सेक्यूलरवाद के नाम पर मज़हबी कट्टरपंथ को प्रश्रय

इन विधानसभा चुनावों में भी सेक्यूलरवाद का मुद्दा पूरे आवेग से सतह पर आ गया है। भाजपा विरोधी पार्टियां उस पर सांप्रदायिक, सेक्यूलर विरोधी होने का आरोप लगाएं तो इससे किसी को हैरत नहीं होती। भारतीय राजनीति का यह सामान्य चरित्र बन चुका है। हालांकि भाजपा को सांप्रदायिक घोषित करने वाली अनेक पार्टियों ने उसके साथ समझौते किए, चुनाव लड़े, सरकारें बनाईं। जैसे ही वे भाजपा से अलग होते हैं, सेक्यूलर हो जाते हैं। इस बार कांग्रेस और वामदलों द्वारा पश्चिम बंगाल में हुगली की फुरफुरा शरीफ  दरगाह के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के साथ गठबंधन करने से सेक्यूलरवाद पर बहस की शुरुआत हुई है। यह असम में कांग्रेस द्वारा बदरुद्दीन अजमल के एआईयूडीएफ  से लेकर केरल और तमिलनाडु में मुस्लिम लीग से गठबंधन तक विस्तारित हो चुकी है। संयोग देखिए कि पश्चिम बंगाल के गठबंधन पर प्रश्न कांग्रेस के अंदर से भी खड़ा हुआ है। अधीर रंजन चौधरी का कहना है कि आलाकमान से सहमति के बाद ही गठबंधन हुआ है। इसका मतलब है कि गठबंधन पर प्रदेश एवं केंद्रीय नेतृत्व की मुहर लग चुकी थी। अधीर रंजन यह भी कहते हैं कि सेक्यूलरवाद की लड़ाई में हम कहीं भी कोताही नहीं बरत सकते।
प्रश्न है कि क्या इंडियन सेक्यूलर फ्रंट बना लेने से अब्बास सिद्दीकी जैसे लोग सेक्यूलर हो गए? उनके कई वीडियो वायरल हो चुके हैं। एक में वह कोरोना वायरस पर बात करते हुए कहते हैं कि भारत में अल्लाह इतने वायरस भेजें जिससे 10-20-25-50 करोड़ लोग मर जाएं। दूसरे वीडियो में वह फ्रांस में जिहादी आतंकवादियों द्वारा सैमुअल पेट्टी के कत्ल का समर्थन करते हैं।  उनका कहना है कि उन्हें बदनाम करने के लिए वीडियो निकाले गए हैं। अभी तक किसी वीडियो के फेक होने के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। दरअसल अब्बास सिद्दीकी जिस ढंग से मजहबी कट्टरता पर आग उगलते रहे हैं, उससे पश्चिम बंगाल के लोग भलीभांति वाकिफ  हैं। तृणमूल कांग्रेस के सांसद नुसरत जहां के मंदिर जाने पर उन्होंने कहा था कि वह बेहया है, उसे पेड़ से बांधकर पीटना चाहिए। मुसलमानों के मंदिर जाने का विरोध वह हमेशा करते रहे हैं और खुलकर। कोलकाता के मेयर फरहाद हातिम भी उनके निशाने पर आ चुके हैं। उनके मंदिर जाने पर उन्होंने कहा था कि यह तो कौम का गद्दार है। इन दोनों नेताओं को उन्होंने गैर मुस्लिम करार दिया था। ऐसा व्यक्ति अगर सेक्यूलर नाम से पार्टी बना दे तो वह सेक्यूलर हो जाएगा, यह सोच भारत के राजनीतिक दलों की ही हो सकती है।
वामपंथी पार्टियां  भारत में गैर भाजपाई सेक्यूलरवाद की राजनीति की पुरोधा रही हैं। यह अलग बात है कि शक्तिहीन होने के बाद से राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका शून्य हो चुकी है। क्या अब उनके पास सेक्यूलरवाद का राग अलापने का कोई नैतिक आधार होगा? जो कांग्रेस दिन-रात भाजपा को सांप्रदायिक कहती है, उससे समर्थक यह सवाल नहीं पूछेंगे कि अब्बास सिद्दीकी और उसका इंडियन सेक्यूलर फ्रंट किस दृष्टिकोण से सेक्यूलर हो गया? तृणमूल कांग्रेस ने सिद्दीकी को साथ लाने की हर संभव कोशिश की। पिछले दो चुनावों में माना जाता है कि तृणमूल को मुसलमानों का वोट दिलवाने में थोड़ी भूमिका सिद्दीकी की भी थी। ममता बनर्जी ने पिछले दिनों  कहा भी था कि फुरफुरा शरीफ  के लोग उनके साथ हैं। जब सिद्दीकी दूसरे पाले में चले गए तो ममता बनर्जी ने उनकी प्रतिस्पर्धा में दूसरे मौलानाओं को खड़ा कर दिया। प. बंगाल का मीडिया इनको ममता के मौलाना नाम दे रहा है। 
इनके बयानों को भी आप सुनिए मज़हब के नाम पर विष उगलने वाले। क्या प. बंगाल और देश यह देख नहीं रहा कि सेक्यूलरवाद के नाम पर ये पार्टियां किस तरह कट्टर मजहबी सांप्रदायिक चेहरों का सहारा ले रही हैं? आपको याद होगा कि अब्बास सिद्दीकी को सबसे पहले असदुद्दीन ओवैसी ने साथ लाने की कोशिश की थी। मुलाकात के बाद उन्होंने बयान भी दिया था कि बंगाल की जिम्मेदारी पूरी तरह वह सिद्दीकी साहब को सौंपने जा रहे हैं। जाहिर है, ऐसा बयान थोड़ी बहुत बात बनने के आधार पर ही दिया गया होगा। इसका मतलब है कि जब सिद्दीकी को लगा कि ओवैसी ज्यादा लाभदायक नहीं होंगे, तब उन्होंने कांग्रेस और वाममोर्चा का हाथ थामा है। वामपंथी दलों की मुखालफत में वह ममता बनर्जी का समर्थन कर रहे थे। वामपंथियों के प्रति भी उनका नजरिया मजहब से ही निर्धारित था। क्या वामपंथी उनके दोस्त हो जाएंगे? वस्तुत: यह भी उनके लिए अस्थायी गठबंधन ही है। वह साफ  कह रहे हैं कि आगे वह इनसे भी बदला लेंगे।
यानि उनका एजेंडा साफ  है। ना ममता उनकी दोस्त थी, ना कांग्रेस और वाम दल उनके प्रिय हैं। अपने उद्देश्य के लिए उन्होंने आज इनका दामन थामा है और कल झटका देने की तैयारी भी साफ  दिख रही है। वह पहले चुनाव में इनके सहयोग से कुछ सीटें पाकर राजनीति में अपना आधार बनाएंगे और उसके बाद इनके खिलाफ  खड़े होंगे। इस रणनीति को समझना किसी के लिए कठिन नहीं है। कांग्रेस और वामदलों के लिए नसीहत यही होगी कि ‘ना इधर के रहे, ना उधर के रहे’ वाली स्थिति ना हो जाए। कुछ वोटों के लिए ऐसे कट्टर मजहबी और अविश्वसनीय लोगों का हाथ थामना भीषण जोखिमों से भरा हुआ है। कांग्रेस और वाम दलों को सिद्दीकी की भाषाएं समझ में क्यों नहीं आ रहीं? जो व्यक्ति खुलेआम शरीयत के कानून की बात करता है, क्या वह केवल भाजपा विरोध के नाम पर सेक्यूलर हो जाएगा? असम में बदरुद्दीन अजमल लोकसभा के सांसद हैं लेकिन बांग्लादेशी घुसपैठिया मुसलमानों के समर्थन में कितना ज़हर उगलते हैं, यह प्रदेश के लोगों को पूरी तरह पता है। अपनी चुनावी सभाओं में वह कहते हैं कि भाजपा सत्ता में आ गई तो मस्जिद गिरा दी जाएगी। 
लेकिन ये दल नीति-रणनीति की विपन्नता से पैदा हुई हताशा में सच देखने और समझने को तैयार नहीं हैं। केरल में कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन में मुस्लिम लीग लम्बे समय से है। राहुल गांधी वायनाड से चुनाव लड़ने गए भी इसीलिए थे क्योंकि वहां मुस्लिम आबादी प्रभावी संख्या में है। क्या यह लोगों को समझ नहीं आया होगा? वामदल वहां मुस्लिम लीग को संप्रदायिक कहते हैं लेकिन तमिलनाडु में वे द्रमुक के उस गठजोड़ में शामिल हैं जिसमें मुस्लिम लीग भी है। आम लोगों को ही लोकतांत्रिक तरीके से इसका उत्तर देना होगा।
 -मो. 98110-27208