जब श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को यथार्थ का बोध कराया

धर्मराज युधिष्ठिर को कठिन तपस्या के उपरांत एक अक्षय पात्र मिल गया था। अक्षय पात्र की विशेषता यह थी कि जब भी उससे कुछ मांगा जाये, वह स्वादिष्ट व्यंजन देता था। यही कारण था कि युधिष्ठिर दान मद से चूर हो गये। उन्होंने मन ही मन यह निश्चय कर लिया कि वह अपनी प्रजा को शिवि, दधीचि और हरिश्चंद्र की दान कथाएं भूल जाने पर विवश कर देंगे। तीन लोक और चौदह भुवन में उनके समान कोई दानी नहीं रह जायेगा। धर्मराज ने इस अक्षय पात्र से ब्राह्मणों को उनकी इच्छानुसार भोजन कराने का निश्चय कर लिया था। यही कारण था कि उनके महल के प्रांगण में हर समय सोलह हज़ार आठ ब्राह्मण जुट आते थे। ये ब्राह्मण सारा दिन धर्मराज के साथ रहते और भरपेट भोजन करते थे। भोजन के उपरांत हज़ारों ब्राह्मणों का एकमात्र काम था धर्मराज का गुणगान करना। पांडवों का राजमहल सारा दिन इन विद्वान ब्राह्मणों के जयघोष से गूंजता रहता था। कुछ दिनों तक भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर का यह दंभ देखा। फिर सोचा कि युधिष्ठिर को यथार्थ का बोध कराना चाहिए। यही सोचकर वह घूमने के बहाने युधिष्ठिर को अपने साथ लेकर पाताल लोक जा पहुंचे। पाताल लोक के राजा महाबलि ने जब भगवान के आगमन का समाचार सुना, तो वह हर्ष-विभोर हो गया। उसने भगवान श्री कृष्ण के पांव पखारे, उनकी आरती उतारी और उनके  चरणों के पास बैठ गया। भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर की ओर इशारा करते हुए पूछा, ‘महाबलि, तुम इन्हें पहचानते हो ?’
बलि ने अपरिचय में अपना सिर हिला दिया। ‘बहुत आश्चर्य की बात है। एक महादानी दूसरे महादानी को नहीं जानता!’ भगवान श्री कृष्ण हंस पडे, ‘ये पांडवों में ज्येष्ठ महादानी धर्मराज युधिष्ठिर हैं। इनके दान से मृत्यु लोक के प्राणी इस प्रकार अभिभूत हैं कि तुम्हें अब स्मरण भी नहीं करते।’ बलि नम्रता से हाथ जोड़कर बोला, ‘भगवन! मैंने तो कोई बहुत बड़ा दान नहीं दिया। मैंने तो एक वामन को मात्र तीन पग भूमि दी थी। वह वामन वचन लेकर विराट हो जायेगा, इस बात का मुझे अहसास नहीं था।’भगवान श्री कृष्ण शांत स्वर में बोले, ‘बलि तुमने तो केवल अपने वचन की रक्षा की, इसीलिए तुम्हारा यश तीनों लोकों में फैल गया किंतु अब भरत खंड की प्रजा युधिष्ठिर के सिवा किसी महादानी को नहीं जानती। मृत्यु लोक के प्राणी अब सभी महादानियों को भूल चुके हैं।’यह सुनकर बलि के चेहरे पर तनिक भी ईर्ष्या के भाव नहीं आये। बलि बोले, ‘भगवन! काल निर्बाध है , तीनों लोकों में एक से एक बढ़कर पुरुष जन्म लेते हैं। अतीत धुंधला पड़ जाता है , वर्तमान हमेशा वैभवशाली होता है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि पांडव श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने अपने दान के प्रभाव से मेरी यश कथाएं मंद कर दीं।’श्री कृष्ण फिर बोले, ‘महाबलि, तुम दान के सूत्र में बंधने के लिए तीनों लोकों में विख्यात हो गये, धर्मराज भी श्रेष्ठ दानी हैं। पुण्यात्माओं का मिलन बड़े सौभाग्य से होता है।’बलि ने नम्रता से कहा, ‘भगवन, आपने महादानी धर्मराज के दर्शन कराये, मैं इनके दर्शन पाकर धन्य हो गया। आप पांडव श्रेष्ठ की कोई दान कथा सुनायें।’भगवान मुस्कुराकर बोले, ‘युधिष्ठिर  के पास एक अक्षय पात्र है। इस अक्षय पात्र की विशेषता यह है कि जब इससे मांगा जाये, स्वादिष्ट व्यंजन देता है। इस पात्र की सहायता से युधिष्ठिर प्रतिदिन हज़ारों ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। ये ब्राह्मण कोई कार्य नहीं करते हैं और केवल दाता का जयगान करते रहते हैं।’ यह सुनकर बलि दंग रह गया और बोला, ‘आप इसे दान कहते हैं। यदि यह दान है तो पाप क्या है?’ युधिष्ठिर की अभिमान भरी मुस्कान विलुप्त हो गयी। बलि गंभीर स्वर में बोले, ‘धर्मराज, आप हज़ारों ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें आलसी बना रहे हैं। ये ब्राह्मण आपके अक्षय पात्र से भोजन न पाते तो अपनी प्रजा को अध्ययन, अध्यापन और यज्ञ-अग्निहोत्र से सुखी बनाते। आप दान के अभिमान को बल देने के लिए हज़ारों कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों को आलसी बनाकर पाप के भागी बन रहे हैं।’श्री कृष्ण ने पूछा, ‘बलि, क्या तुम्हारे राज्य के ब्राह्मण दान नहीं लेते?’ बलि एकदम गंभीर स्वर में बोल, ‘देव, यदि मैं अपने राज्य के किसी ब्राह्मण को तीनों लोक दान में दे दूं, तो भी वह प्रतिदिन आलसी बनकर मेरा भोजन स्वीकार नहीं करेगा। मेरे राज्य के ब्राह्मण कर्म योग के उपासक हैं। वे प्रजा की कल्याण -साधना किये बगैर कोई दान स्वीकार नहीं करेंगे। आपके प्रिय धर्मराज जो दान कर रहे हैं, उससे धर्म की हानि हो रही है।’ भगवान श्री कृष्ण ने मुस्कुराकर युधिष्ठिर की ओर देखा। युधिष्ठिर को अपनी भूल का अनुभव हुआ। उन्होंने अपना सिर झुका लिया । 

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