एड्स के कारगर इलाज की बढ़ती उम्मीदें


वर्ष 1981 में अमरीका में न्यूयार्क तथा कैलिफोर्निया में न्यूमोसिस्टिस न्यूमोनिया, कपोसी सार्कोमा तथा त्वचा रोग जैसी असाधारण बीमारी का इलाज करा रहे पांच युवकों में एड्स के लक्षण पहली बार मिले थे। देखते ही देखते यह बीमारी तेजी से दुनियाभर में फैलने लगी तो हड़कम्प मच गया था। चूंकि उस समय जिन मरीज़ों में एड्स के लक्षण देखे गए थे, वे सभी समलैंगिक थे, इसलिए इस बीमारी को समलैंगिकों की कोई गंभीर बीमारी मानकर इसे ‘गे रिलेटेड इम्यून डेफिशिएंसी’ (ग्रिड) नाम दिया गया था लेकिन बाद में गहन अध्ययन के पश्चात् पता चला कि यह बीमारी एक सूक्ष्म विषाणु के जरिये होती है, जो रक्त एवं असुरक्षित यौन संबंधों के जरिये एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचती है। तत्पश्चात् इस बीमारी को एड्स नाम दिया गया, जो एचआईवी नामक वायरस द्वारा फैलती है। यह वायरस मानव शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली पर हमला करके मानव रक्त में पाई जाने वाली श्वेत रक्त कणिकाओं को नष्ट करता है और धीरे-धीरे ऐसे व्यक्ति के शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह नष्ट हो जाती है। यही स्थिति ‘एड्स’ (एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिंड्रोम) कहलाती है।
भारत में एड्स का पहला मामला 1986 में सामने आया था और तब हमारे यहां भी हड़कम्प मचा था। उसके बाद से बीते वर्षों में एचआईवी संक्रमण के बड़ी संख्या में मामले सामने आए, जिसके चलते लाखों लोग जान गंवा चुके हैं। करीब 81 फीसदी मामलों में असुरक्षित यौन संबंधों के कारण एचआईवी संक्रमण होता है। 7.6 फीसदी मामलों में एचआईवी संक्रमित रक्त उत्पाद ग्रहण करने से, 5.5 फीसदी मामलों में संक्रमित सुई अथवा सीरिंज से, 5.2 प्रतिशत मामलों में संक्रमित मां से बच्चे में तथा 0.7 प्रतिशत मामलों में अन्य कारणों से एचआईवी संक्रमण होता है।  
एचआईवी संक्रमण और एड्स के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए 1988 के बाद से प्रतिवर्ष 1 दिसम्बर को विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है जिसे मनाए जाने की कल्पना पहली बार अगस्त 1987 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के जेनेवा (स्विट्जरलैंड) में आयोजित ‘एड्स ग्लोबल कार्यक्रम’ के लिए सार्वजनिक सूचना अधिकारी थॉमस नेट्टर और जेम्स डब्ल्यू. बन्न द्वारा की गई थी। इन दोनों ने एड्स दिवस का अपना विचार ‘एड्स ग्लोबल कार्यक्रम’ के निदेशक डा. जॉनाथन मन्न के साथ साझा किया था। डा. मन्न द्वारा दोनों के उस विचार को स्वीकृति दिए जाने के बाद 1 दिसम्बर 1988 से इसी दिन विश्व एड्स दिवस मनाए जाने का निर्णय लिया गया। एचआईवी-एड्स पर ‘यूएन एड्स’ के नाम से जाना जाने वाला संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रम 1996 में प्रभाव में आया और उसके बाद ही दुनियाभर में इसे बढ़ावा देना शुरू किया गया। एक दिन के बजाय साल भर एड्स कार्यक्रमों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए इस कार्यक्रम की शुरुआत बेहतर संचार, इस बीमारी की रोकथाम और रोग के प्रति जागरूकता पैदा करने उद्देश्य से की गई। 2007 के बाद से विश्व एड्स दिवस को अमरीका के व्हाइट हाउस द्वारा लाल रंग के एड्स रिबन का एक प्रतिष्ठित प्रतीक देकर शुरू किया गया।
विश्वभर में एड्स के खात्मे के लिए निरन्तर प्रयास किए जा रहे हैं किन्तु अभी तक ऐसे स्थायी इलाज की खोज नहीं हो सकी है, जिससे एड्स के पूर्ण रूप से सफल इलाज का दावा किया जा सके, लेकिन एंटी-रेट्रोवायरल थैरेपी से एचआईवी संक्रमित मरीज़ों का इलाज किए जाने से बीते एक दशक में एचआईवी संक्रमितों की संख्या में काफी कमी आई है।  
फिलहाल दुनियाभर में वैज्ञानिक एंटी-रेट्रोवायरल थैरेपी के अलावा भी कुछ और कारगर उपचार खोजने में जुटे हैं, जिससे इस बीमारी का समूल विनाश किया जा सके। ऐसे ही प्रयासों में कुछ समय पहले कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा एक ऐसा आणविक किल स्विच खोजा गया है, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि यह एड्स का कारण बनने वाले वायरस से संक्रमित कोशिकाओं के रिप्रोडक्शन का पूरी तरह खात्मा कर सकता है। एड्स के इलाज की दिशा में इसे बड़ी सफलता मानते हुए शोधकर्ताओं का कहना है कि कोशिकाओं में निष्क्रिय पड़े वायरस को नष्ट करने के लिए इस किल स्विच को नियंत्रित किया जा सकता है। शोध के दौरान प्रयोगशाला में इन्सानों की कोशिकाओं पर हुए परीक्षण में वैज्ञानिकों ने पाया कि एक विशेष मॉलीक्यूल को नियंत्रित करके निष्क्रिय एचआईवी कोशिकाओं को नष्ट किया जा सकेगा। प्रमुख अध्ययनकर्ता डा. तारिक राणा का कहना है कि उनकी टीम तीन दशकों से इस शोध में जुटी थी और उन्हें यकीन है कि इस शोध में मिली सफलता के जरिये एड्स को जड़ से खत्म करने में मदद मिल सकेगी। शोधकर्ताओं के मुताबिक इस खोज के जरिये अब उनके पास एचआईवी और एड्स के उन्मूलन के लिए एक संभावित चिकित्सकीय लक्ष्य है। हालांकि उनका यह भी कहना है कि बेशक वैज्ञानिकों के हाथ लगी यह एक बड़ी सफलता है लेकिन अभी इस दिशा में और भी अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है।
अमरीकी शोधकर्ताओं ने भी कुछ समय पूर्व सौ लोगों के समूह पर एड्स से लड़ने के लिए एक टीके का परीक्षण किया और पाया कि इन लोगों के शरीर ने ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाओं का बहुत बड़ी संख्या में उत्पादन किया, जिन्हें शरीर एड्स पैदा करने वाले वायरस से लड़ने के लिए इस्तेमाल करता है। वाशिंगटन के सिएटल स्थित एचआईवी वैक्सीन ट्रायल नेटवर्क के इन शोधकर्ताओं के मुताबिक दक्षिण अफ्रीकी लोगों पर किए गए परीक्षण के नतीजे काफी संतोषजनक रहे और एचआईवी मामले में अब जल्द ही यूनिवर्सल वैक्सीन को विकसित किया जा सकेगा। 
बहरहाल, दुनिया से एड्स का खात्मा करने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा निरन्तर शोध किए जा रहे हैं और उनमें से कुछ के संतोषजनक परिणाम भी दिख रहे हैं। ऐसे में भविष्य में एड्स के कारगर इलाज की उम्मीदें बढ़ रही हैं। हालांकि अभी एड्स तथा एचआईवी के बारे में हर व्यक्ति को पर्याप्त जानकारी होना अनिवार्य है क्योंकि फिलहाल केवल जन-जागरूकता के ज़रिये ही इस बीमारी से बचा और दूसरों को बचाया जा सकता है। -मो. 94167-40584