दुनिया के लिए आ़फत बनेगा तालिबानी राष्ट्र

राजधानी काबुल पर कब्जे के बाद अ़फगानिस्तान क्रूर तालिबानी शासकों के हाथ आ गया है। इसके साथ ही इस देश में भारी तबाही, औरतों पर बंदिशें और मामूली अपराधियों को अंग-भंग कर देने का शासन शुरू हो गया। देश की जनता को तालिबान के रहमोकरम पर छोड़कर भागे राष्ट्रपति अशरफ  गनी ने यह साबित कर दिया है कि उनकी रुचि केवल मलाई खाने में थी। इसीलिए वह अपनी सरकार और सेना में फैले उस भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में नाकाम रहे, जो देश की अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहा था। पिछले 20 साल के दौरान अमरीका ने 6.25 लाख करोड़ और भारत ने 22 हज़ार करोड़ रुपए का निवेश अ़फगानिस्तान में किया था। अलबत्ता रूस से आई खबर को सही मानें तो गनी स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त थे क्योंकि वह एक हैलीकॉप्टर और चार कारों में अकूत धन-सम्पदा लेकर ताजिकिस्तान की शरण में चले गए हैं। यहां हैरानी की बात है कि अमरीकी सेना की मदद से जिन 3.5 लाख अफगानी सैनिकों को प्रशिक्षित किया गया था, उन्होंने 85 हज़ार तालिबानी लड़ाकों के सामने हथियार डाल दिए। इस समर्पण से ये आतंकी हथियार संपन्न हो गए हैं। इनके पास रूसी हथियार पहले से ही हैं। अब इनके पास अमरीका द्वारा उपलब्ध कराए लड़ाकू विमान, टैंक, एके-47 राइफल्स, रॉकेट ग्रेनेड लांचर, मोर्टार और अन्य घातक हथियार भी आ गए हैं। साफ  है, ये हथियार भारत समेत अन्य पड़ोसी देशों के लिए संकट बनेंगे। सेना के समर्पण और राष्ट्रपति के भाग जाने से स्पष्ट है कि अंतत: ये लोग अफगानिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र बना देने के हिमायती थे, वरना कहीं न कहीं तो युद्ध के हालात दिखाई देते।
वैसे तो पूरी दुनिया में धार्मिक, जातीय और नस्लीय कट्टरवाद की जड़ें मजबूत हो रही हैं, लेकिन इस्लामिक चरमपंथ की व्यूह रचना जिस नियोजित व सुदृढ़ ढंग से की जा रही है, वह भयावह है। उसमें दूसरे धर्म और संस्कृतियों को अपनाने की बात तो छोड़िए, इस्लाम से ही जुड़े दूसरे समुदायों में वैमनस्य व सत्ता की होड़ इतनी बढ़ गई है कि वे आपस में ही लड़-मर रहे हैं। शिया, सुन्नी, अहमदिया, कुर्द, रोहिंग्या मुस्लिम इसी प्रकृति की लड़ाई के पर्याय बने हुए हैं। इस्लामिक ताकतों में कट्टरपंथ बढ़ने के कारण इस स्थिति का निर्माण हुआ कि चार करोड़ की आबादी वाला एक पूरा देश आतंकी राष्ट्र में तब्दील हो गया और उसे चीन, पाकिस्तान व ईरान ने समर्थन भी दे दिया। जो अमरीका और रूस एक लम्बे समय तक इन कट्टरपंथियों को गोला-बारूद उपलब्ध करा रहे थे, उन्हें आखिरकार पीठ दिखानी पड़ी है। अमरीका के राष्ट्रपति बाइडन द्वारा लिए गये सेना वापसी के निर्णय पर उन्हें शर्मसार होना पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार जैसी संस्थाएं इस परिप्रेक्ष्य में बौनी साबित हुई हैं।
दो दशक पहले भारत ने अहमद शाह के नेतृत्व वाले नॉदर्न एलायंस और फिर तालिबान विरोधी अफगान सरकार का साथ देते हुए 22 हजार करोड़ रुपए का पूंजी निवेश किया। अफगान की नई संसद और कई सड़कें व बांध भारत बना रहा है। भारत का अब यह निवेश बट्टे-खाते में जाता दिख रहा है। नई परिस्थितियों में भारत की अफगान नीति क्या होगी, यह तो अभी साफ  नहीं है, लेकिन हाल ही में विदेश मंत्री एस. जयशंकर की ईरान यात्रा अफगान रणनीति से जोड़कर देखी जा रही है क्योंकि इस वार्ता में तालिबानी प्रतिनिधि भी मौजूद थे। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि भारत इस समय रूस और ईरान के साथ मिलकर अफगान रणनीति पर काम कर रहा है। तुर्की भी इस रणनीति में भारत के साथ आ सकता है।     
एक समय चीन भी पाकिस्तान पराश्रित आतंकवाद को प्रश्रय दे रहा था किंतु जब अक्तूबर 2011 में चीन के सिंक्यांग प्रांत में एक के बाद एक हिंसक वारदातों को आतंकियों ने अंजाम तक पहुंचाया तो चीन के कान खड़े हो गए। लिहाजा उसने पाकिस्तान के कान मरोड़ते हुए उसे चेतावनी भी दी थी। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की ताजा रिपोर्ट ने अ़फगानिस्तान में तालिबानी लड़ाकों की संख्या 85 हजार बताई है। इनमें 6,500 पाकिस्तानी नागरिक हैं जबकि अन्य मध्य एशिया और चेचन्या के हैं। चीन के सिंक्यांग राज्य में उईगुर मुस्लिमों की आबादी 37 प्रतिशत है, जो अपनी धार्मिक कट्टरता के चलते बहुसंख्यक हान समुदाय पर भारी पड़ती है। 
अतीत के भयावह दौर की वापसी से आम अफगानी नागरिक भयग्रस्त है। नतीजतन काबुल व अन्य शहरों में भगदड़ मची है। लोग देश छोड़ने के लिए बेहद उतावले हैं चीन और पाकिस्तान को छोड़ दें ंतो सारी दुनिया और आम अफगानी नागरिक यह मानकर चल रहे हैं कि अब अ़फगानिस्तान में मध्ययुगीन बर्बरता कायम हो जाएगी, जिससे जल्द मुक्ति मिलना मुश्किल होगा।  
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