छात्र संगठनों में वर्चस्व साबित करने की जंग

भारत में 993 विश्वविद्यालय हैं, जिनमें से आजकल कुछ ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां प्रदर्शन और सत्याग्रह की बातें सामने आ रही हैं। जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से एक आंदोलन आरंभ हुआ जो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से होता हुआ जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी तक पहुंचते-पहुंचते अजीब सूरत अख्तियार कर गया। पथराव, आगज़नी और मारधाड़ की घटनाएं सामने आने लगी, कुछ आहत हुए और कुछ हत्याएं भी हुईं। एक बात तो हम सब जानते हैं कि इस हिंसा का सच देश के हित में नहीं क्योंकि यह अघाए नेताओं का आक्रोश है, जो इस तरह की हिंसा के रूप में जाहिर हुआ। बात शुरू हुई थी छात्र शुल्क वृद्धि से और बढ़ते-बढ़ते नागरिकता संशोधन एक्ट तक आ गई। 
राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एन.पी.आर.) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को भी आंदोलन का एक मुद्दा बना लिया गया। यह बात आसाम से शुरू हुई या पश्चिम बंगाल से अब यह विषय महत्वपूर्ण नहीं क्योंकि देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने बार-बार यह बात कही कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पर अभी कोई बात नहीं हुई। एक शायर ने क्या खूब कहा है कि ‘मेरे अफसाने में जिस बात का जिक्र तक न था, वो बात उन्हें बहुत नागवार गुज़री’। है भी ठीक। जब अभी सरकार के सामने यह मुद्दा ही नहीं तो इस पर विरोध कैसा, विवाद कैसा? एक व्यक्ति ने हमें बहुत बढ़िया नारा लिख कर भेजा कि लड़की बचाओ, लड़की पढ़ाओ के स्थान पर यह कहना चाहिए ‘यूनिवर्सिटियां बचाओ, छात्र पढ़ाओ’। हकीकत है कि देश में सभी विश्वविद्यालय चाहे वो सरकारी हों या गैर-सरकारी निरन्तर शैक्षणिक सुविधाएं उपलब्ध कराना ही इनका मुख्य मकसद है, जिसमें शिक्षा और आवास का सुचारू संचालन हो परन्तु हैरानी की बात तो यह है कि कुछ विश्वविद्यालय राजनीति का अखाड़ा बनते जा रहे हैं। हालांकि सभी संबंधित लोग जानते हैं कि उन पर खर्च किए जाने वाला धन जनता द्वारा दिए गए टैक्स से होता है, जिसे जन-साधारण सहर्ष स्वीकार करता है, क्योंकि ज्ञान, कुशलता विकास और बौद्धिक क्षमताओं से पूर्ण छात्र जो देश का भविष्य हैं, वे राष्ट्र उन्नति में योगदान देंगे। क्या हमारे विश्वविद्यालयों के छात्र जनता की उम्मीदों पर खरे उतर रहे हैं? हमें उन नेताओं से भी कुछ नहीं कहना जो निराश और हताश होकर इन विश्वविद्यालयों में से अपने लिए राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं। वामदल हों या कांग्रेस, सपा पार्टी हो या तृणमूल कांग्रेस यह सत्ता के लिए छात्रों को अपनी सीढ़ी क्यों बना रहे हैं? हमें पता है कि इन्हीं विश्वविद्यालयों से देश के बहुत से नेता राजनीति का पहला पाठ पढ़ कर आज देश के बड़े नेताओं में शुमार हैं। खेद की बात यह है कि जो लोग वहां रिसर्च स्कॉलर बनने के लिए होस्टलों में कई-कई वर्षों तक रह रहे हैं, उनमें राजनीति का ज़हर कैसे और क्यों प्रवेश कर गया? जब वे नारे लगाते हैं ‘आज़ादी-आज़ादी और भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह और अफज़ल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं’। दूसरी तरफ से भी इसके विपरीत नारे लगाते हैं वो कहते हैं ‘भारत माता की जय, ‘अफज़ल जैसा करेगा, अफज़ल की तरह मरेगा’ और ऐसे नारे पथराव और तोड़फोड़ का कारण बन जाते हैं। अस्पतालों में कितने छात्र जख्मी हालत में पड़े हैं, कितनों पर फौजदारी मुकद्दमे हो गए, क्या मां-बाप ने अपने बच्चों को यही सब करने के लिए ऐसे राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में भेजा था? क्या कभी ऐसे कुकृत्यों में उलझे छात्रों ने अपने माता-पिता के सपनों के बारे में सोचा है? यह हरकतें न समाज कबूल करता है न ही उनका परिवार। विश्वविद्यालयों के छात्र संगठनों में चुनाव होते रहे हैं और होते भी रहेंगे। राजनीतिक पार्टियों से संबंधित विचारधारा के साथ यह संगठन चुनाव में उतरते हैं। यहीं से वर्चस्व की जंग शुरू हो जाती है। मेल-मिलाप, सहपाठी और प्रेम-प्यार, दोस्ती इत्यादि सब पीछे रह जाते हैं। जीत के लिए किसी भी हद तक यह छात्र संगठन आपस में उलझते देखे गए हैं। जात-बिरादरी, धर्म-मज़हब और ऊंच-नीच सब सामने आ जाते हैं। यहीं से नफरत की बुनियाद पड़ जाती है, क्या कभी उन्होंने सोचा कि ऐसे ही बदलेगी भारत की तस्वीर? आग से आग नहीं बुझती न ही कीचड़ से कीचड़ साफ होता है। हमनें पिछले छात्र संगठनों के चुनावों में आपसी गुटबंदी और मारधाड़ से सबक न सीखने का खमियाज़ा इस बार ज्यादा भुगता है। 
हम समझ नहीं सके कि देश के राजनेताओं को छात्र-संगठनों की राजनीति से दूर रहना चाहिए। हुआ क्या? इस बार देश के डेढ़-दर्जन से ऊपर विश्वविद्यालयों में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी की घटनाओं को सामने रख कर प्रदर्शन किए गए। क्या यह अच्छा होता कि देश के सभी विद्वान लोग, सभी स्कॉलर , सभी वाईस चांसलर मिल बैठ कर यूनिवर्सिटियों में होने वाले चुनाव के लिए नीति निर्धारित करते, नियम बनाते परन्तु ऐसा नहीं हुआ जैसे देश में साधारण चुनाव होते हैं, वैसे ही आरोप-प्रत्यारोप और घटिया नारेबाज़ी  का सहारा लिया जाता है और जीत-हार, प्रेम बनाए नहीं रख सकती। खेल भावना तो कहीं दिखाई नहीं देती, जीत-हार छात्रों में दूरियां बना जाती है, फिर भी कुछ होता है जो इस बार कुछ यूनिवर्सिटियों में देखने को मिला। बवाल और सनसनी जो इस बार जवाहर लाल नेहरू, जामिया मिलिया इसलामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी इत्यादि में देखने को मिला। यह न ही होता तो अच्छा था। क्या हमारे नेता राजनीतिक स्वार्थ में इस कदर अंधे हो गये हैं कि उन्हें देश के मान-अपमान, अच्छे-बुरे का भी ख्याल न रहा और यह सब संसार में जग-हंसाई का कारण बन सकता है। अब कोई पूछे कि आज़ाद मैदान मुंबई में फ्री कश्मीर के नारे लगाना किस छात्र संघर्ष का हिस्सा था? क्या इंटरनैशनल मीडिया इन बातों को उछाल कर देश की अखंडता का मजाक नहीं बनायेगा? बहुत हो चुका जब जागो, तभी से सवेरा समझो। जब देश में अपने ही अमन और चैन को आग लगायेंगे तब किस से गिला करें।  किसी शायर ने ठीक ही कहा है— 
अजीब हैं ये लोग ज़माने वाले
सेंकने बैठ गए आग बुझाने वाले।

कहा जाता है कि किसी देश को बर्बाद करना हो तो गोली-सिक्का बारूद की ज़रूरत नहीं। उस देश के शैक्षणिक संस्थानों को परेशान कर दो। यह बात पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने लोकसभा टीवी पर जब कही तो आज हालत सामने आ गई। इससे ज्यादा क्या कहें।