क्या उदार साख नीति कायाकल्प कर सकेगी निवेश का माहौल ?

कोरोना प्रकोप का मुकाबला करने के लिए देश भर के लिए सम्पूर्ण लॉकबन्दी के तीन चरण गुज़र गये, तो बहुत कटु यथार्थ देश के प्रशासन, आर्थिक विकास दर और निवेशकों के सामने आ गया। एक निश्चल अर्थ-व्यवस्था, आठ करोड़ बेकार हो गये कामगार और पूर्ण बन्दी से अपने आपर्ति और बिक्री चैनलों को ध्वस्त होते देखते लाखों निवेशक। देश में लगभग जो जहां था वहीं थम गया। कोविड महामारी से भयात्रस्त देश तो संक्रमण के बढ़ते हुए आंकड़ों के वास्ते कम मृत्यु दर का स्पष्टीकरण जुटाने में जुट गया। केवल पर्यटन, होटल, सेवा और मनोरंजन क्षेत्र पर ही फालिज नहीं गिरा, ज़रूरी उत्पादन कार्यों में जुटी उत्पादन क्रिया भी बेदम हो गई। शेयर मार्किट में रिकार्ड गिरावट दर्ज हुई, म्यूचल फंड की चन्द शीर्ष योजनाएं जैसे फ्रैंक्लीन टैम्पलटन की बहुत सुरक्षित मानी जाने वाली छ: योजनाएं भी दम तोड़ गईं। शेयर मार्किट और म्यूचल फंड किसी देश के औद्योगिक विकास और नये निवेश के ज़ामिन होते हैं। जब यही ऐतिहासिक गिरावट दिखाने लगे और शेयर मार्किट में बड़े निवेशक का लाखों करोड़ डूब गया, म्यूचल फंड में फ्रैंक्लीन की छ: ब्लू चिप बचत योजनाओं में सवा तीन लाख निवेशकों का भी 26 हज़ार करोड़ रुपया डूब गया। लेकिन उनको स्थगित भुगतान के सिवाय कोई आश्वासन नहीं मिला। ‘येस’ बैंक डूबा था, या महाराष्ट्र सहकारी बैंक डूबे, तो रिज़र्व बैंक ने देश के स्टेट बैंक को उनकी बांह पकड़ने के लिए कह दिया। अब उद्योगों को अपनी बचत योजनाओं से ऋण प्रदान करने वाला म्यूचल फंड हिला, तो सरकार ने सिवाए एक आवंटित कोष की ऋण खिड़की खोलने के कुछ भी नहीं किया। इसलिए उद्योगों के लिए वित्त प्राप्ति का यह रास्ता आस्था बना रखने के प्रयासों के अभाव के कारण बन्द होता नज़र आया।कोरोना महामारी का प्रकोप कम नहीं हुआ, लेकिन उसके साथ ही पूर्ण बन्दी तीन के चौथे चरण में खिंच जाने की सम्भावना ने बताया कि संक्रमण से मृत्यु भय से प्रकम्पि साधारण जन अब रोज़ी, रोटी खो रहे हैं। बीमारी से मरने से बड़ा ़खतरा भुखमरी से मरने का पैदा हो गया है। देश में मंदी का वातारण तो कोरोना महामारी से पहले ही फैल गया था, अब अर्थ-व्यवस्था पर थोप दी गई इस निश्चलता ने निवेशकों से लेकर कामगारों तक का भविष्य धुंधला कर दिया। हर राज्य से भूख और बेकारी से सताये हुए कामगार अपने गांव-घरों की ओर वापस चल दिये। सरकार द्वारा प्रदान किये गये परिवहन साधन पर्याप्त नहीं थे, तो पैदल चलते लोग रास्ते में काल कलवित होने लगे। स्थिति भीषण थी। प्रशासन के सामने कोई और विकल्प नहीं रह गया था, कि लॉकडाऊन चार में आर्थिक पाबन्दियों में राहत और ढील दे दी जाये, ताकि आर्थिक गतिविधियां पुन: जीवित हों, निवेश निर्णयों का कायाकल्प हो। शेयर मार्किट सिर उठा कर मन्दी से रोगी होती हुई अर्थ-व्यवस्था को नव-जीवन दें।इसके लिए पाबन्दियों से राहत भरी पूर्णबन्दी चार की घोषणा के साथ मोदी जी ने बीस लाख करोड़ रुपये की आर्थिक अनुकम्पा की घोषणा की। वित्त मंत्री ने निर्मला सीतारमण ने अपनी पांच धारावाहिक घोषणाओं में इस आर्थिक अनुकम्पा का ब्योरा पेश किया। इसमें नकद का बंटवारा कम और उधार लेने की सहज सुविधाओं की बात ज्यादा थी। प्राय: ऐसी बूस्टर डोज़ की घोषणा के बाद देश की शेयर मार्किट जान पकड़ती है। लेकिन यहां ऐसा कोई प्रभाव नहीं हुआ, बल्कि सब शेयर मंडियों ने गिरावट दर्ज कर दी। क्योंकि बीस लाख करोड़ के इस आर्थिक सहयोग में तत्कालिक राहत नहीं थी, ऋण माफी नहीं थी, केवल किस्तें चुकाने में देर करने की इजाज़त न थी। ब्याज दर में कमी नहीं हुई। सही है मध्यम लघु और कुटीर उद्योग को बिना गारंटी उदार ऋण के लिए तीन लाख करोड़ रुपया रखा। कृषि ढांचे के विकास की बात की गई। मनरेगा को और पैसा मिल गया, लकिन पूरा ज़ोर निवेशकों के लिए ऋण देने और उधार से विकास करो के मूलमंत्र का था।ऐसी घोषणा इसके बाद अप्रत्याशित रूप से रिज़र्व बैंक ने यह मानते हुए की कि देश के लिए भयावह मंदी का ़खतरा मंडराने लगा है, और इस सम्भावना को पहली बार स्वीकारते हुए कि देश की विकास दर शून्य से नीचे और नकारात्मक हो सकती है। घोषणा हुई  रैपो रोट और रिवर्स रैपो रेट को घटा कर ऋण पर ब्याज दर और ई-एम.आई. घटाने के स्पष्ट संकेत दे दिये गये। कोविड महामारी के बाद दूसरी बार रिज़र्व बैंक ने अपनी मौद्रिक नीति में रैपो रेट घटाये हैं। मंशा स्पष्ट है कि निवेशक चाहे छोटा हो या बड़ा या कृषि क्षेत्र का नया निवेशक, सस्ते कज़र्ों से प्रोत्साहित होकर आगे बढ़े।लेकिन इसके बावजूद इस बार शेयर मंडियों ने सकारात्मक प्रत्युत्तर नहीं दिया। शेयर सूचकांक एक बार फिर गिरा। कारण स्पष्ट है कि केवल ब्याज दर घटाने से ही निवेश प्रोत्साहित नहीं हो जाएगा। मंदी के इस वातावरण में पूंजी की सीमान्त उत्पादकता बढ़ाये बिना काम नहीं चलेगा। आपूर्ति पक्ष की लागत तो ब्याज दर घटाने से घट गई, लेकिन बढ़ी मांग मंडियों में नज़र नहीं आ रही। बेकारी और भुखमरी के इस वातावरण में आमजन की क्रय शक्ति बुरी तरह से कम हो गई है। जब तक वंचित वर्ग अपनी जेबों में पैसे की दिलासा नहीं पाएगा, मांग नहीं बढ़ेगी। ब्याज घटाने का यह सरकारी प्रयास एकांगी रहेगा और बेअसर भाग्य नियन्ता ध्यान दें।