तालमेल तो ठीक है, लेकिन माहौल बनाने में असफल रहा विपक्ष

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार हर मंच से दावा कर रहे हैं कि मई के महीने में होने वाले लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी को 370 सीटें मिलेंगी, और उनका मोर्चा 400 के पार चला जाएगा। अपने कार्यकर्ताओं को जोश दिलाने के लिए इस तरह की बातें ठीक हैं, लेकिन यह एक तथ्य है कि जब तक भाजपा दक्षिण भारत में जीत हासिल करने लायक समर्थन आधार तैयार नहीं करती, तब तक वह इस तरह का नतीजा हासिल नहीं कर सकती। इससे पहले तो भाजपा को 272 सीटें लाने की गारंटी करनी होगी। पिछली बार उसने कर्नाटक (25), तेलंगाना (4), पश्चिम बंगाल (18), बिहार (17), झारखंड (11) और महाराष्ट्र (23)को मिला कर 98 सीटें जीती थीं। इन सीटों को दोबारा जीतना आसान साबित नहीं होगा। इन राज्यों में परिस्थितियां बदल चुकी हैं। महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी भाजपा की महायुति से आगे है। बिहार में महागठबंधन एनडीए को कड़ी टक्कर देने जा रहा है। झारखंड में सोरेन सरकार गिराने के चक्कर में भाजपा मात खा चुकी है। बंगाल में ममता बनर्जी 2019 के मुकाबले ज्यादा सतर्क और तैयार हैं। कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार भाजपा की राह में बहुत मुश्किलें पेश करने वाली है। यह ज़रूर है कि इस सबके बावजूद भाजपा विपक्ष से बेहतर स्थिति में है।
आखिरकार लड़खड़ाते हुए ही सही, लेकिन विपक्ष की एकता अपने मुकाम तक पहुंचती दिखने लगी है। संभावना यह है कि उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बंगाल, गुजरात, गोवा, असम, मेघालय, बिहार और महाराष्ट्र में इस महीने या मार्च के पहले सप्ताह तक कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, बिहार के महागठबंधन और महाराष्ट्र के महाविकास अघाड़ी की पार्टियों के बीच सीटों का तालमेल हो जाएगा। पिछले दो लोकसभा चुनावों के लिहाज़ से देखें तो इस बार यह एक नयी बात होगी। भाजपा के खिलाफ विपक्ष की एकता का सूचकांक 2014 और 2019 में शून्य था। इस बार वह कम से कम शून्य नहीं बल्कि उससे कुछ बेहतर होगा। 
प्रश्न यह है कि इस विपक्षी एकता की संरचना और राजनीतिक मर्म की समझ किस तरह बनानी चाहिए? क्या विपक्ष उस आश्वासन पर खरा उतर रहा है जो उसने करीब साल-सवा साल पहले देश की जनता को दिया था? राहुल गांधी अपनी पहली ‘भारत जोड़ो यात्रा’ करते हुए बार-बार कहते थे कि हम विपक्ष के साथ मिल कर भाजपा को हराएंगे। नितीश कुमार का कहना था कि उनकी दिलचस्पी तो केवल विपक्ष की एकता में है। मेरा आकलन यह है कि गठबंधन तो हुआ है, और बचा-खुचा भी हो जाएगा। लेकिन यह आधा-अधूरा और खींचतान कर किया गया है। इसने मुद्दों को आपस में गूंथ कर भाजपा द्वारा बनाई जा रही हवा के मुकाबले किसी समांतर हवा को बनाने की कोशिश तक नहीं की गई है। विपक्ष ने सिर्फ अंकगणित तैयार किया है। रसायनशास्त्र की तरफ उसकी निगाहें हैं ही नहीं। वह माहौल तैयार ही नहीं किया गया है जिसके ज़रिये सत्ता-परिवर्तन की भावना मतदाताओं के बीच फैलती। इस लिहाज़ से यह पैरों के बल पर नहीं, बल्कि सिर के बल खड़ा गठजोड़ है। 
विपक्ष को ‘इंडिया’ नामक गठजोड़ घोषित करने के बाद सबसे पहला काम न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने के रूप में अंजाम देना चाहिए था। सोनिया गांधी ने नौ मुद्दों को रेखांकित करके उसकी शुरुआत भी कर दी थी। इसके बाद केवल क्षेत्रीय शक्तियों को उनके साथ अपने-अपने स्थानीय मुद्दे जोड़ने भर थे। लेकिन यह काम फटाफट न करके समय बर्बाद किया जाता रहा। शायद शुरू से विपक्ष के नेता सोच रहे थे कि केवल सीटों का तालमेल करके वे अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेंगे। यही कारण यह है कि आज विपक्ष के पास ऐसी कोई कहानी नहीं है जो वह देश की जनता को सुना सके। उसके पास मोदी सरकार के खिलाफ किसी भी मुद्दे पर जारी किया गया कोई श्वेतपत्र नहीं है जिसे वह सरकार की विफलताओं के प्रमाण के तौर पर पेश कर सके। 
इसका मतलब यह हुआ कि ‘इंडिया’ गठबंधन के उम्मीदवार चुनाव का पर्चा भरने के बाद मतदाताओं के पास महंगाई, बेरोज़गारी, किसान आंदोलन, मोदी-अडाणी संबंध, भारत-चीन सीमा विवाद और साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों के  साथ जाएंगे ज़रूर, लेकिन उनके पास देने के लिए कोई वैकल्पिक संदेश नहीं होगा। वे जनता को यह नहीं बता पाएंगे कि अगर मोदी सरकार रोज़गार नहीं दे सकती तो वे किस तरह नौकरियों और रोज़गार का बंदोबस्त करेंगे। वे मतदाताओं को यह भरोसा नहीं दे पाएंगे कि अगर मोदी सरकार महंगाई कम नहीं कर पाई है तो उनके पास ज़रूरी चीजों के दामों का उचित प्रबंधन करने का क्या बंदोबस्त होगा। वे ऐसा कोई दावा नहीं कर पाएंगे कि अगर मोदी सरकार किसानों को फसलों के लाभकारी मूल्य मुहैया कराने के वायदे से मुकर रही है, तो वे कैसे और कितने समय में किसानों की यह मांग पूरी कर देंगे। चीन सीमा पर लगातार अतिक्रमण कर रहा है, और मोदी सरकार उसे रोकने में असमर्थ है। पर क्या विपक्ष के पास इस बात की कोई गारंटी है कि वह चीन को पीछे धकेल देगा? 
विपक्ष ने दरअसल किसी वैकल्पिक नक्शे को पेश करने में दिमाग ही नहीं खपाया है। उसका रवैया प्रतिक्रियात्मक है। जैसे, जब किसानों ने दिल्ली मार्च शुरू किया तो विपक्षी नेता उसके बारे में बोलने लगे। जब लखनऊ में प्रश्न-पत्र लीक हुए तो रोज़गार पर कुछ कहना शुरू कर दिया। अगर महंगाई का आंकड़ा आया तो सरकार की कुछ निंदा कर दी। अडाणी पर विदेशों से किसी तथ्य की आमद हुई तो ‘क्रोनी कैपिटलिज़म’ पर वक्तव्य जारी कर दिया। अगर वे सुव्यवस्थित तरीके से काम करते तो सभी ज़रूरी मुद्दों पर अपनी समांतर कार्ययोजना पेश करते। यह काम एक दिन में नहीं हो सकता था। इसमें साल-डेढ़ साल लगना था। आज मतदाताओं को यह पता नहीं है कि अगर वे मोदी की सरकार को हटाने के बारे में सोचें भी, तो जो नयी सरकार उसकी जगह आएगी, उससे उन्हें क्या अपेक्षा करनी चाहिए। 
ऐसा लगता है कि विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ किसी बहुत बड़ी तथा प्रबल एंटीइनकम्बेंसी की उम्मीद में है। लेकिन क्या ऐसी कोई सरकार विरोधी आंधी चल रही है? मेरा ़ख्याल है कि विपक्ष के प्रति खासी हमदर्दी रखने वाला कोई समीक्षक भी सत्ता-परिवर्तन कर सकने वाली किसी आंधी को नहीं देख पा रहा है। दस साल तक चलने वाली सरकार के विरोध में कुछ न कुछ नाराज़गियां होती ही हैं, लेकिन वे अपने आप में चुनाव जीतने की कोई गारंटी नहीं देतीं। सत्ता विरोधी भावना की अनुपस्थिति में विपक्षी उम्मीदवार केवल स्थानीय जातिगत और समुदायगत समीकरणों के आसरे ही रहेंगे। हो सकता कि कुछ निर्वाचन-क्षेत्रों में उन्हें इस आधार पर कामयाबी मिल जाए, लेकिन अगर ऐसा हुआ भी तो वह अपवादस्वरूप ही होगा। इस परिस्थिति में मतदाता केवल एक ही पार्टी की सरकार बनते हुए देख पा रहे हैं। जमी हुई सरकार उखाड़ने के लिए किसी वैकल्पिक संरचना को उनके विचारार्थ पेश ही नहीं किया गया है।   
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।