मरने और मरने का अन्तर

बौराये हुए लोग शहरों से उखड़ कर गांवों की ओर, और गांवों में कोई ठिकाना न पाकर फिर शहरों की ओर लौट रहे हैं। बहुत बरस हुए जो पंछी अपने नीड़़ छोड़कर विदेशों की ओर उड़े थे, उन्हें तो आज नष्ट नीड़  की कहानी दुहरा कर सुनाई जा रही है। यहां तो घोंसलों का तिनका-तिनका बिखर गया और जिस स्वप्न द्वीप को पा लेने कल्पना परदेस में की थी, वहां उन्हें आगन्तुक अनिमंत्रित करार दे दिया गया। ‘चल खुसरो अपने देस’ लौटते हुए निराश चेहरे जैसे अपना अन्तस टटोल कर कह देना चाहते हैं। लेकिन कहा है देस? किसका देस, कहां है ठिकाना? ठिकाने तो जर्जर हो गये, कहीं भी अपने नहीं लगते।
नौकरी छिनने और महंगाई बढ़ने की बात न कीजिये। बेकारी और कीमत वृद्धि के जो आंकड़े आपको डरा रहे हैं, वह तो उन दिनों के हैं, जब महामारी ने अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू  किया था। फिर आया महामारी काल। न जाने कितने कामागरों की बंधी-बंधाई नौकरियां छूट गयीं। गांव से शहर और शहर से गांव के आवागमन में न जाने कितने गृहस्थी उजड़े प्राणी हांप-हांप कर दम तोड़ गये। कितने अनियमित छोटे व्यापारियों और फड़ी रेहड़ी वालों का काम धंधा उजड़ा, इसके आंकड़े, हिसाब-किताब या लेखा-जोखा  किसी के पास नहीं है। लोकसभा में मंत्री महोदय आंकड़े न होने पर बेवसी दिखा रहे हैं। प्रगति सूंचकांक ऐतिहासिक गिरावट दिखाते हुए जैसे अपना सिर पीट रहे हैं, लेकिन फिर भी सरकारी कक्ष अपनी टूटी बांसुरी पर मधुर स्वप्न राग छेड़ रहे हैं कि सही है इस बरस महामारी की अकृपा से सकल विकास दर नौ प्रतिशत नीचे आ गयी, लेकिन अगला बरस आने दीजिये, बिस्तर पर पड़ा हुआ कराहता और दम तोड़ता संक्रमित रोगी न केवल उठ जाएगा, बल्कि विकास की मैरॉथन में स्वर्ण पदक भी जीत लायेगा। 
कैसे बतायें कि फिसड्डी लोगों के स्वर्ण पदक जीत लेने के सपने हर बरस नपुंसक हो जाते हैं, और गांवों से महानगर, और महानगर से विदेश जा कर अपने लिए स्वप्न महल खड़ा कर लेने का सपना, किसी उजड़े हुए हातिमताई की दास्तां लगने लगता है।  गरीब और फटीचर हातिमताई को समझाया जाता है कि यह भुखमरी, यह बेकारी, यह फटीचर ज़िन्दगी महामारी का मुकाबला न कर पाने की असमर्थता से पैदा नहीं हुई, लोग तो यहां सदियों से गरीबी और भुखमरी झेल रहे हैं। उन्हें भूख से मरने की आदत हो गयी है, इसलिए मौतों के ये आंकड़े महामारी के प्रकोप के खाते में डालिये। लोग मर रहे हैं, क्योंकि यह पिछड़ा हुआ देश पहले से ही मन्दीग्रस्त था। मरने और मरने में अन्तर होता है। हम तो जो कोरोना से मरा, उसी की गिनती करेंगे। जो भूखा, बेकारी और अर्थिक दुरावस्था की वजह से मरे वह कोरोना प्रकोप से इतर कारणों से मरे हैं, मसलन हमारे योजनाबद्ध आर्थिक विकास का बंटाधार, देश में दायित्वहीनता की पराकाष्ठा, या अपने देश का दुनिया के दस सबसे महाभ्रष्ट देशों में से एक होना।
असली कारणों का गला नापने की जगह आप तो कोरोना को महाकाल बताये जा रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि इस समय देश में कोरोना संक्रमण से तंदुरुस्त हो जाने की दर 79 प्रतिशत हो चुकी है और इससे होने वाली मृत्यु दर को हमारे चिकित्सा शास्त्रियों ने घटा कर निम्नतम एक दशमलव छ: प्रतिशत कर दिया है।  बंधुओ, यह समय कोरोना योद्धाओं के अभिन्नदन का है। इनमें शामिल वह पुलिस योद्धा भी हैं, जो आपके मुंह पर मास्क न रहने की वजह से आपका चालान करके भारी राशि उगाह रहे थे। न जाने कैसे समझ आयेगी कि ऐसे चालान योद्धाओं को रसीद विहीन चिरौरी भेंट कर किसी पतली गली से निकल जाइए। लेकिन नहीं आपको तो कानून पर चलना है, सरकार का खाली खज़ाना भरना है। 
भरिये-भरिये जनाब, देश में चन्द सत्यावादी भी तो होने चाहिएं। लेकिन इन सत्यवादियों को समझा दीजिये कि हर मौत कोरोना से मिली मौत नहीं होती। कोई दिल के दौरे से मरा, कोई भुखमरी से पैदा हुए यकृत की कृपा से। जो जहां मरा है, उसे उसी खाते में डालिये। कोरोना संक्रमित लोगों के आंकड़े बढ़ा कर क्यों दहशत पैदा करते हैं? कम से कम इस बात से दिलासा हासिल करें कि जब कोरोना की दवाई निकल आयेगी, तो सेहत मंत्री उसका सबसे पहला प्रयोग अपने ऊपर करेंगे। आईये तब तक क्यों न हम ‘जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं’ के मूलमंत्र का पालन करें। हमारे प्रधानमंत्री का भी यही कहना है, बन्धु!