सुरक्षा बलों के जवानों में क्यों बढ़ता है तनाव ?


पिछले दो साल में बस्तर में नक्सलवाद से जूझ रहे सुरक्षा बलों के बीस से अधिक जवानों द्वारा आत्महत्या कर लेना और अपने ही साथियों पर गोली चलाने की आधा दर्जन घटनाओं पर भले ही लापरवाही हो परन्तु ऐसा होना  हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर चेतावनी है।  इसी साल 14 नवम्बर को कोंडागांव के ध्नोरा थाने के जवान साजेन्द्र ठाकुर ने खुदकुशी कर ली, उससे पहले तीन नवम्बर को  नरायणपुर के कहकमेटा में जवान अरूण उईके ने खुद को गोली मार ली। इस साल ही अभी तक ऐसी आठ दुखद घटनाएं हो चुकी हैं। गत एक दशक के दौरान बस्तर में 115 जवान ऐसी घटनाओं में मारे गए। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कोई भी जवान ऐसे कदम बेहद तनाव या असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो कर उठाता है। आखिर वे दबाव में क्यों ना हों,ना तो उन्हें साफ  पानी मिल रहा है और ना ही माकूल स्वास्थ्य सेवाएं। 
जान कर दुख होगा कि नक्सली इलाके में सेवा दे रहे जवानों की मलेरिया जैसी बीमारी का आंकड़ा उनके लड़ते हुए शहीद होने से कहीं ज्यादा होता है। कुछ साल पहले सरकार ने बस्तर जैसे स्थानों पर बेहद विषम हालात में सेवाएं दे रहे अर्धसैनिकों को तनावमुक्त रखने के लिए ‘म्यूजिक थैरेपी’ यानि संगीत के इस्तेमाल का प्रयेग करना शुरू किया था, लेकिन अभी इसका लाभ आम जवान तक पहुंचता नहीं दिख रहा है क्योंकि उनकी ड्यूटी इतनी विषम है कि इस तरह के मनोरंजन के लिए उनके पास टाइम निकलता नहीं।  इन जवानों की ही मेहनत है कि उन्होंने बस्तर में नक्सलवाद की कमर तोड़ दी है।  विडंबना है कि चौबीसों घंटे चौकस रहने के कारण तनावग्रस्त जवान को ना तो न्यूनतम स्वास्थ्य सेवाएं है, ना ही साफ  पीने का पानी और ना ही अपनों से सपर्क के लिए बेहतर संचार प्रणाली। 
ब्यूरो आफ  पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने एक जांच दल बनाया था जिसकी रिपोर्ट जून-2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेश, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं,  छुट्टी की दिक्कतें जैसे मसलों पर कई सिफारिशें  की गई थीं । इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिश, निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप, शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। इन पर कागजी अमल भी हुआ, लेकिन जैसे-जैसे देश में उपद्रव ग्रस्त इलाका बढ़ता जा रहा है, अर्ध सैनिक बलों व सेना के काम का दायरे में विस्तार हो रहा है। ड्यूटी की अधिकता में उस समिति की सिफारिशें जमीनी हकीकत बन नहीं पाई। 
यह एक कड़ा सच है कि हर साल दंगा, नक्सलवाद, अलगाववादियों, बाढ़ और ऐसी ही विकट परिस्थितियों  में संघर्ष  करने वाले इस बल के लोग मैदान में लड़ते हुए मरने से कहीं ज्यादा गंभीर बीमारियों से मर जाते हैं। यह बानगी है कि जिन लेगों  पर हम मरने के बाद नारे लुटाने का काम करते हैं, उनकी नौकरी की शर्तें  किस तरह असहनीय, नाकाफी और जोखिम भरी हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते है कि केंद्रीय बलों में जवानों के आत्महत्याओं के ज्यादा मामले सामने आए है। वर्ष 2015 से 2021 तक 7 वर्षों में पूरे देश में जवानों की शहादत से ढाई गुना अधिक जवानों ने आत्महत्या की है। इस दौरान जहां सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, असम राइफल्स, आईटीबीपी और एसएसबी के 821 जवानों ने आत्महत्या की है जबकि इस दौरान देश के विभिन्न भागों में हुई मुठभेड़ों में 323 अर्धसैनिक जवानों ने अपनी शहादत दी है। इन सात वर्षों में सीआरपीएफ  के 218 जवान शहीद हुए है। वहीं 292 जवानों ने आत्महत्या की है। यह आंकड़े चिंताजनक हैं। इस समस्या से निपटने के लिए गम्भीर प्रयास किये जाने की जरूरत है ।
दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से है बस्तर, हरियाली, झरने, पशु-पक्षी और इंसान भी सभी नैसर्गिक वातावरण में उन्मुक्त। भले ही अखबार की सुर्खिया डराएं कि बस्तर में बारूद की गंध आती है लेकिन हकीकत तो यह है कि किसी भी बाहरी पर्यटक के लिए कभी भी कोई खतरा नहीं है। पूरी रात जगदलपुर से रायपुर तक आने वाली सड़क वाहनों से आबाद रहती है। यहां टकराव है तो बंदूकों का, नक्सलवाद ने यहां गहरी जड़ें जमा ली है। जब स्थानीय पुलिस उनके सामने असहाय दिखी तो केंद्रीय सुरक्षा बलों को यहां झोंक दिया गया। 
यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व शोषण  की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा करते नहीं हैं। अधिकांश मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है। बेहद घने जंगलों में लगतार सर्चिग्ां व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनाव भरा है, यहा दुश्मन अदृश्य है, हर दूसरे इंसान पर शक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश। सेना की पसंद का भोजन, कपड़े, यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता है। बस्तर का भूजल बहुत दूषित है, उसमें लोहे की मात्रा अत्यधिक है और इसी के चलते गर्मी शुरू होते ही आम लोगों के साथ-साथ जवान भी उल्टी-दस्त का शिकार होते हैं। यदा-कदा कैंप में टैंकर से पानी सप्लाई होती भी है, लेकिन वह किसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से शोधित हो कर नहीं आता है। कहते हैं कि जवान पानी की हर घूट के साथ डायरिया, पीलिया व टाईफाईड के जीवाणू पीता है। 
मोबाईल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर की क्षेत्रफल केरल राज्य से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाईल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक ना मिलने से टावर कमजोर रहते हैं। बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसल होता है।  सीआरपीएफ  की रपट मे ंयह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असुरक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। 
यह भी चिंता का विशय है कि सीआरपीएफ  व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिशत की बढ़ौतरी हुई है। अफसर स्तर पर बहुत कम लोग हैं। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निपटना कठिन होता जा रहा है।  यह कैसी विडंबना है कि पूरा देश अपने जवानों को याद करने के लिए उनकी शहादत का इंतजार करता है। महज साफ  पानी, मच्छर से निपटने के उपाय, जवानों का नियमित स्वास्थ्य परीक्षण कुछ ऐसे उपाय हैं जो कि सरकार नही ंतो समाज अपने स्तर पर अपने जवानों के लिए मुहैया करवा सकता है ताकि जवान एकाग्र चित्त से देश के दुश्मनों से जूझ सकें ।