लोकतांत्रिक एवं समानता के अधिकारों से वंचित आम आदमी

हमारे संविधान में तो सब नागरिकों को किसी भी भेदभाव के बिना समान अधिकार दिए गये हैं। किसी भी जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय से संबंधित अमीर-गरीब सबको भारत में बराबर अधिकार हैं। ऐसी गारंटी हमारे संविधान में नागरिकों को दी गई है। कई बार तो ऐसा लगता है कि यह अधिकार वही प्राप्त कर सकता है जिसमें इनको प्राप्त करने का सामर्थ्य है। यह ठीक है कि वोट का अधिकार सबको मिल गया। सच्चाई यह है कि देश के अनेक भागों में लोग वोट भी अपनी इच्छा से  दे नहीं सकते। कहीं वोट खरीदे जाते हैं और कहीं डरा धमका कर अपने पक्ष में मतदाताओं को खड़ा कर लिया जाता है। वहां मतदाता की इतनी औकात ही नहीं कि वह अपने-अपने क्षेत्र के दबंग नेताओं के सामने सिर भी उठा सके। जानकारी तो यह भी है कि सब कुछ पहले तय हो जाता है। अब तो मशीन से वोट पड़ते हैं। पुराने दिनों में तो उनके नाम पर स्टैंप लगाने का काम भी स्वयं ही ये लोग कर लेते थे। यह तो बात हुई गरीब या कमज़ोर की। हमारे देश की आधी आबादी की आधी मतदाता अर्थात महिलाएं आज भी अपनी इच्छा से वोट नहीं देतीं। सम्बद्ध परिवार का पुरुष जिसके पक्ष में वोट देना चाहता है, वही उस महिला की इच्छा है। अब तो कड़वे करेले पर नीम भी चढ़ चुकी है। महिला आरक्षण के नाम पर जो महिलाएं पंच-सरपंच, पार्षद तथा अन्य पदों पर लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गईं, उनके अपने लोकतांत्रिक अधिकार उसी समय समाप्त हो जाते हैं जब उन्हें चुनाव में विजयी होने का प्रमाण-पत्र मिल जाता है। केवल दस प्रतिशत महिलाएं शायद ऐसी होंगी जो आरक्षण द्वारा पद प्राप्त करके स्वयं कार्य करने के लिए आगे आती हैं। यह तो चुनावी और मतदान की समानता की बात मैंने की, परन्तु हिंदुस्तान का आम आदमी बेबस है। वह या तो यह जानता नहीं कि उसके अधिकार क्या हैं या उसके अधिकार छीन लिए जाते हैं। पिछले कई वर्षों से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा देश के अन्य प्रांतों में अपनी मांगें मनवाने के लिए जो राजनीतिक दल या समूह विशेष आंदोलन करते हैं, वे अपने लिए आरक्षण मांगते हैं या सरकार से कोई अन्य लाभ चाहते हैं, उनका सबसे बड़ा हथियार यह रहता है कि राष्ट्रीय राजमार्ग बंद कर दो, बसें और प्राइवेट गाड़ियां चलने से रोक दो, रेलें बंद करने के लिए रेलवे पटरी पर बैठ जाओ। यह काम एक-दो दिन के लिए नहीं, कई सप्ताह तक चलाते हैं और वह बेचारा जिसे संविधान ने यह अधिकार दिया है कि कहीं भी, कभी भी जहां चाहे आ-जा सके, वह मजबूर होकर देखता रह जाता है।   अपने देश में सभी राजनीतिक दल और सभी सम्प्रदाय जब चाहे पंजाब बंद, हरियाणा बंद, दिल्ली बंद या देश बंद का नारा दे देते हैं। दुकानदार व्यवसाय करना चाहता है, रेहड़ी-फड़ी वाला अपनी रोटी-रोज़ी कमाने के लिए घर से निकलता है, पर भगा दिया जाता है। कारखाने बंद करवाए जाते हैं। अभी ताज़ा घटना है—10 अक्तूबर के पंजाब बंद में केवल अमृतसर में ही चालीस करोड़ रुपये के व्यापार का नुकसान हुआ। इस अनुपात से पूरे पंजाब में अरबों का हुआ होगा। किसी को कोई चिंता नहीं। यहां तो ऐसा लगता है कि लोकतंत्र कहीं है ही नहीं, भीड़तंत्र है। भीड़तंत्र से बचाने के लिए लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गईं सरकारें बेबस हो जाती हैं। हरियाणा में देखा, राजस्थान में देखा, मुम्बई तक का रेल मार्ग सूना पड़ गया। महीनों तक गाड़ियां बंद रहीं और अब पंजाब में रेल यातायात बंद है। यहां मुझे यह भी कहना है कि आखिर यह बंद की स्थिति कैसे आई। मैं समझती हूं कि भारत सरकार को प्रारंभ में ही किसानों से टेबल पर चर्चा करके यह समझा देना चाहिए था कि कृषि बिल उनके हित में है, पर ऐसा नहीं हुआ। तीस दिन का आन्दोलन चलने के बाद अब दिल्ली से बुलावा तो आया है, परन्तु इस बुलावे को स्वीकार करने में कई बाधाएं हैं। एक नहीं, किसानों के 31 बड़े गु्रप हैं। कोई भी अकेला दिल्ली में जाकर फैसला नहीं कर सकता। कितना अच्छा होता कि लोकतंत्र के स्वामी पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश आदि के बड़े-बड़े शहरों-गांवों में पहुंच जाते और जो भाषण टीवी से दिए जा रहे हैं, वे कोरोना से सावधानी रखते हुए भी जनता के बीच जाकर उन्हें बताते।आम आदमी का दर्द बहुत बड़ा है। कोई दो समय की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करता है तो भी नहीं मिलती। सरकारें और सरकारी एजेंसियां कर्मचारियों को तड़पाती, तरसाती हैं। इतना भर वेतन देती हैं जिसमें न वे जी सकें, न मर सकें। जब यह समाचार मिलता है कि केंद्र या प्रांतीय सरकारों ने अपने कर्मचारियों के लिए तोहफे दे दिए तो उन बेचारों की तरफ  भी ध्यान जाता है जो दो-दो दशकों से एड़ियां रगड़ रहे हैं, पर सरकार उन्हें ठेके पर ही मानती है। वे अब इतने कमजोर पड़ चुके हैं कि किसी अदालत में जाकर सरकार से यह भी नहीं पूछ सकते कि क्या पंद्रह से बीस वर्षों तक काम करके उनकी योग्यता सिद्ध नहीं हो सकी, या जिस पद पर वे काम कर रहे हैं, वे पद सरकार की आवश्यकता में हैं भी या नहीं। शिक्षा का अधिकार है, पर करोड़ों लोग शिक्षा मंदिरों की रोशनी से दूर हैं। छोटे-छोटे बच्चे सूर्योदय से पहले मेहनत करने के लिए निकलते हैं। वेतन कम, शोषण ज्यादा होता है। भोजन का अधिकार दिया, मगर बीस करोड़ लोग रोज़ रात को भूखे सोते हैं। आश्चर्य है कि संविधान की शपथ लेकर संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले बहुत माननीय हो जाते हैं। उनके भाषण सुनना जनता की मजबूरी है।