घरौंदा

मैं(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक  देखें)
कहां जा मरूं अब! वे दोनों दामाद तो मुझे बात-बात पर टोकते रहते हैं। एक यही दामाद नरम स्वभाव का है। इतने वर्ष गुज़ार दिये यहां। अब मैं कहां जाऊं...’ और वे रोने लग जाती। ‘भगवान ने तीन बेटियां दे दी। अगर एक बेटा दे देता तो उसके घर में कौन-सी कमी हो जानी थी। बेशक मेरी रत्ती भर भी इज्ज़त न करता... मगर मैं घर के किसी कोने में तो पड़ी रहती।’
रीटा भी परेशान हो गई थी। इतने वर्षों से साथ रह रही थी मां को झट से कैसे घर से बाहर धकेल दे। सासु मां रीटा के साथ तो स्पष्ट रूप से कोई बात न करती मगर मुकेश का दिमाग चाटती रहती कि रीटा की मां को कहीं और भेज दे। ...और इधर रीटा की मां रीटा के पास अपना रोना-धोना ले बैठती-‘अगर रसोई में मैं किसी बर्तन को हाथ भी लगा दूं, तो तुम्हारी सास तुरंत उस बर्तन को झूठे बर्तनों में डाल देती है। मुझे क्या छूत का रोग है जो इसे लग जाएगा।’
पूरा परिवार जैसे दो पाटों में बंट गया था। 
एक तो दोनों बुजुर्गों के स्वभाव का पंगा, दूसरे मुकेश की बेरुखी से रीटा के स्वभाव में चिड़चिड़ापन भी बढ़ने लगा था तथा उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा था। उस दिन भी जब रीटा ने उससे कुछ कहा तो वह तिलमिला उठा था- ‘मेरा दिमाग क्यों चाट रही है। अपनी मां को क्यों नहीं समझाती।’
‘क्या बात करते हैं आप भी। मेरी मां क्या आपकी कुछ नहीं लगती?’ रीटा को तो यूं लगा था जैसे किसी ने उसके सीने में नश्त्तर चुभो दिया हो- ‘आपकी इस बेरुखी ने तो मेरा ब्लड प्रैशर बढ़ा दिया है।’
‘तो मैं कौन-सा सुखी हूं’ मुकेश की आवाज़ भी भर्रायी हुई थी।
मगर शायद उन्हें मालूम न था कि उनका यह वार्तालाप रीटा की मां ने सुन लिया था। वह मन ही मन स्वयं को कोसने लगी थी- ‘मेरे यहां रहने से कहीं यह घर ही न टूट जाए। वास्तविकता तो यही है कि दामाद के घर पर तो उसकी मां का ही हक होता है... और मैं भला कौन हूं? मैं दामाद की नहीं, बेटी की मां हूं।’
...और अन्तत: रीटा की मां ने जैसे मन ही मन कुछ फैसला कर लिया था।
तथा जब मुकेश तथा रीटा आफिस चले गये थे तो उसने अपना अटैची तैयार कर लिया था।
रात को जब मुकेश तथा रीटा घर लौटे तो ड्राइंग रूम में अटैची पड़ा देख कर आश्चर्यकचित हो उन्होंने पूछा- ‘गुड़िया कौन आया है?’
‘पापा आया तो कोई नहीं, नानी मां जा रही हैं।’
‘हैं कहां जा रहे हैं आप?’ मुकेश ने विस्मित हो सास से पूछा। 
‘बस बेटा, जहां तकदीर ले जाएगी, चली जाऊंगी। मेरे यहां रहने से तो इस घर की खुशियां कहीं दूर चली जाएंगी।’ कहते-कहते उनकी आंखें भर आई थीं।
कुछ पल के लिए तो सभी जैसे स्तब्ध रह गये थे। तब मुकेश ने एक बार रीटा की ओर देखा और अटैची उठाते हुए बोला-‘आपका दिमाग तो नहीं फिर गया... कैसी बातें करते हैं आप?’... कोई अपना घर भी छोड़कर जाता है। उस मां ने तो मुझे जन्म दिया है लेकिन आपने तो न मात्र मुझे अपितु मेरी औलाद को भी सम्भाला है।... मेरी एक नहीं दो मातायें हैं। फिर कभी ऐसा मत सोचना। आपने कहीं नहीं जाना। समझे।’ कहते हुए मुकेश का गला भर आया। ... और वह अटैची उठाकर अन्दर वाले कमरे की ओर चल पड़ा था। (समाप्त)