गांधी जी की 150वीं जयंती : अंतिम जन से जुड़ाव   

बीसवी सदी में महात्मा गांधी ‘सत्याग्रह’ के सिद्धांत पालन को लेकर विश्व राजनीति के पटल पर अपनी छाप छोड़ गये। इससे पूर्व उन्नीसवीं सदी विचारोत्तंजक प्रभावशाली व्यक्तित्व कार्ल मार्क्स का रहा, जोकि अन्य विचारों की व्याख्या करके ही नहीं रह जाते परिवर्तन कैसे लाया जाये (How to Change ) की बात भी करते हैं। मार्क्स वर्ग संघर्ष को सामने रखते हैं जबकि गांधी सत्य और अहिंसा पर बल देने वाले हैं। गांधी का मूलाधार ही अहिंसा है और फिर प्रतिरोध स्वरूप ‘सत्याग्रह’ में सत्य पर ही बल दिया। सत्य, शिवम, सुंदरम यदि साहित्य का चेतनाधार है तो गांधी पारदर्शिता के कायल, क्योंकि अनके अनुसार साहित्य अथवा कला में छिपाने लायक कुछ भी नहीं होना चाहिए। 3 अगस्त, 1932 को प्रेमा बहन कंटक जो पत्र लिखा, उसमें साफ-साफ कहा गया -जिस चीज़ में छिपाने लायक कोई बात है, वह कला नहीं है। (श्री भगवान सिंह द्वारा उद्घृत) आज जिस विकासशील आधुकितम सभ्यता की बात की जा रही है उसका यथार्थ यह है कि हिंसा कई बहानों से सभ्यता में दाखिल हुई है। होती जा रही है, जबकि गांधी अहिंसात्मक सभ्यता विमर्श के पैरोकार थे।गांधी को इस मामले में बहुत जागरुक पाया जाता है कि आधुनिक सभ्यता की मौलिक ज्ञान ग्रीयांसा में समानता का विचार काफी कमज़ोर है क्योंकि उन्हें मानव मात्र में समानता का व्यवहार ही पसंद था। शायद इस बात से कुछ मित्रों को हैरानी हो कि गांधी ने संसदीय लोकतंत्र की आलोचना की है। उन्होंने माना है कि शासन की यह प्रणाली दबाव के अभाव में निष्क्रिय खड़ी रहती है। जनता के धन की बर्बादी करती है और इसके तौर-तरीकों के पालन के प्रति स्वयं जन-प्रतिनिध की निष्ठावान नहीं होते। संसदीय लोकतंत्र का पार्टी आधारित राजनीतिकरण एवं संसद में बहस के गिरते स्तर की बाबत वह सजग रहे हैं। अंग्रेज़ी सरकार की कुटिल राजनीति में रहते हुए उनका प्रतिवाद करते हुए, खुद राजनीति के रास्ते पर चलते हुए वह इसके मिजाज़ की पूरी तरह समझ पा रहे थे। उन्होंने कहा है, ‘राजनीति हमें इस प्रकार लपेट लेती है, जैसे सांप अपनी कुंडली में जकड़ लेता है।’ सभी जानते हैं कि अंत से पहले ही वह राजनीति से अलग-थलग हो गये ताकि सत्य को बचाया जा सके। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कोई राजनीतिक पद भी उन्होंने नहीं ग्रहण किया था। जातिगत विभाजन गांधी जी को बिल्कुल पसंद नहीं था। उनके ‘हरिजन’ कहने में दलित उत्थान की भावना नज़र आती है। एक बार उनसे पूछा गया, ‘क्या आप हरिजनों की सेवा की तुलना में भूखमरी के शिकार किसानों की स्थिति में सुधार करना अधिक ज़रूरी नहीं समझते? और आप किसानों का एक संगठन नहीं बनाना चाहते, जिसमें हरिजन भी शामिल हो जाएं, क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति भी ऐसी ही है? गांधी जी का उत्तर था, ‘किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार से ज़रूरी नहीं कि हरिजनों का सुधार हो जाएगा। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। जो किसान हरिजन नहीं हैं वे उतने ऊंचे उठ सकते हैं जितना वे चाहते हैं और जितना उनको अवसर मिलता है, किन्तु गरीब, दबाए गये हरिजन नहीं उठ सकते। हरिजन स्वर्ण किसानों की तरह पूरी आज़ादी के साथ व ज़मीन के मालिक बन सकते हैं और न ही उसका उपयोग कर सकते हैं। ’ युवा चिंतक विश्वनाथ मिश्र ने उनकी जैंडर संवेदनशीलता की बात की है कि गांधी की दूरदर्शिता की पहुंच थी कि जब तक अबला को सबला नहीं बनाया जाता तब तक स्वराज का निहितार्थ सिद्ध नहीं होगा। गांधी स्वराज की ओर स्त्रियों के हाथ में देना चाहते थे। वे स्त्री शक्ति के प्रति पूर्णत: आश्वस्त थे। कहते थे कि यदि शक्ति का मतलब केवल पशु बल ही होता है तो बेशक स्त्रियों में पशु बल कम है। गांधी के अनेक विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उनमें समाज के उत्थान के लिए नये प्रयोग करने और जोखिम उठाने का बल था। सच तो यह है कि समाज के अंतिम जन से जुड़े हुए थे।