दुनिया की सब से आरामदायक  ‘बासतोये जेल’

अएगर जेल शब्द को आराम और सुखद के साथ जोड़ कर दर्शाया जाए तो स्वाभाविक है कि आश्चर्य होगा। क्योंकि जेल शब्द सज़ा के साथ संबंध रखता है और सज़ा का आराम या सुख के साथ कोई रिश्ता नहीं होता। जेल से भाव है कि आरोपी को सज़ा के दौरान हर पल यह महसूस करवाना कि उसने अतीत में जो अपराध किए हैं उसकी सज़ा वह भुगत रहा है। आरोपी को सज़ा देकर यह आशा की जाती है कि वह आगे से सुधर जाएगा। इसीलिए जेल को सभ्यक शब्दों में ‘सुधार घर’ भी कहा जाता है। सवाल यह है कि जेल से सज़ा भुगत कर आया आरोपी सचमुच सुधर जाता है? जवाब तसल्लीबख्श नहीं है। हक़ीकत यह है कि किसी जेल से वापिस आया कैदी अपराध के क्षेत्र में अपने से अधिक तजुर्बेदार खिलाड़ियों के पास नये दांव-पेच सीख चुका होता है। इसीलिए एक बार सज़ा भुगत कर फिर से कोई अपराध करके दोबारा जेल जाने वाले अपराधियों की उदाहरणें पूरी दुनिया में मौजूद हैं। कारण साफ है कि अधिक संख्या में जेलों में कैदियों को अच्छी ज़िन्दगी सिखाने की बजाये उनकी सज़ा पूरी करने पर ज़ोर दिया जाता है। इसीलिए आरोपी की ज़िन्दगी को सकारात्मक मोड़ देने का प्रयास नहीं किया जाता। इस समस्या से निपटने के लिए आज के नये और आधुनिक युग में कई विकासशील देश कैद और सज़ा के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर खोज करके इस संकल्प को अच्छे ढंग से बदलने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयास का एक उदाहरण है दुनिया के बेहद आधुनिक देश नार्वे के भीतर मौजूद जेल ‘बासतोये जेल’। बासतोये जेल नार्वे देश के बासतोये नामक एक समुद्री द्वीप पर मौजूद है। लगभग 2.6 वर्ग किलोमीटर का यह द्वीप राजधानी उसलो से 75 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। ऐतिहासिक तौर पर बात करें तो इस द्वीप पर नार्वे सरकार की ओर से 1915 में युवा लड़कों के लिए एक जेल स्थापित की गई थी। इस जेल में इन पर काफी अत्याचार किया जाता रहा।  आखिर में लड़कों ने ब़गावत कर दी और इस ब़गावत को नार्वे की सेना ने आकर सम्भाला। इसके बाद यह जेल बंद कर दी गई। बहुत लम्बे समय के बाद नार्वे सरकार की ओर से इसी द्वीप पर 1982 में वर्तमान कैदखाना स्थापित किया गया। इस समय इस जेल में 120 के लगभग कैदी मौजूद हैं और जेल स्टाफ के तौर पर 70 के करीब कर्मचारी यहां काम करते हैं। जेल तक पानी के रास्ते फेयरी के द्वारा ही पहुंचा जा सकता है, जो नार्वे हार्टन शहर के समुद्री किनारे से चलती है। इस जेल में कैदी आत्म-निर्भर तौर पर रहते हैं। कैदी आम साधारण कपड़ों में ही रहते हैं। दिलचस्प है कि जेल के स्टाफ की कोई भी वर्दी नहीं है। इसीलिए नये लोगों के लिए कैदी और कर्मचारियों के मध्य अन्तर करना भी कठिन हो जाता है। कैदियों को लकड़ी के बने सांझे घरों में रिहायश उपलब्ध करवाई जाती है। जिसमें हर कोई अपने निजी कमरों में रहता है। इन घरों में टी.वी. रसोई और बाथरूम का समूचा प्रबंध है। दिन में एक समय का खाना जेल की ओर से उपलब्ध करवाया जाता है और बाकी समय का खाना कैदी अपनी इच्छा के अनुसार बना कर खाते हैं। कैदियों को घोड़े, भेड़ें और अन्य जानवरों को पालने की ज़िम्मेदारी दी जाती है। इन जानवरों की सहायता से यह कैदी द्वीप पर कृषि करके अनाज पैदा करते हैं और यही अनाज वह अपने खाने-पीने के लिए प्रयोग करते हैं। द्वीप पर नये वृक्ष लगाने, पुराने वृक्ष काटने और इन वृक्षों की लकड़ी को शीत ऋतु में जलाने के लिए प्रयोग करने योग्य बनाना, कृषि करना, कैद काट कर बाहर जाने से पहले कोई काम या हुनर सीखना और द्वीप का रख-रखाव करना कैदियों का मुख्य कारण है। कैदियों को प्रतिदिन के काम के बदले 10 अमरीकी डॉलरों के करीब पैसे दिये जाते हैं। इसके अलावा खाने के लिए प्रत्येक को 90 डॉलरों के करीब मासिक भत्ता मिलता है। इस कैदखाने में खाली समय व्यतीत करने के लिए फुटबाल, वालीबॉल या टैनिस खेलने, घुड़सवारी करने, छोटे से सिनेमाघरों में फिल्म देखने और अपने मनोरंजन के अन्य साधनों का प्रबन्ध है। समुद्र में मछली पकड़ना भी कैदियों का खास मनोरंजन है। गर्मियों में कैदी धूप का मज़ा लेने के लिए बीच पर जाते हैं। इसके अलावा लाइब्रेरी, गिरिजाघर और ज़रूरत का घरेलू सामान खरीदने के लिए जेल में निजी दुकानें मौजूद हैं। यूरोपीय मीडिया के कई आलोचक यह भी कहते हैं कि यह जेल है या पिकनिक मनाने का स्थान? लेकिन नार्वे सरकार इस जेल की नीतियों को बदलने के लिए तैयार नहीं है और इसके पीछे एक तकनीकी कारण है। दरअसल इस जेल में रखने के लिए कैदियों का चुनाव किया जाता है। नार्वे की बाकी जेलों में कैदी इस जेल में आने के लिए याचिका दायर करते हैं और जेल प्रबंधक इन कैदियों के पीछे के व्यवहार को मुख्य रख कर अच्छी कार्यशैली वाले कैदियों को ही यहां आने का अवसर देते हैं। कहा जाता है कि अच्छे व्यवहार वाले कैदी ही मैरिट के आधार पर यहां दाखिल होते हैं। इसी तरह कैदियों को अपने खास होने का एहसास होता है और यह कैद सचमुच ही उनके लिए सुधार घर साबित होती है। जेल के भीतर संगीन अपराध करने वाले कैदी भी मौजूद होते हैं। लेकिन उनका सभ्यक व्यवहार यहां पहुंचने के लिए काम आ जाता है। यहां से कैद काट कर बाहर गये कैदियों में अपराध का अनुपात बेहद कम है। नार्वे में मौत की सज़ा या उम्र कैद का प्रावधान नहीं है। अधिक से अधिक सज़ा 21 वर्ष की दी जा सकती है या बहुत ज्यादा अपराधों के लिए एक खास एक्ट के अधीन 30 वर्ष की सज़ा का प्रावधान है। वैसे भी नार्वे में अपराध का अनुपात बहुत ही कम है। कैदियों और जेल के स्टाफ का आपसी रिश्ता विश्वास और ज़िम्मेदारी वाला है। दिलचस्प है कि 70 के लगभग जेल स्टाफ में करीब 5 या 6 स्टाफ सदस्य ही रात को जेल में रुकते हैं और शेष रात को घर वापिस चले जाते हैं। इस ढंग से रात के समय जेल के अन्दर हालात की ज़िम्मेदारी कैदियों की ही होती है। दिन के समय स्टाफ की ज्यादा संख्या इसीलिए भी रहती है क्योंकि इस द्वीप पर आम लोग घूमने-फिरने और इस जेल को देखने के लिए भी आते रहते हैं। इसलिए अनुशासन कायम रखने के लिए ज्यादा लोगों की ज़रूरत पड़ती है। जेल अधिकारियों का कहना है कि हम इस जेल की ज़िन्दगी को बाहर के आम जीवन जैसा बनाकर रखना चाहते हैं और यह तरीका कैदियों को फिर से अच्छे शहरी बनने में मददगार साबित होता है। यहां तक कि जब किसी कैदी की सज़ा पूरी होने का समय निकट आ जाता है तो उसको पहले से ही उसके द्वारा सीखे गए किसी हुनर के अनुसार सिविल में नौकरी करने का अवसर दिया जाता है। ऐसे कैदी दिन के समय द्वीप से शहर जा कर नौकरी करते हैं और रात को जेल के भीतर वापिस आ जाते हैं। कुछ कैदी तो द्वीप से शहर आती समुद्री फेयरी और स्टाफ के तौर पर भी नौकरी करते हैं। जेल के इस इतिहास में सिर्फ एक कैदी ने 2015 में यहां से भागने का प्रयास किया था, लेकिन पकड़ा गया था।पश्चिम जगत में इस जेल की पृष्ठ भूमि पर बहुत सारे साहित्य, दस्तावेज़ी फिल्में और कारोबारी फिल्में बनी हुई हैं। विशेष तौर पर माइकल मूर की ‘सिसको’ (2017) और ‘वेयर टू इनवेड नैकस्ट’ नामक दस्तावेज़ी फिल्में और मारीशियस होटल के निर्देशन तले बनी कारोबारी फिल्म ‘किंग ऑफ डेविल्स आइसलैंड’ (2015) उल्लेखनीय हैं। इस फिल्म में 1915 के दौरान इस जेल के हालात और ब़गावत को फिल्माया गया है।  अगर जुर्म पेशा और गुनाहगारों को सचमुच ही स्वस्थ समाज बाशिंदे बनाना है तो इसी तरह के प्रयोग पूरी दुनिया में होने चाहिएं। विशेष कर भारत में जहां जेलों में कैद कैदियों की भारी संख्या मौजूद है। हर राज्य में कम से कम ऐसी एक जेल की आवश्यकता है। दोषी को कैद में रखना शारीरिक व्यवहार है, लेकिन उसकी सोच या जीवन को बदलना मानसिक व्यवहार है, जोकि परम्परावादी जेल प्रबन्ध में मुमकिन नहीं है। बदलते समय में जब जीवन का प्रत्येक नुक्ता नये सांचे में ढल रहा है तो मानवीय समाज के इस खास पक्ष की ओर भी ध्यान देना बनता है। 

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