टूट गया है अकाली-भाजपा गठबंधन

दिल्ली के विधानसभा चुनावों के दौरान अंतत: भाजपा ने अकाली दल (ब) से नाता तोड़ने का ऐलान कर ही दिया। 8 फरवरी को दिल्ली राज्य में हो रहे चुनावों के लिए दिल्ली के भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने जब सीटों का ऐलान किया तो उसमें अकाली दल (ब) का कोई नाम शामिल नहीं था। 2 सीटें जनता दल (यू.) जिसका नेतृत्व बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार कर रहे हैं, के लिए छोड़ी गई और एक सीट लोक जन शक्ति पार्टी जिसके नेता राम विलास पासवान हैं, के लिए छोड़ी गई। चाहे दिल्ली के अकाली नेताओं ने यह नाता टूटने के कारण गिनाये हैं, परन्तु गत काफी समय से ऐसा कुछ होने की सम्भावना ही थी जिसमें अब कोई संदेह नहीं रहा। इससे पहले भी हरियाणा में हुए चुनावों में भाजपा ने एक तरह से अकाली दल (ब) को नज़रअंदाज़ ही कर दिया था और उसकी कोई बात नहीं मानी थी। 
यहीं बस नहीं। अकालियों के एकमात्र विधायक को उन्होंने तोड़ कर अपनी पार्टी में भी शामिल कर लिया था। अंतत: अकाली दल (ब) ने ओम प्रकाश चौटाला के नेतृत्व वाले इंडियन नैशनल लोक दल के साथ मिलकर कुछ सीटों पर चुनाव लड़े थे परन्तु उसको नमोशीजनक हार हुई थी। वर्ष 2017 के पंजाब विधानसभा के चुनाव अवश्य अकाली दल तथा भाजपा ने एकजुट होकर लड़े थे परन्तु उस समय भी दोनों का आपस में मोह भंग हो गया प्रतीत होता था। अनमने ढंग से लड़े इन चुनावों में अकाली दल (ब) के हिस्से सिर्फ 15 सीटें और भाजपा के हिस्से सिर्फ 3 सीटें ही आई थीं। ऐसी नमोशीजनक हार को पचा पाना अकाली दल के लिए मुश्किल हो गया था। सुखबीर सिंह बादल की अध्यक्षता में यह चुनाव लड़े गए थे परन्तु इससे पहले स. प्रकाश सिंह बादल के मुख्यमंत्री होते हुए दो बार दोनों ने मिलकर चाहे सरकार अवश्य बनाई थी परन्तु इनके संबंध कभी भी सुखद नहीं रहे थे। परन्तु उस समय अलग होने के लिए पंजाब भाजपा को दिल्ली से हरी झण्डी नहीं मिली थी। इसी कारण उन्होंने अपने रथ को पंजाब में लगाम लगाकर रखी थी और अब शायद ऊपर से हरी झण्डी मिल गई है। इसीलिए कुछ दिन पूर्व अश्विनी शर्मा की पंजाब प्रदेश के अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी के समय कई भाजपा नेताओं ने अकालियों के विरुद्ध अपना चिरकाल से दबा रोष निकाला था। पहले पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरुण जेतली जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, अमृतसर से लोकसभा चुनावों में हुई अपनी नमोशीजनक हार के लिए अकालियों को ज़िम्मेदार समझते थे और इसका उन्होंने प्रगटावा भी किया था। अकाली-भाजपा के शासन के समय भ्रष्टाचार, परिवारवाद, रेत-बजरी माफिया, शराब माफिया तथा केबल माफिया जैसे डरावने बादलों ने इन पार्टियों की छवि बड़ी सीमा तक धुंधली कर दी थी। इसलिए दोनों ही गुट एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहे थे। अब 22 वर्ष पुराना यह गठबंधन पूरी तरह से टूटता नज़र आ रहा है। हमें स्मरण है कि वर्ष 1998 में जब स. प्रकाश सिंह बादल राज्य के मुख्यमंत्री बने थे, तो उन्होंने अगले ही दिन श्री अटल बिहारी वाजपेयी के दरबार में जाकर भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान कर दिया था। 
यह वह समय था जब भाजपा का प्रभाव और आधार आज जैसा मजबूत दिखाई नहीं देता था। जिस तरह पंजाब में भाजपा नेता सीटों के आवंटन को लेकर दावे करने लगे हैं, जिस तरह वह 2022 में होने वाले राज्य के विधानसभा चुनावों में अपनी सरकार बनाने के दावे कर रहे हैं, उससे अब दोनों पार्टियों का गठबंधन टूटने में कोई संदेह नहीं रह गया। सुखबीर सिंह बादल को अकाली दल के भीतर से और बाहर से कई बड़ी चुनौतियां मिलनी शुरू हो गई हैं। उनके नेतृत्व पर गम्भीर सवाल काफी समय पूर्व ही उठने शुरू हो गये थे। क्या सुखबीर सिंह बादल ऐसे इम्तिहान से सफलता से निकल सकेंगे? यह सवाल आज सभी के मन में उठता दिखाई दे रहा है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द