देश के गरीब लोग भी देते हैं टैक्स

इन दिनों देश में टैक्स राष्ट्रवाद की आंधी आयी हुई है और इसने एक बिल्कुल झूठी बात को इतनी मजबूती से लोगों के दिलो-दिमाग में बैठा दिया है कि उसे निकालने में दशकों लग सकते हैं। यह झूठी बात है कि गरीब लोग टैक्स नहीं देते जबकि हकीकत यह है कि देश का गरीब से गरीब आदमी भी न सिर्फ टैक्स देता है बल्कि कई बार तो वह अपनी कमायी के अनुपात में सम्पन्न लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा टैक्स देता है।सवाल है कि आखिर लोग एक झूठ को इतना बड़ा सच बनाकर क्यों और कैसे स्थापित कर रहे हैं कि गरीब लोग टैक्स नहीं देते? दरअसल भारतीय समाज में गरीबी न केवल अभिशाप है बल्कि यह उन तमाम लोगों के लिए घृणा का विषय भी है जो सौभाग्य से गरीब नहीं हैं और हमेशा गरीब न हो जाएं, इस असुरक्षाबोध से ग्रस्त रहते हैं। अपने इस डर के चलते वे हिस्टीरियाई अंदाज में कुछ भी बकते रहते हैं। ऐसे लोग जरा-सा मौका मिलते ही देश के आम गरीब लोगों को यह कहकर कोसना शुरु कर देते हैं कि सरकार इनकम टैक्स देने वालों से पैसा वसूल करके गरीबों को मौज कराती है। दिल्ली के नतीजों के आते ही सोशल मीडिया इस तरह की पोस्टों से भर गया है कि केजरीवाल अमीर लोगों के टैक्स के पैसे ऐसे लोगों पर लुटा रहा है जो एक पैसा टैक्स नहीं देते। जबकि यह बात बिल्कुल सही नहीं है। दरअसल भारत में टैक्स दो प्रकार से दिये जाते हैं- डायरेक्ट टैक्स और इनडायरेक्ट टैक्स। डायरेक्ट टैक्स के अंदर इनकम टैक्स और कारपोरेट टैक्स आते हैं। इनकम टैक्स जैसा कि हम जानते हैं हमारी विशुद्ध आय पर देय होता है, जबकि ठीक इसी तरह कारपोरेशन टैक्स किसी कंपनी की विशुद्ध आय पर देय होता है। जबकि इनडायरेक्ट टैक्स या अप्रत्यक्ष कर हर उस व्यक्ति को चुकाना पड़ता है जो जिंदा है और सुबह जगने से लेकर रात में सोने तक जिंदगी को तमाम गतिविधियों के साथ जी रहा है। अब आइये जरा इस टैक्स को समझ लें। हिंदुस्तान उन देशों में से एक है, जहां किसानों को छोड़कर हर उत्पादक अपने उत्पाद की कीमत खुद तय करता है। इस पृष्ठभूमि में जरा अमीर और गरीब आदमी की करदेयता को समझें। मान लीजिए एक फैक्टरी मालिक अपनी फैक्टरी में चप्पल बनाता है। उसके चप्पलों की एक जोड़ी की समूची कीमत 15 रुपये आती है, जिसमें न सिर्फ  एक फैक्टरी को चलाने के लिए ली गई बिजली की कीमत बल्कि सारे खर्च भी जुड़े होते हैं। अब अगर फैक्टरी मालिक अपने चप्पलों को बाजार में 60 रुपये की कीमत पर उतारता है तो देश का गरीब से गरीब आदमी जब यह चप्पल खरीदता है तो उसे 15 रुपये की लागत के एवज में 60 रुपये देता है। अगर किसी रणनीति के चलते चप्पलों को सस्ता बेचा जाता है तो भी 60 रुपये की लिखित कीमत वाली चप्पलें 40 रुपये से कम तो नहीं मिलेंगी। इस तरह एक गरीब आदमी 15 रुपये की चप्पल के एवज में जो 40 रुपये अदा करता है, उसमें 25 रुपये का उससे वसूला गया एक भारी भरकम टैक्स होता है। एक आम आदमी के इन्हीं 25 रुपयों से फैक्टरी मालिक अपने इनकम का टैक्स चुकाता है और जीएसटी चुकाता है। जो अगर 10 फीसदी भी है तो 40 रुपये की चप्पल पर 4 रुपये उस खाते में शामिल होता है, जिस खाते में इकट्ठी हुई ऐसी धनराशि से ही तमाम सरकारी योजनाएं-परियोजनाएं बनती और चलती हैं। बिजली बनाने वाले बांध, यातायात के लिए बिछायी गई रेल की पटरियां, अस्पताल, सड़कें सब कुछ सरकार के जिस उगाहे गये टैक्स से निर्मित होते हैं, उसमें आम आदमी की बड़े पैसे वाले आदमियों के मुकाबले ज्यादा सक्रिय भूमिका होती है। क्योंकि जैसा कि हमने शुरु में उदाहरण दिया उद्योगपति या कारोबारी चूंकि अपनी सेवा और अपने उत्पाद की कीमत खुद ही तय कर लेता है तो वह सरकार को दिये गये टैक्स को भी आम जनता से ही अपनी सेवाओं और उत्पादों की कीमत बढ़ाकर हासिल कर लेता है। जबकि गरीब आदमी के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं होती कि वह अपने चुकाये गये टैक्स को किसी अप्रत्यक्ष तरीके से दूसरी जगह से हासिल कर ले। कुछ लोग यह भ्रम भी फैलाते हैं कि इनडायरेक्ट टैक्स कुछ खास नहीं होता। वास्तव में देश डायरेक्ट टैक्स से ही चलता है। जबकि ऐसा नहीं है। साल 2016-17 में डायरेक्ट टैक्स यानी इनकम टैक्स और कारपोरेट टैक्स के जरिये सरकार को कुल 8,49,713 करोड़ रुपये की प्राप्ति हुई जबकि इनडायरेक्ट यानी अप्रत्यक्ष कर, जो किसी भिखारी को भी चुकाना पड़ता है, जब वह कुछ भी खरीदता है। वह इनडायरेक्ट टैक्स इस साल 8,61,625 करोड़ रुपये था। इससे साफ  पता चलता है कि गरीबों द्वारा चुकाया गया टैक्स अमीरों के टैक्स से ज्यादा था। 2017-18 में भी यह आंकड़ा करीब-करीब बराबर था। इससे साबित होता है कि अमीरों के टैक्स पर गरीबों के मौज मनाने की जो घृणा से भरी धारणा लोगों के दिलो दिमाग में बैठायी गई वह कितना षड्यंत्र से भरी है। 

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