़खालसा पंथ की स्थापना : ऐतिहासिक प्रसंग

1699 की बैसाखी का दुनिया के इतिहास में अपना एक अलग मुकाम है। श्री आनंदपुर साहिब की धरती पर इस बैसाखी वाले दिन एक ऐसा इन्कलाब हुआ था जिसने इतिहास की बनावट और परिदृश्य ही बदल दिया था। खालसा पंथ की सृजना करके दशम पिता साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने एक क्रांतिकारी सन्देश दिया था तथा हिन्दुस्तानी जनता में एक नई आत्मा डाली थी। 
इतिहास बताता है कि इस बैसाखी वाले दिन हज़ारों की संख्या में संगत की भीड़ के समक्ष जब गुरु गोबिन्द सिंह जी आये तो उनके चेहरे पर अद्वितीय जलाल था तथा हाथ में नंगी तलवार। उन्होंने अपनी संगत से एक सिर की मांग की। पूरी भीड़ इस विचित्र मांग को सुन कर एक बार आश्चर्यचकित हो गई, सनसनी छा गई। लेकिन एक सिखा उठा और उसने  स्वयं को गुरु जी को भेंट कर दिया। गुरु साहिब उसे साथ लगते तम्बू में ले गये। कुछ समय बाद खून से सनी कृपाण लेकर तम्बू से बाहर आए और एक और शीश की मांग की। दूसरी बार फिर संगत में सनसनी छा गई, लेकिन इस बार भी एक गुरु का सिख चल पड़ा अपना शीश भेंट करने के लिए। इसी तरह पांच बार गुरु साहिब ने संगतों की भीड़ में से कुर्बानी की मांग की और पांचों बार गुरु की संगत परीक्षा में पास हुई। अंत में गुरु जी अपने पांचों सिखों भाई दयाल सिंह, भाई धर्म सिंह, भाई मोहकम सिंह, भाई साहिब सिंह एवं भाई हिम्मत सिंह के साथ तम्बू से बाहर निकले। खंडे-बाटे का अमृत तैयार किया तथा इन पांचों सिंहों को अमृतपान करवा कर ‘पांच प्यारों’ का खिताब दिया। फिर ‘आपे गुरु चेला’ कहलाने वाले गुरु ने भी इन पांच प्यारों से अमृत की दात प्राप्त की तथा स्वयं को खालसा में अभेद कर दिया। इतिहास साक्षी है कि इस पूरे व्यवहार के बाद हज़ारों सिख अमृत की दात प्राप्त करके खालसा संगठन में शामिल हो गये। सैय्यद मोहम्मद लत़ीफ की ‘हिस्ट्री ऑफ पंजाब’ के अनुसार पहले 15 दिनों में ही 80 हज़ार से अधिक लोग आनंदपुर साहिब पहुंच चुके थे जिन्होंने गुरु साहिब का मार्ग अपनाने के लिए तत्परता के साथ स्वयं को पेश कर दिया। 
इतिहास को और अधिक बारीकी से देखें तो यह तथ्य बहुत शिद्दत से उभर कर सामने आता है कि जो ऐतिहासिक चमत्कार 1699 की बैसाखी को हुआ, उसके पीछे समूची गुरु परम्परा थी। गुरु नानक पातशाह से लेकर गुरु गोबिन्द सिंह जी तक निरन्तरता से इस खालसा पंथ की सृजना का कार्य चल रहा था, जिसे अंतिम रूप साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह ने दिया था। वास्तविक रूप में गुरु नानक देव जी के मार्ग को ही ‘पांच प्यारे’ सृजित कर प्रमुख रूप में प्रगट किये गये थे। 
हिन्दुस्तान के कोने-कोने से चल कर हज़ारों सिखों का इस अवसर पर आनंदपुर साहिब पहुंचना, इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि गुरु नानक देव जी एवं उनके बाद समूची गुरु परम्परा के प्रयासों से सिखी का प्रसार पूरे हिन्दोस्तान में हो चुका था। नि:सन्देह यह समूह उसी सिखी का था जो सिखी गुरु परम्परा के दो सदियों के निरन्तर प्रचार से फैली थी। दूसरा, जिस तरह से गुरु गोबिन्द सिंह जी की शीश की मांग संगत के समूह से पूरी हुई, इस तथ्य की  पुष्टि होती है कि तब तक सिख समाज कुर्बानी का पाठ पढ़ चुका था। स्पष्ट है कि जो चमत्कार व्यवहारिक रूप में 1699 की बैसाखी वाले दिन हुया, वह बीज रूप में एक सिद्धांत की तरह पहले से मौजूद था। 
एक बात और। खालसा कौन है, क्या परिभाषा है खालसे की? यह प्रश्न भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। हमारी ऐतिहासिक और पारम्परिक रचनाओं में इस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है। भाई नंद लाल के ‘तनख्वाहनामा’ में खालसा के गुणों की एक लम्बी फेहरिस्त दी गई है। उदाहरणत: निंदा का त्याग करने वाला, रण भूमि में लड़ने-मरने वाला, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को मारने वाला, भ्रमों का नाश करने वाला खालसा है। 
इसी तरह स्पष्ट है कि ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो 1699 की बैसाखी एवं आनंदपुर साहिब की पवित्र धरती पर, सिखी के मूलभूत असूलों एवं सिद्धांतों पर विश्वास रखने वाला, वहम-भ्रम से दूर रह कर अपने मन को हमेशा अकाल पुरुख के चरणों में लगा कर विलक्षण जीवन जीने वाला, इन्कलाबी, मरजीवाड़ा, स्वायत्त: खालसा पंथ अस्तित्व में आया। 
खालसा पंथ के सृजन के अलग ऐतिहासिक प्रसंग में प्रो. पूरण सिंह द्वारा लिखी यह इबारत भी पढ़ने वाली है। उन्होंने कहा है, ‘गुरु गोबिन्द सिंह जी ने जो सर्व-लौह की पाहुल से जीवन-धारा का नव-संचालन किया, वह एक ऐसी प्रेरणा शक्ति है जो मनुष्य की नये धर्म में नया निर्माण करती है और उसे प्रेम में मृत्यु का पाठ पढ़ाती है। 
पूर्व उप-कुलपति, पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला