मोबाइल-टी.वी. छीन रहे हैं बच्चें की आवाज़

जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी में बढ़ौतरी हो रही है साथ ही मानवीय जीवन की आरामदायक सुविधाओं में भी बढ़ौतरी हो रही है। लेकिन आज वरदान मानी जाती टेक्नोलॉजी ही कई क्षेत्रों में मनुष्य के नुक्सान का कारण बन रही है। ऐसा ही एक बड़ा नुक्सान जो आधुनिक टेक्नोलॉजी की देन माना जा रहा है वह है छोटे बच्चों में निर्धारित समय से देर से बोलने की समस्या जो कि तकरीबन आज 40 प्रतिशत बच्चों में पाई जा रही है। परमात्मा ने हर व्यक्ति को आवाज़ का एक ऐसा उपहार दिया है जो कि जीवन का एक मुख्य अंग माना जाता है। परन्तु आज टेक्नोलॉजी का हो रहे दुरुपयोग के कारण ही बच्चों में देरी के साथ बोलने की समस्याओं में बढ़ौतरी दर्ज की जा रही है। इस समस्या के बढ़ने के अलग-अलग कारण हैं।
बीमारी के लक्षण
मानवीय जीवन में शरीर को जब कोई बीमारी घेरती है तो वह अपने आने के लक्षण पहले दर्शाने लग पड़ती है यदि समय पर उन लक्षणों को पहचान कर उसके हल निकाल लिए जाएं तो हम उस बीमारी के कहर से बच सकते हैं परन्तु यदि समय पर गौर न किया जाए तो बीमारी के उलझने के कारण इलाज भी प्रभावित हो सकता है। इसी तरह ही यदि छोटी आयु के बच्चों में देरी के साथ बोलने की समस्या की बात की जाए तो आम ज़िंदगी में एक बच्चा अपने जन्म से लगभग 18 महीनों कर अकेले शब्दों को बोलना व समझना शुरू कर देता है। कई बच्चे इस समय से कुछ पहले ही अकेले शब्दों को बोलना सीख जाते हैं। परन्तु कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जिनमें 24 से 36 महीनों का समय निकलने के बाद भी अकेले शब्दों को बोलने और समझने की समर्था का विकास नहीं होता। यह एक बड़ा लक्षण होता है कि बच्चा देरी से बोलने की समस्या का पीड़ित हो गया है। कई बार बच्चे का जन्म से ही मंदबुद्धि होना भी बड़ा कारण होता है। दूसरा लक्षण यह भी है कि यदि बच्चा 24 महीने के बाद भी हमारी बात सुनने के बाद हमारे साथ सीधी नज़रें नहीं मिलाता या फिर बोलने वाले व्यक्ति को अनदेखा करता है और बात समझने में देरी लगाता है तो यह लक्षण देरी से बोलने की समस्या की शुरूआत होती है। शेष 50 प्रतिशत बच्चे हमारी खुद की गलतियों के कारण ही देरी से बोलने की समस्या का शिकार होते हैं। आज के आधुनिक समय में सबसे बड़ा कारण टेक्नोलॉजी है जिसका गलत प्रयोग और ज़रूरत से ज्यादा हो रहा प्रयोग ही बच्चों में देरी से बोलने का कारण बन रहा है। यदि बच्चे 2-4 साल तक बोलना शुरू नहीं करते तो हम उनको देर से बोलने की बीमारी का शिकार कहेंगे, जिसका इलाज करवाना बहुत ज़रूरी होता है।
बीमारी के कारण 
टी.वी. और मोबाइल का ज्यादा प्रयोग करना : टेक्नोलॉजी की तरक्की से ही आज दुनिया में बच्चे-बच्चे के हाथ में मोबाइल फोन आ गया है। अभिभावकों द्वारा भी आज अपने बच्चों के लिए समय न निकाल पाने के कारण ही बच्चों द्वारा ज्यादा समय टी.वी. देखना या फिर हर समय मोबाइल फोन का प्रयोग करके टाईम पास करने को पहल दी जाती है जो कि बोलने का विकास देरी के साथ होने का कारण बन रहा है। अभिभावक अपनी सुविधा के लिए आज छोटे बच्चों की संतुष्टि के लिए उनको ज्यादा समय टी.वी. पर कार्टून देखने या मोबाइल पर गेम खेलने के लिए कहते हैं। जिसके कारण बच्चों में आपसी बोलचाल की समर्था का विकास देरी के साथ होता है। बच्चा सिर्फ एक तरफा ही संचार ही करता है। जिस कारण उसमें बोलने की क्रिया से देखने की क्रिया का ज्यादा विकास होता है। ज्यादा टी.वी. देखने के साथ जहां नज़र पर बुरा प्रभाव पड़ता है साथ ही मोबाइल फोन के ज्यादा प्रयोग से सुनने की शक्ति पर भी काफी प्रभाव पड़ता है। आज ऐसे साधनों का जरूरत से ज्यादा प्रयोग शारीरिक नुकसान का कारण बन रहा है।
योग्य माहौल न मिलना : इसके अलावा देरी से बोलने की समस्या का बड़ा कारण बच्चे को जन्म से ही सही माहौल न मिलना भी होता है। क्योंकि आज के वैज्ञानिक और महंगाई के युग में हर परिवार के तकरीबन सभी सदस्य ही नौकरी करते हैं जिसके कारण बच्चे को जन्म से ही ऐसा माहौल मिलता है जिसमें उसको सुबह से शाम तक अकेले किसी घर के बड़े बुजुर्ग या कामवाली के पास ही रहना पड़ता है जो कि बहुत ही शांत माहौल होता है जिसके कारण बच्चे में बोलने की कृया का जल्द विकास नहीं होता है। परिजनों का बच्चों के साथ ज़रूरत मुताबिक न बोलना और रोज़ाना की ज़िंदगी में व्यस्त रहना ही बच्चों में बोलचाल की भाषा का विकास न होने का बड़ा कारण बन रहा है।
मानसिक कारण : आज बच्चों में कई तरह की बीमारियों के मानसिक कारण भी सामने आ रहे हैं। अभिभावकों का काम में वयस्त रहना और बच्चों का अकेले रहना भी मानसिक रोगों का कारण बनता है, क्योंकि जब बच्चों में अकेले रहने की आदत का विकास हो जाता है और फिर वही आदत आगे जाकर डिप्रैशन का कारण बनती है। जिस कारण बच्चा चुप-चुप रहता है, अपने आप में ही खोया रहता है, उसको किसी की मौजूदगी के साथ कोई लेना देना नहीं होता वह तो बस अपने कमरे में टी.वी. या मोबाईल में ही मस्त रहता है, ऐसी स्थिति में बच्चे की मानसिक स्थिति पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। उसका शारीरिक विकास भी प्रभावित होता है। जो काफी तरह की बीमारियों का कारण बनता है।
शारीरिक बीमारी में बढ़ौतरी : अभिभावकों की गलतियों के कारण आज छोटे बच्चों की शारीरिक बीमारियों में भी काफी बढ़ौतरी हो रही है। यदि 2-3 दशक पहले के बच्चों की तुलना आज की पीढ़ी से की जाए तो हमारे सामने बहुत ही चिंताजनक परिणाम आते हैं। उस समय में टेक्नोलॉजी की कमी, बाहर का बढ़िया पर्यावरण और अभिभावकों का हर समय बच्चों के साथ रहना ही उनमें बीमारियां न होने का एक बड़ा कारण था। परन्तु आज इसके उलट अभिभावकों का बच्चों के लिए समय न निकालना और अयोग्य माहौल मिलने के कारण ही बच्चों को छोटी आयु में ही कई तरह के शारीरिक रोग जकड़ रहे हैं। बच्चों में गेमों के कारण हर समय टी.वी., मोबाइल , कम्प्यूटर, इंटरनैट का लगातार एक ही स्थिति में बैठकर प्रयोग करने से देश के लगभग 45 प्रतिशत बच्चे छोटी आयु में ही मोटापे के शिकार हो रहे हैं। मोटापा जो कि आगे जाकर शुगर का कारण भी बन जाता है।
व्यवहारिक तबदीली : उपरोक्त कारणों के कारण ही आज के समय में छोटी आयु के बच्चों में कई तरह के रोगों की बढ़ौतरी हो रही है। अभिभावकों की गलतियों और टेक्नोलॉजी के दुरूपयोग से ही आज कुछ प्रतिशतता में छोटी आयु में ही बच्चे औटीज़म का शिकार हो रहे हैं। यह व्यवहार की एक ऐसी तबदीली होती है जिसमें बच्चे सिर्फ अपने आप में ही खोए रहते हैं। बच्चा किसी भी बात पर फोक्स नहीं कर पाता। वह हर बात को सुनने व समझने में देरी लगाता है। दूसरों की मौजूदगी को अनदेखा करता है। ज्यादातर अभिभावक इन लक्षणों को आम समझ कर बच्चे की तरफ बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते परन्तु इस समस्या को यदि गम्भीरता से नहीं लिया जाता तो भविष्य में यह समस्या बच्चे के शारीरिक और मानसिक रोगों का कारण भी बनती है।
सुझाव
अब समय आ गया है कि हम सभी को मिलकर अपने बच्चों को ऐसी उभर रही समस्याओं के प्रभावों से बचाया जाना चाहिए। यह तभी संभव हो सकता है यदि हम निम्नलिखित सुझावों को अपनाएं।
1. सबसे पहले आज हर अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों को मोबाइल फोन, टी.वी., इंटरनैट के प्रयोग के लिए सिर्फ निर्धारित समय ही दिया जाए। उदाहरण के तौर पर 2-5  साल के बच्चों के लिए 30-35 मिन्ट प्रति दिन, 5-10 साल के बच्चों के लिए 45-50 मिन्ट प्रति दिन और 10-18 साल के बच्चों के लिए 60-90 मिनट प्रति दिन का समय ही देना चाहिए।
2. यदि मोबाइल फोन या इंटरनैट का प्रयोग भी करना है तो उनमें बच्चों को कहानियां पढ़ने और अन्य पढ़ाई के साथ संबंधित सामग्री के प्रयोग को ही पहल दी जाए।
3. अपने बच्चों को ज्यादातर बाहरी खेलें ही खेलने के लिए उत्साहित करना चाहिए। जिसके साथ बच्चों का शारीरिक विकास सही तरीके के साथ होता है।
4. बच्चों को योगा करने व अन्य शारीरिक व्यायाम करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। जोकि शारीरिक व मानसिक स्थिति को मज़बूत करता है।
5. ज्यादा छोटी आयु के बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बातें करनी चाहिएं जोकि उनके बोलने की क्रिया के विकास में मददगार होती है और उनके साथ ज्यादा समय व्यतीत करना चाहिए। उनके अकेले खेलने से ज्यादा बेहतर है, समय निकाल कर उनके साथ खुद खेलना चाहिए।
यदि सभी अभिभावक अपने बच्चों को तंदरुस्त देखना चाहते हैं तो सबको उपरोक्त लिखे बीमारी के कारणों और लक्षणों को ध्यान में रखना चाहिए यदि कोई बच्चा देरी के साथ बोलने संबंधी बीमारी के लक्षण दर्शाता है तो उसको तुरंत स्पीच थैरेपी के डाक्टरों की सलाह लेनी चाहिए। परन्तु यदि हर अभिभावक उपरोक्त दिए सुझावों को अपनाता है तो यह संभव हो सकता है कि किसी भी बच्चे को देरी के साथ बोलने की समस्या या अन्य मानसिक और शारीरिक समस्या न आए। जरूरत है आज हर अभिभावक को अपने बच्चों के विकास और तंदुरुस्ती की गम्भीरता से लेने की है।
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