़खतरे से ऊपर जा पहुंची है धौंसपट्टी की पटकथा

रूस ने यूक्रेन को पश्चिमी देशों (पढ़ें अमरीका) की कठपुतली बताते हुए इसके दो प्रांतों लुहांस्क और डोनेस्टक को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया है। 21 फरवरी, 2022 को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इसका ऐलान करते हुए यूक्रेन के इन दोनों ही प्रांतों में रूसी सेनाएं तैनात करना शुरू कर दीं ताकि अलगाववादियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके। रूस के इस कदम पर अमरीकी नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों की तीखी प्रतिक्रिया होनी ही थी। इसलिए आनन-फानन में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की मीटिंग बुलाई गयी है जो इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय भी चल रही है, और अमरीका व उसके सहयोगी देशों का बयान आया है कि पुतिन यूक्रेन में घुसने का बहाना न ढूंढें, और यूक्रेन सीमा पर तैनात अपने करीब 1 लाख 60 हज़ार सैनिकों को वहां से तुरंत हटा लें। इस आपात बैठक में भारत ने भी रूस के कदम पर चिंता ज़ाहिर की है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने कहा है, ‘इस कदम से शांति और सुरक्षा भंग हो सकती है। यह मसला केवल कूटनीतिक बातचीत के जरिए हल हो सकता है।’
पश्चिमी देश लगातार रूस को शांति बनाये रखने के लिए क्या किया जाए, का उपदेश दे रहे हैं,  लेकिन वे रूस की किसी भी परेशानी को न पहले सुनना चाहते थे और न ही इस समय भी सुनने को तैयार हैं। गौरतलब है कि यूक्रेन पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा था और सोवियत संघ के टूटने के बाद जब यह अलग देश बना, तब रूस और यूक्रेन के बीच भविष्य को लेकर एक स्पष्ट समझौता हुआ था कि यूक्रेन कभी भी भविष्य में नाटो सैन्य संगठन का हिस्सा नहीं बनेगा, जिससे कि नाटो की सेनाएं रूस की सरहद तक आ जाएं।
एक दशक बाद ही यूक्रेन इस समझौते को जारी रखने को लेकर टालमटोल करने लगा था। हालांकि औपचारिक रूप से अभी भी यूक्रेन  नाटो (नार्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन) का हिस्सा नहीं है, लेकिन जिस तरह से नाटो की सेनाएं उसकी मदद के लिए मोर्चे के नज़दीक आ जाती हैं, उससे साफ  है कि यूक्रेन रूस के साथ हुए अपने समझौते को लेकर वचनबद्ध नहीं रहा है। रूस लगातार यूक्रेन को इस संबंध में चेतावनी भी देता रहा है और कम्युनिस्ट अतीत के खात्मे के बाद जो सहमति हुई थी, उसकी याद भी दिलाता रहा है लेकिन यूक्रेन को यह सब याद करना अपने हितों के अनुकूल नहीं लगता। यही वजह है कि जब रूसी राष्ट्रपति ने अपने देशवासियों को टीवी पर संबोधित किया तो यूक्रेन की सरकार, नाटो सेनाओं और अमरीका को लताड़ते हुए दो टूक लहजे में कहा, ‘यूक्रेन स्वतंत्र देश नहीं है। अमरीका की कालोनी बन चुका है और अब यहां अमरीका की कठपुतली सरकार है।’
पुतिन के इस बयान पर यूक्त्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि हम डरते नहीं हैं। वास्तव में पिछली सदी के आखिरी दशक में सोवियत संघ के पतन के बाद यह पहला मौका है, जब दुनिया की दो बड़ी ताकतें एक दूसरे के खिलाफ  सामने आ गई हैं। रूस को लेकर पश्चिमी देश लगातार तनाव पैदा करने का आरोप तो लगाते रहे हैं, लेकिन अब से पहले पिछले तीन दशकों में रूस ने कभी पश्चिमी देशों की परवाह न करते हुए इतना बड़ा कदम नहीं उठाया था। आज स्थिति यह है कि एक ओर रूस और दूसरी तरफ अमरीका के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष नेतृत्व में पश्चिमी देश आमने सामने खड़े हो चुके हैं। हालांकि अमरीका के नेतृत्व वाले नाटो सैन्य संगठन में इस समय हल्की सी फूट भी दिख रही है। फ्रांस और जर्मनी उस तरीके से नाटो के बहाने अमरीका का आदेश मानने को तैयार नहीं हैं जैसे ब्रिटेन ‘यस सर’ कहते हुए इंतजार में खड़ा है।
अगर सैन्य शक्ति को बाहरी तौर पर देखें तो लगता है, रूस के विरुद्ध अमरीकी नेतृत्व वाला सैन्य गुट ज्यादा मज़बूत है, लेकिन रूस को भी चीन का बाहरी तौर पर थोड़ा मगर आंतरिक रूप से भरपूर समर्थन हासिल है जिसकी वजह से रूसी राष्ट्रपति पश्चिमी देशों की जरा भी परवाह नहीं कर रहे। यूक्रेन के दो प्रांतों को स्वतंत्र देश घोषित करना आग से खेलना है। क्या इस आत्मविश्वास के पीछे महज रूस की रणनीतिक मजबूरी है, नहीं, इसमें चीन का आर्थिक आधार और तकनीकी श्रेष्ठता भी है? वैसे जिस तरह से अमरीका और मीडिया के पश्चिमी प्रचार तंत्र ने इस पूरे मामले में रूस को विलेन बनाने की कोशिश की है, उसकी वजह से दुनिया के किसी सामान्य नागरिक को यही लग सकता है कि रूस अपनी सैनिक ताकत के बल पर पड़ोसी देश यूक्रेन को तोड़ने या उसके किसी हिस्से पर कब्जा करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन बात इतनी भर नहीं है। यह तो तस्वीर का वह हिस्सा है जिसे अमरीका और उसके इशारे पर मीडिया बताने और दिखाने की कोशिश कर रहा है।
...तो फिर तस्वीर का असली सच क्या है? आखिरकार पुतिन अमरीका और यूरोप की साझी ताकत के सामने भी किसी तरह से भयभीत क्यों नहीं हैं? दरअसल यूक्रेन और रूस का मामला जितना आसान दिख रहा है, उतना है नहीं। यूक्रेन सोवियत संघ के समय की गयी उस साझी सहमति से मुक्त होना चाहता है, जिसमें कहा गया था कि वह कभी पुराने दुश्मन नाटो सैन्य संगठन का हिस्सा नहीं बनेगा। कम्युनिस्ट अतीत के प्रति सम्मान रखने के लिए यूक्रेन को इस पर अमल करना था लेकिन वह अमरीका और दूसरे पश्चिमी देशों के उस लालच में आ गया है,जिसमें उन्होंने यूक्रेन को भरोसा दिया है कि वे उसे परमाणु हथियार तकनीक में दक्ष करेंगे और उसे परमाणु शक्ति बनने में पूरी मदद करेंगे।
गौरतलब है कि यूक्रेन के कम्युनिस्ट अतीत के दौरान बड़े पैमाने पर यूक्रेन में जो परमाणु हथियारों की तैनाती हुई थी, उसमें अभी भी काफी बड़ी संख्या में यूक्रेन के पास ही हैं। पश्चिमी देशों के उकसावे और बहकावे में आकर वह सोच रहा है कि अगर नाटो सैन्य संगठन की सुरक्षा छतरी में आ जाए तो फिर रूस उसकी तरफ  नज़र टेढ़ी नहीं कर सकता, जिसका फायदा यूक्रेन को यह होगा कि वह  वास्तविक रूप से भी परमाणु शक्ति बन जायेगा। इस दबी हुई महत्वकांक्षा के लिए यूक्रेन लगातार रूस के सामने खड़ा हुआ है। 
पुतिन जब केजीबी के मुखिया थे, तभी उन सब अनुमानों को भांप गये थे, जो अमरीका और उसके साथी देश लगा रहे थे। इसलिए दुनिया की परवाह किये बिना वह लगातार पिछले तीन दशकों से रूस के महत्वपूर्ण मुखिया बने हुए हैं। पश्चिमी देश भी जान रहे हैं कि सीधे-सीधे पुतिन को या रूस को महज आर्थिक नाकेबंदी से डराया, धमकाया नहीं जा सकता। इसलिए उन्होंने रूस को कमज़ोर करने के लिए यूक्रेन को मोहरा बनाया है लेकिन पुतिन इस पटकथा को पहले ही पढ़ चुके हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर