देश की राजनीति में वंशवाद का फैलता वृक्ष

भारतीय लोकतंत्र की ज़मीन पर जड़ें जमाते राजनीति के वंश-वृक्ष देश की संवैधानिक संप्रभुता की जड़ाें में मट्ठा घोलने का काम कर रहे हैं। कांग्रेस समेत हरेक क्षेत्रीय राजनीतिक दल में राजनीतिक उत्तराधिकार और वंशवाद को राजनीति के फलक पर स्थापित करने की होड़ लगी है। इनमें अपवाद भाजपा और वामदल जरूर हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में बिना किसी दल अथवा नेता का नाम लिए परिवारवाद को बढ़ावा दे रहे दलों की मानसिकता पर कुठाराघात करते हुए उन्हें लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना का विरोधी बताया। यही नहीं इस प्रवृत्ति को सामंतशाही की सरंक्षक बताते हुए इसे लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं के लिए घातक बताया। 
इसमें कोई दो राय नहीं कि विकृत वंशवादी मनोवृत्ति के चलते बहुदलीय शासन प्रणाली, एकतंत्रीय व्यक्तिवाद की गिरफ्त में आती जा रही है। इस नाते देश के प्रमुख राष्ट्रीय दल संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था को एक ध्रुवीय बनाने की कोशिश में लगे हैं। कांग्रेस ने तो समूची राजनीति को राहुल गांधी और क्षेत्रीय दलों ने परिवार के मुखिया पर केंद्रित कर दी है जबकि संवैधानिक व्यवस्था बहुदलीय है। लोकतंत्र को राजतंत्र में बदलने का यह खेल न तो देश की बुनियादी समस्याएं भूख, अन्याय और असमानता से लड़ने में कामयाब हो सकती हैं और न ही सीमाई संप्रभुता व आंतरित समस्याओं से निपटने में दो-चार हो सकती हैं। दरअसल आसानी से मिला राजनीतिक उत्तराधिकार का वैभव व्यक्ति की मानसिकता को सुविधा-भोगी और व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षा को बढ़ाने का काम करता हैं। प्रजातंत्र में यह स्थिति अपरोक्ष रूप से सामंती मूल्यों को स्थापित करने वाली है।
स्वतंत्रता के बाद अस्तित्व में आए संविधान में समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आदर्शों के साथ देश को एक मजबूत राष्ट्र में गूंथने की परिकल्पना की गई थी। किंतु जब 1952 में स्वतंत्र भारत का पहला आम चुनाव हुआ तो संविधान में दर्ज आदर्श को पलीता लगाने का काम कांग्रेस समेत अनेक राजनीतिक दलों ने धर्म और जाति के आधार पर उम्मीदवारों का चयन और वोट मांग कर  किया। अब आज़ादी के 75वें साल बाद भी धर्म और जाति तो अपनी जगह कायम हैं ही, खरपतवार की तरह वंशवादी ऐसे बरगदी वृक्ष भी उग आए हैं, जो प्रजातांत्रिक मूल्यों और भावनाओं को ठेंगा दिखाने का काम कर रहे हैं। बुंदेलखंण्ड में एक कहावत प्रचलित है कि चंबल नदी की गहराई एक दर्जन खाटों की बान से भी नहीं नापी जा सकती, लेकिन प्रजातंत्र की मिट्टी में वंशवाद की जड़ें जितनी गहरी होती जा रही हैं, उन्हें तो दो दर्जन खाटों के बान से भी नहीं नापा जाना मुश्किल है। 
राजनीतिक वंशवाद का वास्ता ग्वालियर क्षेत्र में सिंधिया राजघराने से जुड़ा है। आज़ादी की लड़ाई में असहयोग के बावजूद राज-परिवार की जडं़े इतनी मजबूत हैं कि वंशवाद से नाता टूटने की फिलहाल कोई उम्मीद ही नहीं है। विजयाराजे सिंधिया से शुरू हुआ वंशवादी यह जीवाणु उनके बेटे माधवराव सिंधिया और बेटियों वसुंधरा राजे व यशोधरा राजे के बाद इनकी तीसरी पीढ़ी ज्योतिरादित्य और दुष्यंत सिंह के जरिये भी अवतरित होता चला गया है। एक समय इस वंश की खूबी यह रही कि यह देश के दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस में समान रूप से स्थापित रहा, लेकिन अब ज्योतिरादित्य के भाजपा में आने के बाद पूरा कुनबा भाजपाई हो गया है। ज्योतिरादित्य अपने बेटे महाआर्यन को भी राजनीति में लाने की तैयारी में हैं। सिंधिया परिवार की कमजोरी यह रही कि इसकी भाजपा के संगठन में कोई अहम् भूमिका नहीं है, इसलिए यह वंश संगठन को प्रभावित करने में अप्रभावी रहा है। नेहरू-गांधी परिवार के बाद सिंधिया परिवार देश का दूसरा सबसे बड़ा प्रमुख वंश-वृक्ष है। 
इन दो वंश-वृक्षों से उत्प्रेरित होकर कालांतर में कई राजनेताओं के परिवार इस डगर पर चल निकले हैं। इसमें वे लोहियावादी भी शामिल हैं, जो कई दर्शकों तक वंशवाद को कोसते हुए इन्हें लोकतंत्र और संविधान के लिए खतरा बताते रहे लेकिन क्षेत्रीय दलों के प्रमुख बनने और सत्ता की बागडोर हाथ में आते ही लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह और रामविलास पासवान इसके प्रमुख उदाहरण हैं। लालू को जब चारा घोटाले के मामले में बिहार का मुख्यमंत्री रहते हुए जेल जाने की नौबत आई तो उन्हें अपना राष्ट्रीय जनता दल में ऐसा एक भी होनहार नेता नहीं दिखाई दिया जो मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने की काबिलियत रखता हो। आखिरकार यह योग्यता उन्हें अपनी अनपढ़ पत्नी रावड़ी देवी में ही दिखाई दी। अंतत: लालू ने प्रजातांत्रिक राज्यसत्ता रावड़ी को मनोनीत करके हस्तांतरित कर दी। स्वतंत्र भारत में राज्यसत्ता के पारिवारिक उत्तराधिकारी को ही हस्तांतरित किए जाने की यह मनोवृत्ति सबसे शर्मनाक स्थिति रही है। अब तो लालू के दो पुत्र और एक पुत्री सीधे राजनीति में दखल बनाए हुए हैं। 
मुलायम सिंह यादव की कहानी भी लालू जैसी ही है। इनके पूरे कुनबे ने ही राजनीति में हस्तक्षेप करके गांधी और सिंधिया परिवार को पीछे छोड़ दिया है। मुलायम के भाई शिवगोपाल और रामपाल राजनीति में हैं। बेटा अखिलेश उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके है। अब समाजवादी पार्टी उन्हीं की मुट्ठी में है। अखिलेश की पत्नी डिम्पल भी सांसद हैं। भतीजे धर्मेन्द्र और अक्षय भी सक्रिय राजनीति में हैं। रामविलास पासवान के भाई रामचंद्र तो पहले से ही राजनीति में थे। अब उनकी मृत्यु के बाद पुत्र चिराग की मुट्ठी में लोक जनशक्ति पार्टी की कमान है। रामविलास पासवान 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों के कारण राजग से अलग हो गए थे। उन्होंने इन दंगों का ठींकरा नरेंद्र मोदी पर फोड़ा था, लेकिन 2014 में जब मोदी का राजनीतिक वर्चस्व देश की राजनीति पर छा गया, तब चुनाव के पूर्वानुमान ताड़ते हुए वह चिराग के कहने पर राजग गठबंधन के सहयोगी बन गए थे। ये चिराग वही हैं, जो राजनीति में आने से पहले फिल्मों में किस्मत आजमा रहे थे, लेकिन वहां प्रतिभा का कमाल दिखा नहीं पाए तो राजनीति में चले आए। परिवारवाद के चलते राजनीति में तो बिना प्रतिभा के भी कामयाबी हाथ लग जाती है। फिर पिता की विरासत साथ हो तो शंका की कोई गुंजाइश भी नहीं रह जाती। देश के तमाम राजनीतिक दलों की तरह दक्षिण में वंश-वृक्ष खूब फल-फूल रहे हैं।      
आज देश में दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह निर्मित हो गई है कि एक जमाने में वंशवाद के जो प्रबल विरोधी थे और जिन्हें गांधी परिवार फूटी आंख भी नहीं सुहाता था, वे इसके समर्थक व निष्ठावान अनुयायी हो गए हैं। इसी कारण राजनीतिक वंशवाद ने अब  एक ब्रांड का रूप धारण कर लिया है। आम जनता को इससे सचेत होने की ज़रूरत है।                     -मो. 094254-88224