दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम

नई मौद्रिक नीति की घोषणा हो गई है। रिज़र्व बैंक के गवर्नर महोदय देश की ताज़ा आर्थिक स्थिति का मूल्यांकण करने के बाद अपनी मौद्रिक नीति की कौंसिल से सलाह-मश्विरे करके इस त्रैमासिक नीति की घोषणा करते हैं। बरसों से अपने देश के सामने दो मुख्य आर्थिक समस्याएं हैं। एक पूंजी निर्माण और देशी-विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने वाली ऋण ब्याज दर की घोषणा, कि जो देश को आर्थिक अवनति की राह पर फिसलने न दे, और दूसरी महंगाई को बेलगाम न होने दे, ताकि देश के आम आदमी का मासिक बजट एक असह्य बोझ न बन जाये।आज तक इस मौद्रिक नीति का दुहरा लक्ष्य रहा है, आर्थिक निवेश का विस्तार और महंगाई का नियंत्रण। आर्थिक निवेश के विस्तार के लिए रिज़र्व बैंक निवेशकों को प्रोत्साहन देने के लिए ऋण ब्याज दर को घटाने का रास्ता अपनाता रहा है। चाहे इसे बैंक दर घटा कर केन्द्रीय आरक्षित अनुपात दर जिसे सी.आर.आर. कहते हैं, घटा कर या रैपोरेट घटा कर या रिवर्स रैपो रेट घटा-बढ़ा कर पूरा किया जाये। इसके अतिरिक्त पूंजी निर्माण और निवेश प्रोत्साहन के लिए ‘मेक इन इंडिया’ अथवा ‘स्टार्ट-अप इंडिया’ जैसी योजनाओं का सहयोग भी लिया जाता है। जहां तक महंगाई नियंत्रण का प्रश्न है, यही उम्मीद की जाती है कि सस्ती साख नीति से जब उत्पादन और निवेश बढ़ जाएगा, तो बढ़ी हुई आपूर्ति पुराने मांग और पूर्ति के संतुलन नियम पर काम करते हुए, कीमतों को अपने आप नियंत्रित करके नीचे ले आएगी, और इस प्रकार यह दोहरा उद्देश्य सध जाएगा। अर्थात सस्ती साख नीति और ऋण की ई-एम.आई. घटने के कारण निवेश बढ़ कर आर्थिक विकास दर बढ़ा देगा और उधर मांग के मुकाबले भरपूर आपूर्ति महंगाई नियंत्रण करके कीमतें घटा देगी। लेकिन कहां बढ़ी आपूर्ति? इसी नीति का पालन करते हुए रिज़र्व बैंक ने अपनी क्रमिक घोषणाओं में पांच बार ब्याज दर घटाई। कभी बैंक दर, कभी रैपो रेट, कभी रिवर्स रैपो रेट और कभी सी.आर.आर. में परिवर्तन दर से। लेकिन अपेक्षित प्रभाव छोटे-बड़े निवेशकों की ऋण ब्याज दर में आनुपातिक ई.एम.आई. घटने के रूप में नहीं हुआ। निवेशकों द्वारा उत्पादन अथवा निवेश व्यय में विस्तार के लिए अधिक ऋण मांग नज़र नहीं आया। हां, एक प्रभाव अवश्य हुआ कि अपनी ऋण ब्याज दर घटती देख कर बैंकों ने जमा ब्याज दर भी घटा दी, जिससे बैंकों की कुल जमा पर प्रभाव हुआ। जमा-कर्ताओं की जमा से होनी वाली आय घट गई, इसलिए देश की सभी उपभोक्ताओं की मंडियों में उनकी मांग कम हो गई। मांग का रूझान निवेश का आधार होता है, जब वही घटता नज़र आया तो भला निवेशक नया निवेश कैसे कर देते? बैंकों में तरलता की कमी को दूर करने के लिए रिज़र्व बैंक ने अपने संचित आरक्षित कोष में से एक असाधारण निर्णय की सहायता निकाल कर बड़े सरकारी बैंकों में बांट दी। लेकिन यह आबंटन सामाजिक दिशा नियंत्रित नहीं था। पैसा लघु और कुटीर उद्योगों की ओर जाना चाहिये था, नहीं गया। बल्कि उसे इन बैंकों ने अपने खाते संतुलन करके मरे हुए खाते खपाने में लगा दिया। इस प्रकार न तो नई निवेश प्रक्रिया सक्रिय हुई, न ही बेरोज़गारों को रोज़गार मिला। उनकी आय बढ़ती तो मांग पैदा होती, और आर्थिक निवेश विकास दर बढ़ती नज़र आती। लेकिन इसकी जगह मोदी शासन की इस दूसरी पारी जिसे 2.0 का नाम दिया गया है। यह मांग के आभाव में मंदी फैलती नज़र आई। बेकारी बढ़ती नज़र आई। इस नई मौद्रिक नीति की घोषणा के समय भी, रिज़र्व बैंक जो देश की आर्थिक स्थिति का आकलन करता है, उसमें भी यही प्राप्त हुआ कि अगले आर्थिक वर्ष में देश की विकास दर 6.1 प्रतिशत से घट कर पांच प्रतिशत हो जाएगी, और महंगाई भी एक प्रतिशत बढ़ जाएगी। इससे पहले भी अपनी पिछली मौद्रिक नीति की घोषणा में बैंकों की ई.एम.आई. की घोषणा को रैपो रेट और ब्याज दर के परिवर्तन के साथ जोड़ दिया गया था, लेकिन इसका अपेक्षित प्रभाव नहीं हुआ, निवेश दर पर कोई आपेक्षित प्रभाव नहीं हुआ। होता भी कैसे, इस बीच निवेश निर्णयों के निर्धारक तत्वों पर केवल ब्याज दर के परिवर्तन का प्रभाव नहीं बताया जाता है, बल्कि लार्ड केन्ज़ के नये अर्थ-शास्त्र के सर्वस्वीकार्य अध्ययन के अनुसार यह निष्कर्ष निकला है कि निवेश निर्णयों पर केवल ब्याज दर का घटना ही, प्रभाव नहीं डालता, उसके साथ-साथ पूंजी की सीमान्त उत्पादकता भी बढ़नी चाहिये, जो भारत में नई शोध और अविष्कार के अभाव में बढ़ नहीं पाई। इसीलिए बार-बार ब्याज के घटने और सहज साख नीति के चलने के बावजूद मृत खाते घटे हैं, निवेश में वृद्धि नहीं हुई, और देश अल्प-विकास की दहलीज़ पर ठिठका हुआ है। उधर इस बीच प्याज से लेकर इंटरनैशनल कम्पनियों की सेवाओं के दामों में 40 से 50 प्रतिशत वृद्धि और पैट्रोलियम कीमतों की बेलगाम वृद्धि ने न केवल कीमतों में वृद्धि कर दी, बल्कि आम आदमी के लिए लगातार महंगाई का ़खतरा पैदा कर दिया है। इसलिए इस बार मौद्रिक नीति ने निवेशकों की आशाओं के विपरीत ब्याज दर या रैपो रेट में कमी नहीं की ताकि महंगाई से जूझा जा सके। अब महंगाई तो क्या कम होनी है, देश मंदी और आर्थिक गिरावट के और अंग-संग हो गया।