जब बांस, बल्लियों और घासफूस से ढंक दिया जाता था ताजमहल

दुनिया के सात अजूबों में शामिल ताजमहल की शायद ही कभी किसी ने आलोचना की हो। दुनिया ताजमहल को कितना महत्वपूर्ण मानती है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि जब साल 2000 में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ताजमहल को देखने के लिए आगरा आये थे, तो उन्होंने कहा था दुनिया में दो तरह के लोग ही हैं, एक जिन्होंने ताजमहल को देखा है और दूसरे वो जिन्होंने ताजमहल को नहीं देखा। ताजमहल से अभिभूत होकर यह टिप्पणी अकेले अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की ही नहीं है, दुनिया के सैकड़ों राष्ट्राध्यक्षों और महान् लोगों ने ताजमहल की दिल खोलकर प्रशंसा की है।
लेकिन क्या आप समझते हैं दुनिया के इस खूबसूरत इमारत को कभी किसी ने ढहाने या गिराने की नहीं सोची होगी? अगर आपका इस सवाल में जवाब ‘नहीं’ है, यानी आप सोचते हैं कि कभी किसी ने ताजमहल को ढहाने की नहीं सोची होगी हम कहेंगे आप ‘गलत’ हैं। ताजमहल पर तीन बार उसके नेस्तनाबूद किये जाने का खतरा मंडरा चुका है। एक बार साल 1942 में जब द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था और मित्र देश अपने दुश्मन देशों पर हमला कर रहे थे, इस दौरान इनमें दुश्मनों को नामोनिशान मिटा देने का जुनून इस कदर सवार था कि एक खेमा दूसरे खेमे के देशों के सैन्य ठिकानों और लोगों पर ही बमों की बारिश नहीं कर रहे थे बल्कि दुश्मन देशों के महान् संग्रहालयों, स्मारकों और ऐतिहासिक इमारतों को भी धूल में मिला रहे थे।
खुफिया जानकारी मिली थी कि जर्मनी और जापान ताजमहल को बमों से ध्वस्त करने की योजना बना रहे हैं। यह खुफिया जानकारी हवाहवाई नहीं थी। इसलिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने ताजमहल को सुरक्षित रखने के लिए इसे बांस, बल्लियों और तमाम सूखी लकड़ियों से ढंक दिया था ताकि जब दुश्मन के बम वर्षक जहाज इसके ऊपर से गुजरें तो वह जान न सकें कि ताजमहल आखिर कहां हैं? ताजमहल को काफी दिनों तक ढंककर रखा गया था, जब दूसरा विश्व युद्ध वाकई पूरी तरह से खत्म हो गया, धुरी देश हार गये और सरेंडर कर दिया, तब ताजमहल को बांस, बल्लियों के ढेर से निकाला गया। ताजमहल को लेकर दूसरी बार ऐसी ही आशंका साल 1965 में तब आई जब भारत और पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ गई थी। तब भी आगरा स्थित ताजमहल को पांच दिनों के लिए पाकिस्तान की आशंकित बमबारी से बचाने के लिए ढंका गया था। इसी तरह साल 1971 में तीसरी बार इसे तब ढंका गया, जब भारत और पाकिस्तान के बीच दिसम्बर 1971 में जबरदस्त जंग छिड़ गई। उस समय पाकिस्तान के आशंकित हमले से इसे बचाने के लिए हरे कपड़े और हरी घास से ढंक दिया गया था ताकि ऊपर से जब पायलट यमुना के किनारे खड़े इस साहकार को देखे तो समझे कि यह कोई घास फूस का मैदान है। इन दोनों बार ही सिर्फ  दिन के समय ही ताजमहल को बचाने की कोशिश नहीं की गई थी बल्कि रात के समय में भी ताजमहल के फर्श को घासफूस और झाड़ियों से ढंका गया था ताकि चांदनी रात में ताज का फर्श न चमके और न ही ऊपर से दिखे। इस तरह देखें तो तीन बार युद्धों में ताजमहल को बचाने के लिए तत्कालीन सरकारों को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।
हालांकि यह भी सच है कि दुश्मन का कोई बम बरसाने वाला जहाज हिंदुस्तान में कभी आगरा तक नहीं पहुंचा। लेकिन यह डर तो था ही कि कभी भी ताज के लिए खतरा हो सकता है। दरअसल हर बार जब भी ताजमहल को बचाने के लिए ये पारंपरिक उपाय किये गये, इन सभी मौकों पर सरकार के पास ऐसी कोई खुफिया जानकारी ज़रूर होती थी। जब दुश्मन ताजमहल को ध्वस्त करने के मंसूबे पाल रहा होता था। इस आशंका को इसलिए भी हलके में नहीं लिया जा सकता कि जब अमरीका जैसा तथाकथित खुद को सभ्य कहने वाला देश भी ईराक के साथ हुए युद्ध में बगदाद स्थित उसकी तमाम ऐतिहासिक इमारतों और संग्रहालयों को नेस्तनाबूद कर दिया था, जबकि उसके खिलाफ  ईराक का ऐसा कुछ प्रतिरोध भी नहीं था। दरअसल जब युद्ध होते हैं तो दुश्मन देश एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सामने वाले देश के सांस्कृतिक प्रतीकों पर भी चुन चुनकर हमला करने से बाज नहीं आता क्योंकि दुश्मन को सिर्फ  सेना के स्तर पर नहीं बल्कि इतिहास और संस्कृति के स्तर पर भी घुटने टेकाना होता है। यही वजह है कि जब भी कोई महायुद्ध छिड़ता है तो भारत को ताजमहल बचाने की चिंता सताने लगती है और यह बिल्कुल सही चिंता होती है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर