जब जंग-ए-आज़ादी में कूद पड़ीं ये वीरांगनाएं

संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली और संविधान सभा में वंदे मातरम गाने वाली उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं सुचेता कृपलानी ने जंग-ए-आजादी में हिस्सा लेने के घर छोड़ दिया था और हर तरह के बंधनों को मानने से मना कर दिया था, जो बंधन उन्हें आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने से रोकते थे। यही काम नेहरू जैसे कुलीन परिवार से नाता रखने वाली और जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने भी किया था। वह आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से हिस्सेदारी करने में जेल की हवा खायी थी और जब हिंदुस्तान आजाद हुआ तो संयुक्त राष्ट्र की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष बनी थीं। स्वतंत्रता भारत की पहली महिला राजदूत होने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। विजयलक्ष्मी पंडित ऐसे शख्सियत थीं कि उन्होंने तीन अलग-अलग मिजाज के देशों में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व किया था। ये देश थे- अमरीका, तत्कालीन सोवियत संघ और ग्रेट ब्रिटेन। हालांकि कमला नेहरू का नाम आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली महिलाओं में बहुत अग्रता के साथ नहीं लिया जाता।   हालांकि उन्होंने भी धरनों, जलूसों में हिस्सा लिया था।
जेल की पथरीली जमीन पर बिना किसी बिछावन के सोयी थी और भारत की आज़ादी का सपना देखा था। जब हम देश की महिला स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की बात करते हैं तो इनमें दुर्गाबाई देशमुख का नाम भी बहुत आदर के साथ लिया जाता है। वह गांधीजी के विचारों से बहुत प्रभावित थीं और सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने के लिए वकीलों के सम्पन्न घर को छोड़ दिया था। भारत की आजादी में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभायी और भारत के आज़ाद होने के बाद वह लोकसभा की सदस्य होने के साथ-साथ योजना आयोग में भी एक महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभायी थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मासिक पत्रिका इंकलाब आजादी की लड़ाई के दिनों में जंग-ए-आजादी का मुखपत्र था। इसे संपादित करना न सिर्फ  बेहद उर्वर राजनीतिक सोच की मांग करता था बल्कि यह एक ऐसा जोखिमभरा काम भी था, जिसमें जबरदस्त साहस की जरूरत थी। अरूणा आसफ अली ने बिना किसी डर, बिना किसी झिझक के यह भूमिका निभायी थी। साल 1998 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। डॉ. लक्ष्मी सहगल जिन्होंने 21वीं सदी में यानी साल 2002 में राष्ट्रपति चुनाव में हिस्सा लिया था, लेकिन उन्हें एपीजे अब्दुल कलाम ने हरा दिया था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की वह अटूट अनुयायी थीं, इसलिए पेशे से डॉक्टर होने के बावजूद वह न केवल इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल हुईं बल्कि महिला विंग की प्रमुख भी बनीं। इनका पूरा नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन सहगल था। लक्ष्मी सहगल आज़ादी की लड़ाई में लिया जाने वाला एक महत्वपूर्ण नाम है।
सरोजनी नायडू जो आला दर्जे की कवियत्री थीं, गांधीजी की सदारत में उन्होंने खिलाफत आंदोलन की बागडोर संभाली थीं और देश ही नहीं पूरी दुनिया में अपने नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया था। भारत की आज़ादी की लड़ाई में ही नहीं बल्कि महिलाओं के उत्थान की लड़ाई में भी जिस एक महिला का नाम बहुत आदर से लिया जाता है, वह सावित्री बाई फुले है। इन्हें ‘सीक्रेट कांग्रेस रेडियो’ के नाम से भी जाना जाता है। आजादी की लड़ाई में इन्होंने यह रेडियो सेवा शुरु करके क्रांतिकारियों को सूचनाएं देने और उन्हें एकजुट रखने में अहम भूमिका निभायी थी, जिसके कारण उन्हें पुणे की यरवदा जेल में रहना पड़ा था। कहने की बात यह है कि जब हम भारत की आज़ादी की लड़ाई में महिलाओं के भूमिका देखते हैं तो वह किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं बल्कि एक कदम आगे ही दिखती है।
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