कालीघाट चित्रकला से शुरु हुआ कला का बाज़ार

अंग्रेजों के समय में लंबे समय तक कलकत्ता (आज का कोलकाता) देश की राजधानी ही नहीं कला-संस्कृति का गढ़ भी था। इसीलिए यहां कला और संस्कृति के कई सारे आंदोलन और कई सारी विधाएं शुरु हुई। कालीघाट चित्रकला की शुरुआत भी बंगाल के विख्यात कालीघाट मंदिर के आसपास ही हुई थी, जिसकी शुरुआत पटुआ समुदाय ने की थी। इस कला के तहत काली मां की पेंटिंग हाथ से बने कपड़े या कागज पर बनायी जाती थी, जो मंदिर में मां काली का दर्शन करने आये श्रद्धालुओं को स्मृति के तौर पर बेची जाती थी। इन कलाकारों द्वारा काली मां की पेंटिंग पट्ट या कपड़े पर बनाने की वजह से ही इन्हें पटुआ कहा जाता था।
वास्तव में पटचित्रण की जो परंपरा उड़ीसा में प्रचलित है, वही बंगाल में भी विस्तारित थी, लेकिन कतिपय राजनैतिक सामाजिक कारणों से यह परंपरा 19वीं सदी के उत्तरार्ध में कलकत्ता या कोलकाता आकर कालीघाट चित्रकला के रूप में मशहूर हो गई। चूंकि इस दौर में ब्रिटिश साम्राज्य के तहत कलकत्ता एक राजनैतिक व व्यापारिक केंन्द्र के तौर पर उभरकर सामने आ रहा था। इसलिए भारतीय समाज में पैठ बनाने के मद्देनजर अंग्रेजों ने भारतीय साहित्य, संगीत एवं कला में रुचि लेने के साथ साथ उसके संरक्षण के लिए भी आगे आए। इस दौर में कलकत्ता के प्रसिद्ध काली मंदिर के आसपास बंगाल के लोक कलाकारों ने आश्रय लेना शुरू कर दिया। विशेषकर 24 परगना और मिदनापुर के कलाकारों ने काली मंदिर के आसपास अपनी दुकान लगानी शुरू कर दी। क्योंकि यहां उन्हें आसानी से उनकी कलाकृतियों के खरीदार मिलने लगे। 
माना जाता है कि भारत में कला के बाजार की शुरूआत इसी कालीघाट से ही हुई। परंपरागत पट चित्रों का आकार सामान्य तौर पर बड़ा होता था; क्योंकि इसमें अक्सर किसी घटना या चरित्र की पूरी गाथा चित्रित की जाती थी। इन पटचित्रों का सामान्य आकार 20 फीट तक होता था, इन बड़े आकार के चित्रों को रखना और सहेजना सहज नहीं होता था। इन चित्रों को स्थानीय बोलचाल में पट कहा जाता था, वहीं इनके रचनाकारों को पटुआ कहा जाता था। इन्हीं कारणों से खरीदारों की प्राथमिकता बदलने लगी। अपेक्षाकृत छोटे आकार के चित्रों की मांग बढ़ता देखकर इन कलाकारों ने कागज पर छोटे छोटे चित्र बनाने शुरू कर दिये। इन चित्रों में अमूमन एक दो आकृति हुआ करती थी और चित्रों की पृष्ठभूमि में अलंकरण या अनावश्यक विस्तार देने से बचा जाता था। इस तरह के चित्र कम समय में तैयार हो जाते थे, इसलिए ये चित्र अपेक्षाकृत सस्ते दामों पर खरीदार को मिल जाया करते थे।
कालीघाट पेंटिंग के कालखंड को कुछ इतिहासकार तीन हिस्सों में मानते हैं। पहला 1800 से 1850, जिसमें इस शैली ने अपनी पहचान गढ़ने की शुरूआत हुई। दूसरा 1850 से 1890 जिसमें यह कला अपने चरमोत्कर्ष पर मानी जाती है, जिसमें इस कला शैली का संयोजन और रंग सज्जा दोनों नजरिये से विकास होता गया। किन्तु 1900 से 1930 का समय वह दौर माना जाता है जब छापाखानों के प्रसार ने इन चित्रों की सस्ती प्रतिलिपियां ग्राहकों को उपलब्ध करानी शुरू कर दी। यूं तो इस शैली के चित्र दुनियाभर के संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहे हैं। किन्तु लंदन स्थित विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम जहां लगभग 645 चित्रों और रेखांकनों का संग्रह है, इन चित्रों का सबसे बड़ा संग्राहक माना जाता है। इसके अलावा आक्सफोर्ड, प्राग, पेनसिलवानिया और मास्को के संग्रहालयों में भी इस शैली के चित्र संग्रहित हैं।  अपने देश की बात की जाए तो कलकत्ता के विक्टोरिया मैमोरियल हाल, इंडियन म्यूजियम, बिड़ला अकादमी ऑफ आर्ट एंड कल्चर व कला भवन, शांतिनिकेतन समेत अनेक स्थानों पर इस शैली के संग्रहित चित्रों को देखा जा सकता है। इन चित्रों में प्रयुक्त होने वाली सामग्री की बात करें तो इसमें भी परंपरागत रंगों का ही प्रयोग किया जाता था। मसलन पीला रंग के लिए हल्दी तो नीले रंग के लिए अपराजिता के फूलों और काले रंग के लिए दीये या ढिबरी से तैयार कालिख का। बाद के वर्षों में यहां भी बाजार में आसानी से उपलब्ध रासायनिक रंगों का प्रयोग किया जाने लगा। इन चित्रों के विषयों की बात की जाए तो भारतीय पारंपरिक कला परंपरा में इस शैली में विषयों की जो व्यापकता है वह संभवत: किसी और लोक या परंपरागत कला शैली में आसानी से देखने को नहीं मिलती है। 
चूंकि इन चित्रों के खरीदारों में एक बड़ा वर्ग मंदिर आने वाले हिंदू धर्मावलंबी होते थे इसलिए देवी देवताओं विशेषकर काली और गौरी के विभिन्न रूपों का ज्यादा चित्रांकन यहां पाया जाता है। किन्तु इनके अलावा कार्तिकेय, गणेश, सरस्वती के चित्रांकन के साथ साथ विष्णु के अन्य अवतारों सहित परशुराम, कृष्ण की बाललीला व पूतना बध और कालिया मर्दन जैसे प्रसंगों का अंकन भी इस शैली में किया गया। यहां तक कि इस्लाम और ईसाईयत जैसे धार्मिक विषयों पर भी चित्रण की परंपरा यहां दिखती है। कर्बला के शहीद हुसैन के दुलदुल नामक घोड़े का चित्रण भी इस शैली में किया जाता रहा है। यहां तक कि दैनिक लोकजीवन व सम-सामयिक घटनाओं का भी चित्रण इस शैली में देखने को मिलता है।   वर्ष 1890 के आसपास सर्कस में बाघों से लड़ने का करतब दिखाने वाले श्यामकांत बनर्जी को भी इस चित्रमाला में जगह दी गई यानी देखा जाए तो यह कला शैली अपने को बाज़ार के मांग के अनुकूल विषय वस्तु को अपनाती रही। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर