बच्चों के भविष्य पर कसता कोरोना का शिकंजा

इस साल फरवरी, मार्च में जब कोरोना के कहर ने दुनिया में अपना शिकंजा कसना शुरू किया था, उस समय माना जा रहा था कि 20 साल से कम उम्र के किशोर इसका कम शिकार हैं। तब यह दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में बिना किसी प्रमाण के भी एक साझी सोच बन गई थी कि बच्चे कोरोना के संक्रमण के खतरे से मुक्त हैं, लेकिन अब जबकि पूरी दुनिया कोरोना के करीब करीब पहले चक्र को झेल चुकी है और बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गई है, तब यह सच्चाई सामने आ रही है कि कोरोना के शिकंजे से किशोर मुक्त नहीं हैं बल्कि बड़ी तादाद में किशोर इसके जानलेवा शिकंजे में फंस गये हैं। कम उम्र होने के नाते सीधे-सीधे इनमें कोरोना संक्रमण के लक्षण भले कम हों, वयस्कों और बूढ़ों के मुकाबले इनकी मृत्यु दर भले कम हो लेकिन इन्हें कई दूसरे तरह के संकटों से जूझना पड़ रहा है, जो समाज के दूसरे आयुवर्गों के मुकाबले ज्यादा कठिन है।यूनिसेफ  की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों, विशेषकर किशोरों पर कोरोना का एक भयावह संकट उभरकर सामने आया है। यूनिसेफ  का कहना है कि अगर युद्धस्तर पर बचाव की सजग तैयारी नहीं की गई तो अगले छह सात महीने में यानी दिसम्बर-जनवरी 2020-2021 तक 12 से 14 करोड़ बच्चे अकेले दक्षिण एशिया के कोविड-19 के संकट का शिकार हो जाएंगे। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि इन सब बच्चों को कोरोना हो जायेगा लेकिन कोरोना जैसी भयावह आपदा का सबसे बुरा साइड इफेक्ट इन्हें झेलना पड़ेगा। दरअसल मार्च 2020 से ही हिंदुस्तान के ज्यादातर स्कूल बंद हैं। बच्चे घरों में हैं और भावनात्मक तौर पर बोर हो रहे हैं।लेकिन असली संकट भावनाओं के पार है। पिछले 3 से ज्यादा महीने से घर में बैठे करीब 40 फीसदी बच्चों के सामने अब यह संकट खड़ा हो गया है कि जब स्कूल खुलेंगे तो क्या वे रेगुलर स्कूल जा सकेंगे? दरअसल भारत में गरीब बच्चों के लिए पढ़ना कभी भी आसान नहीं होता, और जब एक बार चलती हुई पढ़ाई छूट जाए, और कोई संकट न भी रहा हो, तब भी 40 फीसदी बच्चे कभी लौटकर दोबारा पढ़ने की तरफ  नहीं आते। लेकिन अब जिस तरह के हालात हैं, ऐसे में यह आशंका बहुत ज्यादा बढ़ गई है। दरअसल लॉकडाउन के चलते देश की अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गई है। 50 फीसदी से ज्यादा सरकारी अध्यापकों को या तो इस बीच तनख्वाह नहीं मिली या उनकी जितनी तनख्वाह बनती है, उसमें आधा या दो तिहाई मिली है। प्राइवेट स्कूलों का हाल यह है कि ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों ने अपने अध्यापकों और स्पोर्ट स्टाफ  को तब तक के लिए घर में बैठा दिया है, जब तक कि फिर से स्कूल नहीं खुलते लेकिन हम सब जानते हैं कि अध्यापकों की छुट्टी करके स्पोर्ट स्टाफ  को नौकरी से निकालकर जो स्कूल यह आश्वासन दे रहे हैं कि स्कूलों के खुलते ही वे तमाम आधुनिक ज़रूरतों के मुताबिक छात्रों को आधुनिक सुविधाएं प्रदान करेंगे, वे निश्चित रूप से  खुद को या दूसरों को धोखे में डाल रहे हैं। बड़े पैमाने पर प्राइवेट स्कूल लॉकडाउन के पूरी तरह से खुलने यानी स्कूलों के खुलने के बाद भी नहीं खुलेंगे। सरकारी स्कूलों में भी अब पहले जितने बच्चे स्कूल नहीं जा सकेंगे। कारण यह है कि एक बार अगर बच्चों का स्कूल जाना कम या खत्म हो जाता है, तो बड़ी संख्या में बच्चे फिर दोबारा स्कूल नहीं जा पाते।लेकिन दक्षिण एशिया में कोविड-19 के चलते बच्चों के स्कूल जाने की समस्या नहीं है। जैसा कि हम सब जानते हैं, हिन्दुस्तान में बहुत बड़ी संख्या में बच्चे अनाथ हैं और वे सड़कों के किनारे फुटपाथ पर रहते हैं। ऐसे में जब से कोविड की समस्या सामने आयी है, तब से सबसे ज्यादा संकट में यही फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे दिखे हैं। यूनिसेफ  के मुताबिक दक्षिण एशिया के आठ देशों भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, मालद्वीप और श्रीलंका आदि हैं, के करीब 36 करोड़ बच्चे अनाथ हैं या घरों से भागे हुए हैं। वे सड़कों के किनारे फुटपाथों पर रहते हैं। इन बच्चों पर सबसे ज्यादा संकट की तलवार लटक रही है। जब से कोरोना के संकट ने दुनिया को अपनी गिरफ्त में लिया है। भारतीय उप-महाद्वीप में अगर सबसे ज्यादा कोई इससे परेशान हुआ है तो ये घर से दूर रहने वाले बच्चे ही हैं। यूनिसेफ  का आंकलन है कि कोरोना संकट के चलते जिस तरह से फुटपाथ पर रहने वाले इन बच्चों के लिए खाने के लाले पड़े हुए हैं तथा स्वास्थ्य से लेकर सामाजिक तिरस्कार तक का सामना इन्हें करना पड़ रहा है, उससे 8 लाख से ज्यादा बच्चों के मरने की आशंका पैदा हो जाती है। इनमें हालांकि बड़े पैमाने पर बहुत छोटे बच्चे शामिल हैं, जिनकी उम्र छह महीने से लेकर एक-डेढ़ साल की है। लेकिन बड़े बच्चे भी हैं जो कोरोना के चलते घोर परेशानियों और लगभग सामाजिक बहिष्कार का शिकार हो रहे हैं। यूनिसेफ  की रिपोर्ट ‘लाइव्स अपडेट-हाउ  कोविड-19 थ्रेटेंस द फ्यूचर ऑफ  600 मिलियन साउथ एशियन चिल्ड्रन’ के मुताबिक सिर्फ  36 करोड़ बच्चे ही नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर उनकी माताओं पर भी कोविड-19 का खतरा मंडरा रहा है। गौरतलब है कि बच्चों पर कोरोना का असर हेल्थ से ज्यादा वित्तीय स्तर पर पड़ रहा है। एक तो पहले से ही दक्षिण एशिया में करीब 24 करोड़ बच्चे फुटपाथ पर रहते हैं और कई तरह की बीमारियों से ग्रस्त होते हैं। वहीं कोरोना के कहर ने उनसे जीवन के बहुत मामूली संसाधन भी छीन लिए हैं। जॉन हॉपकिंस ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ  पब्लिक हेल्थ के एक शोध आंकड़े के मुताबिक दुनिया में सबसे खराब स्थिति में दक्षिण एशिया के ही बच्चे हैं। कोरोना संकट के चलते ऐसे 8 लाख से ज्यादा बच्चों पर तथा 36 हजार से ज्यादा माताओं पर भुखमरी का शिकंजा कस गया है। यूनिसेफ  की प्रतिनिधि यासमीन हक ने साफ  तौर पर कहा है कि विभिन्न संस्थाओं, सरकारों और समाज को मिलकर आगे आना होगा और समाज के इन दुर्भाग्यशाली बच्चों के लिए कुछ करना होगा। दरअसल एक समस्या यह भी है कि जब सरकारें विभिन्न समुदायों की कोरोना संकट के चलते मदद करती हैं तो मदद पाने वालों में बच्चे सबसे पीछे रह जाते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि अब जबकि संकट सिर पर आ गया है, तो बच्चों की चिंताओं के बारे में नये सिरे से सोचना होगा।