आस्था एवं परम्परा के निर्वहन का पर्व है दीपावली

भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जहां नित्य प्रति कोई न कोई उत्सव, त्यौहार अथवा पर्व मनाया जाता है। यहां तक कि यहां चुनावों को भी उत्सव के तौर पर लिया जाता है। इसका अभिप्राय यह भी है कि भारत के लोग भी प्राय: उत्सव-धर्मी माने जाते हैं। इसी कारण देश में प्रत्येक त्योहार अथवा पर्व को उसी के अनुरूप आस्था, निष्ठा और श्रद्धा के साथ विनत होकर मनाया जाता है। 
दीपावली अर्थात दीवाली ऐसा ही एक त्योहार होता है जिसे ऋतुराज की भांति राज-पर्व की संज्ञा दी जाती है क्योंकि इसके साथ अनेकानेक कथाएं, किंवदंतियां और धारणाएं जुड़ी हुई हैं। इसकी शुरुआत उत्तर वैदिक काल में आकाश-दीप के तौर पर हुई मानी जाती है और इसी को कलियुग में दिवाली या दीपावली कहा गया। दीपावली के साथ नव वर्ष के कदमों की आहट और धन-तेरस एवं धन्वन्तरि त्रयोदशी मनाये जाने के कारण भी इस पर्व की पर्व-राज के तौर पर मान्यता बढ़ जाती है। इसीलिए भारतीय जन-मानस में दीपावली को सप्तपर्वीय प्रकाश पुंज भी कहा गया है। धार्मिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी दीपावली को अति उत्साह एवं उल्लास के साथ मनाये जाने की प्रथा एवं परम्परा है। धर्म और आस्था के धरातल पर जहां इसे लंका के युद्ध में श्री राम की रावण पर विजय के बाद श्री राम के अयोध्या लौटने पर वहां के लोगों द्वारा प्रसन्नता की अभिव्यक्ति के लिए घरों की मुंडेरों और प्राचीरों पर दीपक जलाये जाने की कथा प्रचलित है, वहीं दीपावली वाले दिन से मौसम के परिवर्तित होने की धारणा भी जुड़ी है। दीपावली वाले दिन को ही सिख पंथ के छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब मुगल बादशाह जहांगीर की जेल से 52 राजाओं को रिहा करा के लाने की कथा भी जुड़ी होने के कारण दीपावली आपसी साझ और सद्भाव का त्योहार भी बन जाती है।
परन्तु परिवर्तित होते समय और विकास की चकाचौंध के बीच जहां भारतीय त्योहारों एवं पर्वों की पृष्ठभूमि से आस्था एवं धार्मिक भावना का जैसे लोप हुआ है, उसी प्रकार दीपावली को लेकर अनेक प्रकार की विकृतियां और विरोधाभासी धारणाएं भी जुड़ती गई हैं। पैसे की रेल-पेल ने धार्मिक भावनाओं एवं आस्था को पृष्ठभूमि में धकेल दिया है। सर्वाधिक दुराग्रही धारणा तो इस दिन जुआ खेलने और आतिशबाज़ी करने को लेकर कही जा सकती है। पता नहीं, इतिहास के किसी पन्ने पर श्री राम द्वारा अयोध्या लौटने पर इनके समर्थक किसी राजा अथवा उनके अपने राज्य के किसी योद्धा-मंत्री द्वारा किसी प्रकार की सैनिक आतिशबाज़ी अथवा आग्नेय शस्त्र का इस्तेमाल किया गया था या नहीं, परन्तु बाज़ार की मानसिकता ने इस पर्व हेतु पटाखों अथवा आतिशबाज़ी को जैसे एक अनिवार्य हिस्सा बना दिया है। यह भी बाज़ारवाद की मानसिकता प्रतीत होती है कि अब दीपावली से एक मास पूर्व से ही निरन्तर आतिशबाज़ी और पटाखे चलाये जाने लगे हैं। इससे एक ओर जहां खरबों रुपये की राशि सचमुच अग्नि-चिंगारियों की भेंट चढ़ जाती है, वहीं पर्यावरणीय प्रदूषण इतने उच्च स्तर पर पहुंच जाता है कि उसके पारे को नीचे उतारने के लिए अगला पूरा एक वर्ष सऱफ करना पड़ जाता है। इस एक दिन में पटाखों और आतिशबाज़ी से इतना धुआं उत्पन्न हो जाता है, जितना पूरा वर्ष पराली जलाने से भी नहीं बना होता। इस प्रदूषण की बदरंग तस्वीर दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र में आसानी से देखी जा सकती है। भारतीय लोकतंत्र में नि:सन्देह प्रत्येक मनुष्य के अधिकारों की व्यवस्था की गई है, परन्तु अधिकारों के साथ कर्त्तव्य भी जुड़े रहते हैं जिनकी ओर प्राय: लोग ध्यान नहीं देते। इन्हीं कर्त्तव्यों के तहत सर्वोच्च न्यायालय को भी यह कहना पड़ा है कि अपनी प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिए, दूसरों के प्राणों की कीमत पर आतिशबाज़ी अथवा आग्नेय अस्त्रों को चलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
हम समझते हैं कि नि:सन्देह सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी में बड़ा दम है। इसी दम का यह प्रतिफल है कि दिल्ली में अदालतों के निर्देश का पालन करते हुए प्रशासन ने सभी प्रकार की आतिशबाज़ी और पटाखों को न केवल चलाने, अपितु इनके निर्माण और भण्डारण पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया है। ऐसा प्रतिबन्ध पूरे देश में लगाया जाना चाहिए, और कि इस हेतु यदि अदालती निर्देशों की आवश्यकता पड़ती है तो अदालतों  की सक्रियता भी उतनी ही ज़रूरी है। आतिशबाज़ी से अक्सर शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में भीषण अग्निकांड भी हो जाते हैं। हम समझते हैं कि प्रतिबन्ध के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु जिन प्रदेशों में आतिशबाज़ी के लिए जो समय-सारिणी जारी हुई है, उसके पालन के लिए स्थानीय प्रशासनों को सक्रिय होना पड़ेगा। 
नि:सन्देह धीरे-धीरे लोग इस समस्या के मूल और इसके गम्भीर एवं ़खतरनाक होते जाने को समझने भी लगे हैं। इसीलिए इस वर्ष पटाखों और आतिशबाज़ी की बिक्री पर फर्क तो पड़ेगा ही। महंगाई की मार भी आतिशबाज़ी के पक्ष में एक अवरोधक अवश्य बनेगी। त्योहारों के शीर्ष दीपावली पर पंजाब मिठाइयों का भी सम्राट बन जाता है। इतनी बड़ी मात्रा में मिठाइयां बनाते समय मिलावटी और नकली सामान प्रयुक्त किया जाना भी बड़ी बात बन जाता है। ऐसे चरण पर प्रशासन और व्यापारी वर्ग के साथ जन-साधारण की जागरूकता और सतर्कता भी आवश्यक हो जाती है। 
हम समझते हैं कि राज-पर्व होने के कारण दीपावली पर जन-साधारण द्वारा आस्था और प्रसन्नता की अभिव्यक्ति करना जहां ज़रूरी है, वहीं पर्यावरणीय प्रदूषण और जन-स्वास्थ्य के दृष्टिगत अपनी प्रत्येक गतिविधि पर अंकुश लगाना भी उतना ही आवश्यक है। 
भगवान राम के अयोध्या आगमन पर दीपामाला की चादर से अन्धेरे को दूर भगाइये, किन्तु आतिशबाज़ी और पटाखों के बाज़ारवाद पर भी थोड़ा अंकुश लगाइये। जुआ कभी किसी का नहीं हुआ। यह देश के कानून के विरुद्ध अपराध भी है। इस पर्व पर अपने अधिकारों का सहर्ष उपयोग करें, किन्तु दूसरों के प्राणों और उनके श्वासों की कीमत पर अपने अधिकारों का  दुरुपयोग न करें। प्रकाश फैलाने के लिए दीपक जलाएं, किन्तु किसी अन्य के घर को आग लगाने वाले पटाखे न चलायें। इन सार्थक सुझावों के साथ, अजीत प्रकाशन समूह आप सभी को दीपावली की मंगल-कामनाएं अर्पित करता है।