समान नागरिक संहिता पर राष्ट्रीय सहमति ज़रूरी 


कांग्रेस के वरिश्ठ नेता अभिशेक मनु सिंघवी ने कहा है कि कांग्रेस समान नागरिक संहिता के पक्ष में है लेकिन सरकार को इस दिशा में राजनीति करने की बजाय सामूहिक सहमति बनाने की ज़रूरत है। उनके इस बयान से संकेत मिलता है कि कांग्रेस इस सिलसिले में उन रूढ़ियों को तोड़ती दिखाई दे रही है, जो उसने शाहबानो, अनुच्छेद-370, तीन तलाक और राम मंदिर के समय दिखाई थीं। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी भी देश में एक समान कानून लाने की वकालात करते हुए केंद्र सरकार से आग्रह करें कि वह इस संदर्भ में प्रारूप तैयार कर संसद में पेश करे। उल्लेखनीय है कि हिमाचल प्रदेश के हाल में सम्पन्न चुनावों में अपने घोषणा-पत्र में भाजपा ने दोबारा सत्तारुढ़ होने पर समान नागरिक संहिता लागू करने का वायदा किया है। गुजरात में भी सरकार एक समान कानून बनाने की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। चुनाव के समय उत्तराखंड सरकार ने भी ऐसा ही वादा किया था। हालांकि इस दिशा में अभी ठोस परिणाम देखने में नहीं आया।    
संविधान में दर्ज नीति-निर्देशक सिद्धांत यही अपेक्षा रखते हैं कि समान नागरिकता लागू हो जिससे देश में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए एक ही तरह का कानून वजूद में आ जाए, जो सभी धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों पर लागू हो। आदिवासी और घुमंतू जातियां भी इसके दायरे में आएंगी। केन्द्र में सत्तारूढ़ राजग सरकार से यह उम्मीद ज्यादा इसलिए है, क्योंकि यह मुद्दा भाजपा के बुनियादी मुद्दों में शामिल है। इसमें सबसे बड़ी चुनौती बहुधर्मों के व्यक्तिगत कानून और वे जातीय मान्यताएं हैं,जो विवाह, परिवार, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे अधिकारों को दीर्घकाल से चली आ रही क्षेत्रीय, सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं को कानूनी स्वरूप देती हैं। इनमें सबसे ज्यादा भेद महिलाओं से बरता जाता है। एक तरह से ये लोक प्रचलित मान्यताएं महिला को समान हक देने से खिलवाड़ करती हैं। लैंगिक भेद भी इनमें स्पष्ट परिलक्षित रहता है। मुस्लिमों के विवाह व तलाक कानून महिलाओं की अनदेखी करते हुए पूरी तरह पुरुषों के पक्ष में हैं। ऐसे में इन विरोधाभासी कानूनों के तहत न्यायपालिका को सबसे ज्यादा चुनौती का सामना करना पड़ता है। अदालत में जब पारिवारिक विवाद आते हैं तो अदालत को देखना पड़ता है कि पक्षकारों का धर्म कौनसा है और फिर उनके धार्मिक कानून के आधार पर विवाद का निराकरण करती है। इससे व्यक्ति का मानवीय पहलू तो प्रभावित होता ही है, अनुच्छेद 44 की भावना का भी अनादर होता है। दरअसल ब्रिटिशकालीन भारत-1772 में सभी धार्मिक समुदायों के लिए विवाह, तलाक और संपत्ति के उत्तराधिकार से जुड़े अलग-अलग कानून बने थे, जो आज़ादी के बाद भी अस्तित्व में हैं। हालांकि अब तीन तलाक खत्म कर दिया गया है। 
वैसे तो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बुनियादी मूल्य समानता है, लेकिन बहुलतावादी संस्कृति, पुरातन परम्पराएं और धर्मनिरपेक्ष राज्य अंतत:कानूनी असमानता को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम करते रहे हैं। इसलिए समाज लोकतांत्रिक प्रणाली से सरकारें तो बदल देता है, लेकिन सरकारों को समान कानूनों के निर्माण में दिक्कतें आती हैं। इस जटिलता को सत्तारूढ़ सरकारें समझती हैं।  संविधान के भाग-4 में उल्लेखित राज्य-निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता लागू करने का लक्ष्य निर्धारित है। इसमें कहा गया है कि राज्य भारत के संपूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता पर क्त्रियान्वयन कर सकता है। किंतु यह प्रावधान विरोधाभासी है क्योंकि संविधान के ही अनुच्छेद-26 में विभिन्न धर्मावलंबियों को अपने व्यक्तिगत प्रकरणों में ऐसे मौलिक अधिकार मिले हुए हैं,जो धर्म-सम्मत कानून और लोक में प्रचलित मान्यताओं के हिसाब से मामलों के निराकरण की सुविधा धर्म संस्थाओं को देते हैं। इसलिए समान नागरिक संहिता की डगर कठिन है क्योंकि धर्म और मान्यता विशेष कानूनों के स्वरूप में चलते हैं तो धर्म के पीठासीन, मंदिर, मस्जिद और चर्च के मुखिया अपने अधिकारों को हनन के रूप में देखते हैं। 
इस्लाम और ईसाइयत से जुड़े लोग इस परिप्रेक्ष्य में यह आशंका भी व्यक्त करते हैं कि यदि कानूनों में समानता आती है तो इससे बहुसंख्यकों, मसलन हिंदुओं का दबदबा कायम हो जाएगा जबकि यह परिस्थिति तब निर्मित हो सकती है, जब बहुसंख्यक समुदाय के कानूनों को एकपक्षीय दृष्टिकोण अपनाते हुए अल्पसंख्यकों पर थोप दिया जाए जो पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में कतई संभव नहीं है। विभिन्न पर्सनल कानून बनाए रखने के पक्ष में यह तर्क भी दिया जाता है कि समान कानून उन्हीं समाजों में चल सकता है, जहां एक धर्म के लोग रहते हों। भारत जैसे बहुधर्मी देश में यह व्यवस्था इसलिए मुश्किल है, क्योंकि धर्म-निरपेक्षता के मायने हैं कि विभिन्न धर्मों के अनुयायियों को उनके धर्म के अनुसार जीवन जीने की छूट हो? इसीलिए धर्मनिरपेक्ष शासन पद्धति, बहुधार्मिकता और बहुसांस्कृतिकता बहुलतावादी समाज के अंग माने गए हैं। इस विविधता के अनुसार समान अपराध प्रणाली तो हो सकती है, किंतु समान नागरिक संहिता संभव नहीं है। इस दृष्टि से देश में ‘समान दंड प्रक्रिया संहिता’ तो बिना किसी विवाद के आज़ादी के बाद से लागू है, लेकिन समान नागरिकता संहिता के प्रयास अदालत के बार-बार निर्देश के बावजूद संभव नहीं हुए हैं। इसके विपरीत संसद निजी कानूनों को ही मजबूती देती रही है।
 अब कई सामाजिक और महिला संगठन अर्से से मुस्लिम पर्सनल लॉ पर पुनर्विचार की जरूरत जता रहे हैं। इसी मांग का परिणाम तीन तलाक का समापन है। मुस्लिमों में बहुविवाह पर रोक की मांग भी उठ रही है। यह अच्छी बात है कि शीर्ष न्यायालय ने भी इस मसले पर बहस और कानून की समीक्षा की जरूरत को अहम् माना है। ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि खुद मुस्लिम समाज के भीतर पर्सनल लॉ को लेकर बेचैनी बढ़ी है। ऐसे महिला और पुरुष बड़ी संख्या में आगे आए हैं, जो यह मानते हैं कि पर्सनल लॉ में परिवर्तन समय की जरूरत है। इस परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम संगठनों की प्रतिनिधि संस्था ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत ने भी अपील की थी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उलेमा मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किए जाएं। इस्लाम के अध्येता असगर अली इंजीनियर मानते थे कि भारत में प्रचलित मुस्लिम पर्सनल लॉ दरअसल ‘ऐंग्लो मोहम्मडन लॉ’  है, जो फिरंगी हुकूमत के दौरान अंग्रेज जजों द्वारा दिए गये फैसलों पर आधारित है। लिहाजा इसे संविधान की कसौटी पर परखने की जरूरत है।  
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