कोहिनूर हीरा महाराजा रणजीत सिंह के पास कैसे आया ?


‘कोहिनूर हीरा’ विश्व का सबसे ज्यादा चर्चित और बहुमूल्य हीरा है। कोहिनूर का अर्थ है ‘रोशनी का पहाड़’। इस प्रसिद्धि हीरे की इतिहास कल्पित कथाओं में दबा हुआ है। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार अंगों के राजा ‘करन’ से भी यह हीरा संबंधित रहा है जो ईसा से 3000 साल पहले हुआ था। यह हीरा काफी समय गुमनामी की हालत में रह कर अंतत: ग्वालियर के हिन्दू राजा बिक्रमाजीत के हाथ आया। बिक्रमाजीत ने सुलतान इब्राहिम लोधी द्वारा पानीपत की लड़ाई में हिस्सा लिया था। पानीपत की लड़ाई जीतने वाले दिन ही ज़हीर-उल-दीन मुहम्मद बाबर ने अपने बेटे शहज़ादा हुमायूं को आगरा (लोधियां की राजधानी) की तरफ सेना सहित भेजा। आगरा पहुंचते ही हुमायूं ने पूरे आगरा शहर को घेर लिया।
इब्राहिम लोधी तो पहले ही पानीपत की लड़ाई में मारा गया था, इसके लिए हुमायूं किसी लड़ाई का सामना किए बिना ही आगरा में अपनी विजयी सेना सहित दाखिल हो गया था। जब आगरा के किले में शहज़ादा हुमायूं अपनी विजयी सेना सहित दाखिल हो गया था तो उसको बहुत सारे हीरे जवाहरात, शाही घराने की महिलाओं ने भेंट करके अपनी जिंदगी की खैर मांगी! यहीं शाही घराने की एक बुज़ुर्ग महिला ने एक डिब्बियां पकड़ाकर अपनी जान बख्श देने का आग्रह किया। जब शहज़ादे ने डिब्बी खोली तो विश्व का बेमिसाल और बहुमूल्य ‘कोहिनूर हीरा’ जगमगाता हुआ उसने देखा। हुमायूं ने अपने पिता को पेश किया।
मुगलों के अहिद में : बाबर दिल्ली में सेना प्रबंध स्थापित करके 1526 में आगरा पहुंचा। आगरा पहुंचते ही यह कोहिनूर हीरा अपने पिता को ‘पेशकश’ के तौर पर भेंट किया परन्तु बाबर ने प्रसन्न होकर बेटे को उपहार के तौर पर वापिस दे दिया। हुमायूं के हाथों में आने से पहले इस हीरे का इतिहास कलमबंद हो चुका था। इतिहास में ज़िक्र आता है कि 1304 में यह हीरा सुलतान अलाऊद्दीन खिलजी ने ‘मालवा के राजा’ से प्राप्त किया था। मुसलमान अधिकारियों से दोबारा ग्वालियर के हिन्दू राजाओं के पास यह कैसे पहुंचा, इस बारे में इतिहास खामोश है। 1526 को पानीपत की पहली लड़ाई के बाद हिन्दुस्तान में मुगल राज और शक्ति स्थापित होने के बाद यह कोहिनूर हीरा अफगान हमलावर काबुल। दो शताब्दियों तक यह कीमती हीरा मुगल खानदानों के हुमायूं, अकबर, जहांगीर और शाहजहां आदि शाही खानदान के वारिसों के पास रहा। इतिहास में यह भी ज़िक्र आता है कि शाहजहां की बेगम ‘मुमताज’ के पास भी कुछ समय रहा।
1739 में पर्शियों के मशहूर हमलावर नादरशाह ने दिल्ली को तबाह किया तो उसने औरंगज़ेब के कमजोर वारिस मोहम्मद शाह से सभी हीरे-जवाहरात छीन लिये। उनमें ‘कोहिनूर हीरा’ भी था। नादरशाह इसको अपने साथ अफगानिस्तान ले गया। नादरशाह ने ही इस हीरे को ‘कोहिनूर’ कहा जो सबसे ज्यादा प्रमाणिक नाम है जिसको बाबर और ट्रेवरनिर ने कई नाम दिये थे। इतिहास में यह पहली बार था कि किसी हीरे को एक खास उपाधि या विशेषण के साथ नवाज़ा गया था।
नादरशाह की मौत के बाद : नादरशाह को 1747 में फतेहाबाद (खुरासन) में कत्ल कर दिया गया। उसके कत्ल के बाद तख्त पर उसके भतीजे अली-कुली-खान (या अली शाह) को बिठाया गया, जिसको यह हीरा प्राप्त हुआ। अली शाह को बाद में अंधा करके मौत के घाट उतारा गया और इस प्रकार यह ‘कोहिनूर हीरा’ उसके जानशीन शाहरुख को बाद में आगा मोहम्मद ने बंदी बनाकर खूब शारीरिक कष्ट दिए और ‘कोहिनूर हीरे’ की मांग की। शाहरुख मिज़र्ा ने 1751 में यह कीमती हीरा अहमद शाह दुरानी को उसकी सेवाओं के बदले भेंट किया। अहमद शाह की मौत के बाद उसके पुत्र और जानशीन तैमूरशाह के पास आया। 1793 में तैमूरशाह की मौत हुई और यह हीरा उसके बड़े बेटे शाह ज़मान के हाथ आया। शाह महमूद ने इस हीरे को हासिल करने के लिए अपने भाई शाह ज़मान को अंधा करके राज-गद्दी से वंचित किया लेकिन उसने हीरा अपने पास ही सुरक्षित रखा। फिर यह हीरा उसके तीसरे भाई शाह शुजाह के पास पहुंचा।
हीरे का वज़न : कई सदियों तक अनेक राजाओं, महाराजाओं, विदेशी हमलावरों और शहंशाहों के हाथों में से गुजरने से पहले इस हीरे का वज़न 1000 कैरेट था। 1665 में फ्रांस के सौदागर और जोहरी ट्रेवरनर ने इसका वज़न 279/9/16 कैरेट किया था। यह वज़न बादशाह औरंगज़ेब के सामने किया गया था। वर्निर ने इस हीरे को ‘दी ग्रेट मुगल डायमंड’ का नाम दिया। कभी इसको ‘मैचलैस’ या ‘बाबर डायमंड’ भी कहा जाता रहा है जिसका ज़िक्र ‘तौज़के-बाबरी’ में भी आया है। 1852 में इस हीरे को लंदन में दोबारा काटा गया। इसके काटने की कीमत 8,000 पौंड अदा की गई। एमस्टर्डम से एक प्रसिद्ध हीरा तराश वूरसागर को इस कार्य के लिए बुलाया गया जिसने इसको तराशने के लिए 38 दिन लगाए और यह हीरा 106/1/16 कैरेट का रह गया। लंदन के एक जौहरी फ्राइड ने 186 कैरेट से तराश कर अनोखा 108/93 कैरेट वाला कोहिनूर हीरा मूर्तिमान किया।
सिखों के पास कैसे आया : जब खालसा पंथ की लगातार जद्दोजहद के जरिए सरकार-ए-खालसा पंजाब में स्थापित हुई तो महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानिस्तान के शहर काबुल कंधार आदि को भी अपने अधीन कर लिया। अहमदशाह दुरानी के वारिस शाह सुजाह ने मान ली। इस पूर्व बादशाह काबुल को दीवान मोहकम चंद मार्च 1813 में लाहौर ले आए। उसके रुतबे के कारण कंवर खड़क सिंह को शाहदरा उसके स्वागत के लिए भेजा गया।
लाहौर में मुबारक हवेली शाह सुजाह के लिए आरक्षित रखी गई। पहले शाह इनकार करता रहा परन्तु उसकी बेगम ‘व़फा-बेगम ने यह कीमती हीरा देने के लिए इकरार किया। कुछ समय तक फिर शाह ने हीरा देने में हिचकिचाहट की। महाराजा रणजीत सिंह ने शाह सुजाह को कई तकलीफें दी और उसको चेतावनी दी कि परिवार से अलग करके अमृतसर के गोबिंदगढ़ किले में कैद कर दिया जाएगा। शाह सुजाह की बेगम ने अपने पति की ज़िंदगी के बदले महाराजा को कोहिनूर हीरा देने का वचन दिया था।
पहली जून 1813 को महाराजा रणजीत सिंह ने भाई गुरमुख सिंह, ़फकीर अज़ीज़-उल-दीन और जमांदार खुशहाल सिंहू को शाह सुजाह से यह कीमती हीरा लाने के लिए भेजा। शाह ने तीनों को यह कह कर वापिस भेज दिया कि महाराजा स्वयं आकर हीरा ले जाए। जब महाराजा रणजीत सिंह को यह सूचना मिली तो उन्होंने खुशी-खुशी अपनी सेना सहित, एक हज़ार रुपये नकद लेकर मुबारक हवेली की तरफ कूच किया। अफगानी शहंशाह ने महाराजा रणजीत सिंह का बहुत सम्मान किया। एक घंटा दोनों में विचार विमर्श होता रहा। आखिरकार शाह ने ‘कोहिनूर हीरा’ लाकर महाराजा रणजीत सिंह के आगे रखा। आपसी दोस्ती का ऐलान किया गया। महाराजा साहिब ने शाह को इसकी कीमत पूछी तो शाह ने कहा, इसकी कीमत लाठी है। मेरे पूर्वजों ने इसको इसी तरह हासिल किया था। आपने इसको मुझसे लड़ाई कर हासिल किया है। जब आप से भी बड़ा ताकतवर राजा आया तो वह भी इसी तरीके से आपसे ले लेगा।
महाराजा यह सुनकर निराश नहीं हुआ और ‘कोहिनूर हीरा’ अपनी जेब में डाल कर चला गया। महाराजा ने शाही महल में पहुंचकर एक बड़ा दरबार बुलाया और इस बहुमूल्य हीरे की प्राप्ति की खुशी में पूरा शहर रोशनी से रोशन किया गया। महाराजा इस हीरे को दो और कीमती हीरों के साथ जोड़कर खास मौकों पर अपनी बाजू पर बांधते थे। यह हीरा लाहौर के शाही खज़ाने में 1849 तक रहा। महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद खड़क सिंह और कंवर नौनिहाल सिंह को जब एक साजिश के तहत गहरी नींद सुला दिया गया तो चंद कौर के दावे एक तरफ रखकर, शेर सिंह को पंजाब का महाराजा बनाया गया और ये कीमती तौहफा उसके हाथ आया।
इंग्लैंड में पहुंचना : जब अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य में साज़िशों के तहत पंजाब को मिलाने का सफल कूटनीति कार्य किया तो नाबालिग महाराजा दलीप सिंह को 18 वर्ष के होने पर लाहौर का महाराजा बनाने का बहाना भी किया गया। उस समय लाहौर के शाही खज़ाने के रूबरू महाराजा दलीप सिंह को धोखेबाजी से अंग्रेज इंग्लैंड ले गये। लाहौर के सिख दरबार में कोहिनूर हीरा, तख्त-कुर्सी और सिख राज संबंधित कई कलाकृतियां भी इंग्लैंड पहुंची। इंग्लैंड पहुंचने से पहले यह सारा खज़ाना गवर्नर जनरल 1850 में बम्बई ले गया जहां उसने लैट. कर्नल सी.बी. मैक्सन और कैप्टन रामसे के हवाले किया जहां से वह यूरोप ले गये। यूरोप पहुंचकर उन्होंने यह सिख खज़ाना बोर्ड़ ऑफ डायरैक्टज़र् के हवाले किया और आखिरकार उन्होंने 3 जुलाई 1850 को यह विश्व का कीमती हीरा ‘महारानी’ को भेंट किया। पहली बार 1851 में लंदन में हुई पहली बड़ी प्रदर्शनी में इसको प्रदर्शित किया गया था।
इस समय कहां है : यह हीरा पहले ब्रिटेन की महारानी मेरी की शाही ताजपोशी के लिए तैयार किया गया था। दोबारा 1937 में जार्ज 6वें की ताजपोशी के समय इस हीरे को 2800 और हीरों के साथ महारानी एलिज़ाबेथ (द्वितीय) की मां, राजमाता एलिज़ाबेथ के शाही ताज में जड़ा गया। आजकल यह इंग्लैंड के ‘टावर ऑफ लंदन’ में सख्त हिफाजत अधीन प्रदर्शन है। इस हीरे के आस-पास शाही घराने के और शाही ताज भी रखे गये हैं। कुछ वर्ष पहले इस कीमती हीरे को ‘क्रिस्टल महल’ में प्रदर्शित किया गया था। इस हीरे को 2800 छोटे-छोटे हीरों के केन्द्र में जड़कर रखा गया है और इसका खास और प्रभावशाली आकार नज़ारा पेश करती है। 
वापिस की मांग : ब्रिटेन सरकार के पास समय-समय प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर इस कोहिनूर हीरे, शाही सिख खज़ाने व अन्य कला कृतियों की वापसी की मांग होती रहती है। पिछले कुछ वर्षों में भारत के सांसदों ने भी इस महत्वपूर्ण सिख खज़ाने को वापिस करने की मांग रखी है। महाराजा रणजीत सिंह की शाही ताजपोशी के 200 साला दिवस पर यह नुकता और भी अच्छे ढंग से समाचारों की जीनत बनाया है लेकिन ब्रिटेन सरकार इस खज़ाने को वापिस करने की मांग पर आनाकानी कर रही है।