मुस्कान की बोहनी

आंगन का दृश्य बेहद उत्साहित और हर्षित आनंद करने वाला था। जिसे देखकर ही मै अचंभित खड़ा एक सुखद अनुभूति महसूस करने लगा था। सामने की बाल क्रीडा कमाल की थी मनोरंजक भी और कौतूहल से भरा हुआ ..! दीवार से सटकर, एक कुर्सी पर मुस्कान बैठी हुई थी, उसके कानों में डॉक्टरी आला लगा हुआ था। आला का अगला हिस्सा वह सामने की टूल पर बैठी अपनी प्रिये सहेली रीतू के सीने पर रख उसकी धड़कनें और सांसों की गति की जांच कर रही थी। फिर उसने रीतू से कहा-‘तुम अपना मुंह खोलो रीतू..!’
रीतू ने मुंह खोल दिया।
‘मुंह से बदबू आ रही है, दांत भी गंदे हो गये है, तुम ब्रश नहीं करती हो क्या रीतू..?’ उसने पूछा।
‘ब्रश हमारे घर में नहीं है, हम दांतुन और दन्तमंजन से दांत साफ  करते हैं ..!’ रीतू ने बतायी।
‘दातुन ठीक से नहीं करती हो, तभी दांत इतने गंदे हैं, बाबू जी से कहो, पेस्ट और ब्रश-जीवी ला देगा...!’
‘बाबू जी घर में नहीं है, बाहर काम करने गया है...!’
‘जब आयेगा तब मंगा लेना और दांत-मुंह ठीक से साफ करना.. ठीक है...!’
‘ठीक है, डॉक्टरनी साहिबा...!’
मै अभी अभी ऑफिस से घर लौटा था। आंगन में कदम रखने ही वाला था कि तभी यह अद्भुत नज़ारा देख दीवार से सटकर खड़ा हो गया ताकि उन दोनों की नजर मुझ पर न पड़े और उनके डॉक्टर-मरीज के खेल में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो!
मुस्कान कह रही थी-‘तुम हर दिन नहाती भी नहीं हो क्या रीतू ? कपड़े भी तुम्हारे कितने गंदे है। इस तरह तो तुम बीमार पड़ जाओगी..!’
‘मां रोज-रोज नहाने नहीं देती है, कोयला लाने कोलियरी चली जाती है, घर में पानी भी नहीं रहता है, मै छोटी हूं, कुएं से पानी ला नहीं सकती हूं, कैसे नहाऊंगी-कपड़े भी इसीलिए गंदे है...!’ रीतू ने अपनी मजबूरी बताई थी।
‘ठीक है, मां से पानी लाकर घर में रखने को कहना और तुम खुद नहाना और खुद कपड़े धोना.. ठीक है..!’
‘ठीक है....!’
‘तोंई यहां काहे खड़ा हअ...?’ पीछे से पत्नी आकर बोली। बात उन दोनों ने सुन ली।
‘अरे बाबा आ गया...बाबा आ गया..!’ कह मुस्कान मेरी ओर दौड़ पड़ी ‘बाबा, मेरा बिस्कुट ला दिए...?’
‘बिल्कुल ला दिए है... बैग में है..! उसे गोद में उठाते हुए मैंने प्यार से पूछा-‘पहले तुम ये बताओ, अभी जो तुम दोनों खेल रही थी वो कहां से सीखा...?’ 
‘हम तो ऐसे ही खेलते है.. बाबा..!’ मुस्कान मुस्कुरा उठी ।
अकस्मात मुझे चन्द्रगुप्त मौर्य की बाल कहानी याद आ गई थी। वो भी बचपन में अपने बाल सखाओं के साथ इसी तरह राजा-प्रजा का नाटक खेला करते थे, जो बाद में भारत का शक्तिशाली मौर्य सम्राट बन बैठे थे।
तभी मैंने उसकी दादी की ओर देखते हुए मुस्कान से पूछा था-‘मुस्कान, तुम पढ़ लिखकर क्या बनोगी...?’ मुस्कान बैग से बिस्कुट निकाल रही थी। मेरी बात ठीक से सुन नहीं पाई। पूछ बैठी-‘क्या कहा बाबा..?’
‘तुम पढ़ लिखकर क्या बनना चाहोगी...?’
‘मै...मै पढ़... लिखकर... डॉक्टर... बनूंगी...बाबा!’और हंसते हुए वह गोद से उतर गई थी।
‘ठीक है, बोहनी दादी के घुटने के इलाज से करना!’
‘ये बोहनी क्या होता है बाबा ?’
‘शुरुआत!’
‘ठीक है, डॉक्टर बनते ही मै दादी की घुटना ठीक कर दूंगी बाबा!’ कहते हुए रीतू के साथ वह बाहर भाग गई। (सुमन सागर)
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