मानसिक रोगियों की बढ़ती संख्या चिंता का विषय

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साईंस (निम्हंस) ने 2016 में देश के 12 राज्यों में एक सर्वेक्षण करवाया था जिसके कई चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। आंकड़ों के मुताबिक आबादी का 2.7 फीसदी हिस्सा अवसाद (डिप्रेशन) जैसे कॉमन मेंटल डिस्ऑर्डर से ग्रसित है जबकि 5.2 प्रतिशत आबादी कभी न कभी इस तरह की समस्या से ग्रसित हुई है। कोविड के दौरान लोगों का मानसिक स्वास्थ्य भी चिंता का एक गंभीर विषय बन कर उभरा था। जानकार आशंका जताते हैं कि भारत में बड़े स्तर पर बदलाव हो रहे हैं। शहर फैल रहे हैं, आधुनिक सुविधाएं बढ़ रही हैं। बड़ी संख्या में लोगों का गांवों से पलायन हो रहा है। इन सब का असर लोगों के मन मस्तिष्क पर भी पड़ सकता है। लिहाजा अवसाद जैसी समस्या के बढ़ने की आशंका है। इसके अलावा भारत में संयुक्त परिवारों का टूटना, स्वायत्तता पर ज़ोर और टेक्नॉलॉजी जैसे मुद्दे लोगों को अवसाद की ओर धकेल रहे हैं।
भारतीय चिकित्सा शोध परिषद (आईसीएमआर) ने 2017 में पहली बार इस पर व्यापक अध्ययन किया। अध्ययन में पता चला है कि 4.57 करोड़ लोग आम मानसिक विकार अवसाद और 4.49 करोड़ लोग बेचैनी से पीड़ित हैं। इसमें जो तथ्य सामने आए हैं, उसके मुताबिक करीब 19.7 करोड़ लोग या हर सातवां भारतीय किसी न किसी तरह की मानसिक बीमारी से ग्रस्त है। ये आंकड़े बताते हैं कि भारत में मानसिक समस्या से ग्रसित लोगों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। मनोचिकित्सकों के अनुसार कॉमन मेंटल डिसऑर्डर या सीएमडी से 30.40 फीसदी लोग प्रभावित हैं और लोग यह समझ नहीं पाते हैं कि यह एक बीमारी है। आंकड़े बताते हैं कि यहां अवसाद की दर भी उच्चतम दरों में से एक है। सात में से एक भारतीय किसी न किसी मानसिक पीड़ा से त्रस्त है, और यह संख्या 1990 से 2017 की अवधि में दोगुनी हो गई है। सीएमडी के लक्षण अलग-अलग हो सकते हैं जैसे किसी भी काम में मन न लगना, शरीर में कोई बीमारी न होने के बावजूद थकान महसूस करना, नींद आते रहना, बहुत चिड़चिड़ापन, गुस्सा या रोने का मन करना आदि। भारत के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय का कहना है कि कोरोना महामारी के दौरान इस बीमारी से पीड़ित 30 फीसदी लोग अवसाद या डिप्रेशन का शिकार हुए हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में 10 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं और बच्चा पैदा करने के बाद 13 प्रतिशत महिलाएं अवसाद से गुजरी हैं। वहीं, विकासशील देशों में यह आंकड़ा ऊपर है जिसमें 15.6 गर्भवती और 19.8 प्रतिशत डिलीवरी के बाद महिलाएं अवसाद से गुजरी हैं। बच्चे भी अवसाद का शिकार हो रहे हैं। भारत में 0.3 से लेकर 1.2 फीसदी बच्चे अवसाद से पीड़ित हो रहे हैं।
डॉक्टरों का कहना है कि सोशल मीडिया भी किशोरों या युवाओं को अवसाद की ओर ले जाने का कारण बनता है। सोशल मीडिया पर आपकी पोस्ट या फोटो को लाइक या डिस्लाइक किया जा रहा है या कोई एक्सप्रेशन न आना आपको रिजेक्ट या डिजेक्ट होने का एहसास दिलाता है जिससे एक तरह से भावनात्मक बोझ बढ़ जाता है।
मनोचिकित्सक कहते हैं कि आजकल बच्चों पर कई तरह के परफॉर्मेंस का दबाव है। माता-पिता बच्चों से पढ़ाई-लिखाई के अलावा अन्य गतिविधियों संगीत, डांस, खेल, एक्ंिटग आदि में बेहतरीन होने की उम्मीद करते हैं। दूसरी तरफ  बच्चों में पीयर प्रेशर, सोशल साइट्स पर नए-नए स्टेटस अपडेट करने का दबाव उनके सामने अस्तित्व का सवाल पैदा कर देता है।
डॉक्टरों का मानना है कि लोगों में अब मानसिक सेहत को लेकर जागरूकता आई है लेकिन यह जागरूकता फिलहाल शहरों तक सीमित है। भारत में मेंटल हेल्थ से जुड़े कानून हैं लेकिन अब इस क्षेत्र में निवेश करने की ज़रूरत है क्योंकि मनोरोगियों से निपटने के लिए मनोचिकित्सकों और अस्पतालों की संख्या पर्याप्त नहीं है। वहीं, दूसरी तरफ  मानसिक समस्या से पीड़ितों की पहचान के लिए व्यापक स्क्रीनिंग शुरू की जानी चाहिए क्योंकि अगर इस समस्या पर जल्द काबू न पाया गया तो एक दशक में यह महामारी का रूप ले सकती है।