का पेट कुछ पिचका हुआ है तो वह माता जी यानि अपनी सुपत्नी  पर संदेह व्यक्त करते हुए कहते ‘ओ, खर्चीली बीवी’ अपने खर्च-वर्च पर कंट्रोल रखा करो। जब जी चाहता है तब बड़ी सफाई से मेरे बटुए में से रुपये चुरा लेती हो। मुझे बेवकूफ समझ रखा है कि मुझे पता नहीं चलता? जितने रुपये मांगती हो, उतने रुपये मैं तुम्हें क्या देता नहीं हूं?, माता जी रसोईघर में से इतनी ऊंची आवाज में बोलतीं कि पड़ौसियों के बंद घरों की खिड़कियां  व बंद कान तुरंत खुल जाते। वह कहतीं, ‘‘ओ मेरे भुलक्कड़ मियां! मैं उन औरतों में से नहीं हूं कि जो रुपयों की इस तरह की सफाई मुहिम में लगी रहती हैं। मैं तो आपकी याद्दाश्त को लेकर रोती रहती हूं। अभी का खाया-पिया अभी भूल जाते हो। आपको याद रखना चाहिए कि आप कहां-कहां रुपये खर्च कर आते हो?’’ 
पिता जी को जब हम दोनों भाइयों पर शक होता, तब हम भोला-सा मुंह बनाकर व रोनी-सी सूरत बना अपने बड़े भाई पर आरोप लगा देते? ‘‘भैया ने चुराए होंगे।’’ पिता जी उसे खूब डांट-डपट देते और घर से बाहर खेलने के वक्त हमें कुछ झांपड़ बड़े भैया जड़ देते। बिना रोए दूर भाग जाते हम। हमारे सफाई अभियान से पड़ौसी, गली-मोहल्ले के लोग काफी दुखी रहते थे। क्योंकि हम किसी के दड़बे से अंडे, मुर्गी, कबूतर आदि और पशुओं के पगहे, जंजीरें आदि बड़ी सफाई से चुरा लेते थे। फिर इधर-उधर बेचकर खूब मौज-मस्ती करते थे। पाठशाला में किसी के बस्ते में से पैन, कापियां, पैंसिलें तो किसी अन्य के बस्ते में से रुपये-पैसे हाथ की सफाई का कमाल दिखा उड़ा लेते। टिफन में से रोटी निकाल खा लेते। गांव के बाहर लोगों के खेतों में से ईख, मूलियों, गाजरों आदि  पर हाथ साफ करना तो हम जैसे अपना हक समझते थे। धीरे-धीरे घर वालों, पड़ौसियों, मोहल्ले वालों और गांव वालों को पता चल गया कि हम बहुत ‘सफाई पसंद’ हैं। अत: हमारे ‘सफाई-अभियान’ से आहत होकर हमें घर या मोहल्ले में से नहीं, अपितु गांव से बाहर कचरे की तरफ फैंक दिया अर्थात् निकाल दिया गया। 
हम तरक्की करते-करते बहुत बड़े नेता बन गए और अपने सफाई अभियान को भी जारी रखा। क्योंकि हम बचपन से ही बहुत सफाई पसंद हैं। इसलिए नेता तथा बाद में मंत्री बनने पर सीधे देश के खज़ाने पर ही हाथ साफ करने में जुट गए। डट गए। देश के प्राकृतिक संसाधनों, बहुमूल्य खनिज़ पदार्थों, भूमि, प्राकृतिक संपदा, पर हाथ साफ करने में हमें कोई संकोच नहीं है। हमें शर्म-हया महसूस नहीं है। भले ही लोग हमें लोकतंत्र का बहुत बड़ा कूड़ा-कचरा समझते हों और हमें किसी कूड़े के ढेर पर फैंकने के बारे में या फिर कूड़े के ढेर में दबाने-दफनाने के बारे में सोचते हों। मगर हमारा सफाई अभियान निरंतर जारी है।  क्योंकि हम बहुत ज्यादा सफाई पसंद हैं। और हां, हाथ धोकर जब हम अपने विरोधियों के पीछे पड़ जाते हैं, तब उन्हें अपनी-अपनी नानी याद आ जाती है। अपनी ‘सफाई पसंद’ आदत, तबीयत तथा शख्सियत के कारण हमें अपने जीवन में बहुत सफलता मिली है। इसलिए हम हाथ में लंबा-सा झाड़ू पकड़े बिना औप चकाचक साफ-सुथरे कपड़े पहने अपने सफाई अभियान को जारी रखे हुए हैं। 

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