फीफा विश्व कप-2022  फुटबॉल में अब कोई टीम कमज़ोर नहीं...!


फीफा विश्व कप के इतिहास में अर्जेंटीना पहला ऐसा देश बना जिसने मैदान में ऐसे खिलाड़ी उतारे जिनमें से चार से अधिक की आयु 34 वर्ष से ज्यादा की थी। तो इस बात से क्या फर्क पड़ा? यही कि यह विश्व कप युवा लड़कों का है न कि ‘बूढ़े देवताओं’ का। तो क्या इसी वजह से अर्जेंटीना की टीम अपने ग्रुप के पहले मैच में सऊदी अरब की टीम से हार गई थी? शायद। चूंकि जब अगले मैचों में अर्जेंटीना ने एंजो फर्नान्डेज़ व जूलियन अल्वारेज़ जैसे युवा खिलाड़ी उतारे तो खेल का नक्शा ही पलट गया। तीसरे मैच में इन युवा खिलाड़ियों में से एक ने दूसरे की मदद से गोल किया और ग्रुप स्टेज की अनिश्चितता से अर्जेंटीना में उभरे भयावह सपने पर विराम लगाया।
इस विश्व कप के पहले हिस्से में केवल युवा खिलाड़ी ही चर्चा का विषय नहीं रहे हैं। युवा राष्ट्रों, विशेषकर युवा फुटबॉल देशों ने भी मीडिया की सुर्खियां बटोरी हैं। इस विश्व कप का आरंभ होने से पहले कतर की जिन बातों को लेकर आलोचना हुई, उनमें से एक यह भी थी कि इस देश में फुटबॉल परम्परा का अभाव है। गौरतलब है कि 1994 में अमरीका पर भी इसी प्रकार के हमले हुए थे- ‘यह लोग हमारी तरह फुटबॉल की समझ नहीं रखते हैं’, ऐसा उन फुटबॉल पंडितों ने कहा था जिन्हें घटनाओं व प्रसंगों की शताब्दी पुरानी यादों को बखान करने की आदत है। यह विश्व कप जब ग्रुप चरण से बाहर निकला, जिसमें हर टीम को एक दूसरे के विरुद्ध तीन मैच खेलने की गारंटी होती है और नॉकआउट के दूसरे चरण में पहुंचा जहां हार का अर्थ होता है घर लौटने के लिए बिस्तर बांधना, तो हमने देखा कि यूरोप के स्थापित दिग्गज जैसे जर्मनी ग्रुप चरण के बाद ही घर लौट रहे थे और फुटबॉल का पितामह ब्राज़ील भी ग्रुप स्टेज में एक मैच हारकर अगले चरण में पहुंचा था।
साल 1994 के बाद से पहली बार ऐसा हुआ कि एक भी टीम ग्रुप स्टेज में अधिकतम 9 अंक अर्जित नहीं कर सकी। इसका क्या अर्थ है? क्या सभी टीमें लगभग बराबर की क्षमता की हो गई हैं? क्या अब विश्व कप के लिए क्वालीफाई करने वाली सभी 32 टीमों में से किसी को कमजोर नहीं कहा जा सकता क्योंकि कोई भी किसी को भी हराने में सक्षम है? जी हां ऐसा ही है। कुछ युवा फुटबॉल देशों ने शुरू में आश्चर्य में डाला। इनमें से कुछ ग्रुप स्टेज से आगे न बढ़ सके जैसे सऊदी अरब (अर्जेंटीना को हराने के बावजूद), लेकिन कुछ अन्य अंतिम 16 में पहुंचे जैसे जापान, दक्षिण कोरिया व ऑस्ट्रेलिया। ध्यान देने की बात यह है कि जो खिलाड़ी आज जापान व दक्षिण कोरिया का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर को बचपन में उस समय फुटबॉल से प्रेम हुआ था जब उनके देशों ने 2002 में विश्व कप की संयुक्त मेजबानी की थी। यह इस बात का सबूत है कि जब किसी देश में खेल का बड़ा आयोजन होता है तो उस खेल से वहां के बच्चों का न केवल परिचय होता है बल्कि उनमें स्वयं खिलाड़ी बनने की उमंग परवरिश पाती है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फुटबॉल में यूरोप व दक्षिण अमरीका का दबदबा रहा है। अफ्रीका इनके छोटे भाई जैसा है। लेकिन अब उसके किशोर क्रांति कर रहे हैं। हालांकि अफ्रीका के केवल दो देश ही दूसरे चरण में पहुंच सके, लेकिन यूरोप की मज़बूत टीमों में अफ्रीका मूल के खिलाड़ी भी अपनी प्रतिभा का जौहर प्रदर्शित कर रहे हैं। राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय टीम, इतिहास व परम्परा कुछ ऐसे विषय हैं, जिनकी लगभग परिभाषा के आधार पर चर्चा की जाती है। यह विश्व कप भी इसका अपवाद नहीं रहा है। लेकिन इसमें जो अभूतपूर्व देखने को मिला है वह यह है कि इस संसार में जो लोग फुटबॉल से प्रेम करते हैं, उनमें से अधिकतर श्वेत यूरोपीय या युद्धघोष पर बियर पीते अमरीकी युवा नहीं हैं। एशिया के लोगों ने अर्जेंटीना, फ्रांस व स्पेन की टीमों पर प्यार बरसाया है न केवल कतर के मैदानों में बल्कि केरल, बांग्लादेश आदि में भी। इस तथ्य को मीडिया में जबरदस्त कवरेज मिला है। संसार का सबसे लम्बा झंडा अब सम्मानित धरोहर है और अर्जेंटीना के मैनेजर लिओनेल स्कालोनी ने शुक्रिया का दिल से मैसेज जारी किया है। इन एशियाई फैंस का अपनी पसंद की टीमों व खिलाड़ियों के लिए समर्थन हमेशा से ही रहा है, लेकिन इस बात का एहसास दुनिया को कतर में विश्व कप आयोजन के बाद ही हुआ है।
हालांकि भारत विश्व कप का हिस्सा नहीं है, लेकिन फुटबॉल को अपने यहां क्रिकेट जितना ही कवरेज मिलता है, जिससे मेस्सी व रोनाल्डो के प्रशंसकों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। कतर में विश्व कप के शानदार आयोजन से यूरोप स्तब्ध है। 
एक इंग्लिश टीवी रिपोर्टर अच्छे आयोजन की तारीफ करते नहीं थकता, लेकिन इसका आनंद लेने में उसे आत्मग्लानि होती है। फीफा के नियमों का उल्लंघन करते हुए एक अन्य ब्रिटिश पंडित (युवा अश्वेत लेस्बियन महिला) ने टीवी पर अपना रेनबो ‘वन लव’ आर्मबैंड पहना और सवाल किया- ‘क्या इसे (विश्व कप) हमें प्यार करने की अनुमति है?’ ऐसा क्यों है कि यूरोप को इसका आनंद लेने में आत्मग्लानि हो रही है? ग्लोबल दक्षिण को इस टकराव की परवाह क्यों नहीं है? दक्षिण अमरीका में राष्ट्रीय टीमों के लिए असीम प्रेम है जो सांस्कृतिक सामाजिक जीवन का ऐसा अटूट पहलू है कि लोग अपने भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाते हैं और शासक वर्ग टीम की सफलता को अपनी सफलता के तौर पर प्रचारित करता है, जिसकी भावनात्मक प्रतिक्रिया अक्सर वीभत्स भी होती है। बहरहाल, अगर फुटबॉल को राजनीतिक कारणों से बायकाट किया जाएगा तो फिर फुटबॉल खेला ही नहीं जाएगा। दरअसल, फुटबॉल-प्रेमी संसार तो संसार की तरह ही विविध है। इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि नई टीमों का खेल भी अब स्थापित टीमों के बराबर हो गया है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर