सूर्य की किरणों से रास्ता ढूंढने वाला रेत का टिड्डा


रेत के टिड्डे को अंग्रेजी में सैंड हॉपर कहते हैं। यह रेत पर टिड्डे की तरह उछल-उछलकर चलता है, इसलिए इसे ये नाम दिया गया है। एम्फीपोडा गण का यह जीव दुनिया के अधिकांश सागरों और महासागरों के रेतीले तटों पर पाया जाता है। यह रेत पर ज्वार वाले क्षेत्र की ऊपरी सीमा से लेकर भाटे वाले क्षेत्र की निम्नतम सीमा तक मिलता है। 
एम्फीपोडा गण के लगभग 3600 जातियों के जीवों में रेत का टिड्डा बिल्कुल अलग होता है। यह अपने पैरों के बल पर किसी सहारे से टिककर खड़ा हो सकता है और अपने पेट वाले पैरों से उछल-उछलकर चलता है। यह तीन फुट लंबी और एक फुट ऊंची कूद भी लगा सकता है। यदि इसे परेशान किया जाए तो यह घबराकर इधर उधर छलांगे लगाता है। जब तक कोई इसे सुरक्षित स्थान नहीं मिल जाता, तब तक ये लगातार छलांगे लगाता है। यह पानी पर तैर सकता है और रेत पर भी चल सकता है। रेत का टिड्डा उछलने, कूदने, तैरने, चलने सभी प्रकार की गति के लिए अपने पेट का उपयोग अवश्य करता है। 
हालांकि यह काफी सीमा तक जमीन पर रहने योग्य बन गया है, लेकिन यह केवल नम स्थानों पर ही जीवित रह सकता है। जीवित रहने के लिए इसे नम हवा और नमकीन रेत जरूरी है। इसे अपने शरीर के लिए आवश्यक पानी अपने भोजन से ही प्राप्त होता है। इसका मल बिल्कुल सूखा होता है। 
यह रात के अंधेरे में अपनी मांद से निकलता है और सागर की तरफ बढ़ता है। रास्ते में इसे जो भी भोजन मिलता है, यह खाता जाता है। सूर्योदय के प्रकाश के साथ ही यह अपनी मांद में वापस लौट आता है। दिन के समय यदि इसकी आंखों पर रंग लगा दिया जाए तो यह रास्ता भटक जाता है और अपनी मांद तक नहीं पहुंच पाता। हालांकि यह शीतकालीन निंद्रा नहीं लेता, लेकिन तापक्रम के 10 डिग्री सेल्सियस से कम हो जाने पर यह निष्क्रिय हो जाता है। इसके शरीर के सभी कार्य धीमे हो जाते हैं। इस समय यह भोजन भी नहीं कर पाता। रेत के टिड्डे का समागम और प्रजनन विलक्षण होता है। नर और मादा के शरीर में परिवर्तन होते हैं। मादा अंडों से भरी होती है और वयस्क नर ऐसी ही मादा की तलाश में रहता है। समागम की इच्छुक मादा के मिल जाने के बाद नर उसके ऊपर आ जाता है और वक्ष के एक पैर से जो इस समय नर के प्रजनन अंग के रूप में काम करता है मादा की अंडों वाली थैली में शुक्राणु डाल देता है। समागम के समाप्त होते ही नर मादा के ऊपर से हट जाता है, इसी समय मादा भी अंडे देती है यानी उसके अंडे भी थैली में पहुंच जाते हैं, जहां शुक्राणुओं से तुरंत इनका निषेचन हो जाता है। अंडों का विकास इस थैली के भीतर होता है। इसी थैली में अंडे फूटते हैं तथा इनसे बच्चे निकलते हैं। इसके नवजात बच्चे देखने में छोटे से रेत के ट्डिडे के समान होते हैं। 
रेत का टिड्डा सूर्य की किरणों के कोणों से अपना रास्ता मालूम करता है। इसके शरीर पर अलग-अलग कोणों से प्रकाश डालकर इसके चलने की दिशा को प्रभावित किया जा सकता है या नियंत्रित किया जा सकता है। इसके शरीर के भीतर शायद ऐसी कोई प्रणाली होती है, जिससे इसे सूर्योदय से सूर्यास्त तक के सूर्य की स्थिति मालूम हो जाती है। उसी के अनुसार यह अपनी मांद से भोजन करने वाले क्षेत्र तक पहुंचता है और भोजन करके अपनी मांद तक वापस आ जाता है। इसी से उसे अपनी मांद की सही स्थिति पता चलती है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर