भाषणों एवं ब्यानों में अनुशासन ज़रूरी


पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने दो अहम फैसले सुनाए हैं। 5 न्यायाधीशों की एक संवैधानिक पीठ ने 6 वर्ष पूर्व घोषित की गई नोटबंदी के संबंध में चार-एक से फैसला दिया था कि इस फैसले को लागू करने की घोषणा को ़गलत नहीं ठहराया जा सकता तथा इसे अब किसी प्रकार से बदला भी नहीं जा सकता। एक न्यायाधीश ने ही इस फैसले के विरुद्ध कुछ नुकते उठाये थे। अब 5 न्यायाधीशों की ही संवैधानिक पीठ द्वारा यह फैसला दिया गया है कि मंत्रियों के ब्यानों के लिए सरकार को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता तथा फैसले में यह भी कहा है कि केन्द्र तथा प्रदेश सरकारों के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों तथा उच्च पदों पर विराजमान व्यक्तियों की अपने विचार व्यक्त करने की तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कोई अतिरिक्त पाबन्दी नहीं लगाई जा सकती। इस फैसले में संविधान की धारा 19(2) का ज़िक्र किया गया है, जिसमें पहले से ही विचार व्यक्त करने की आज़ादी पर कुछ सीमित प्रतिबन्ध लगाए गए हैं। 
 इस धारा के अधीन यदि भारत की प्रभुसत्ता या अखंडता को तोड़ने वाला ब्यान हो, इसके अलावा प्रदेश की सुरक्षा से संबंधित या अन्य देशों से संबंध ़खराब करने वाला ब्यान दिया गया हो, सदाचार से संबंधित बात कही गई हो या अदालत का अपमान करने वाला ब्यान दिया गया हो आदि पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है या कार्रवाई हो सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के अनुसार संविधान के इस आर्टीकल में पहले ही ऐसी बहुत-सी बातें मौजूद हैं, जिन्हें आधार बना कर एतराज़ उठाये जा सकते हैं। परन्तु दूसरी ओर जस्टिस बी.वी. नागरतना का विचार यह था कि यदि किसी मंत्री ने निजी हैसियत में ब्यान दिया हो, वह तो निजी माना जा सकता है परन्तु यदि यह ब्यान सरकारी कामकाज से जुड़ा हुआ हो तो इसे सरकार का सामूहिक ब्यान माना जाना चाहिए परन्तु इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि राजनीतिक पार्टियां या सरकार को यह निश्चित करना होगा कि मंत्रियों या विधायकों के भाषण ज़िम्मेदारी वाले तथा संयम भरपूर होने चाहिएं। इनमें ऩफरत फैलाने वाली बातें नहीं की जानी चाहिएं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह फैसला उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री आज़म ़खान से जुड़े एक ब्यान के विरुद्ध दायर की गई याचिका के फलस्वरूप आया है, जिसमें उसने एक लड़की के साथ हुए दुष्कर्म के मामले के संबंध में कहा था कि यह घटना अखिलेश सरकार को बदनाम करने की साज़िश है। हम महसूस करते हैं कि आज राजनीतिज्ञों द्वारा तथा सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा कभी भी अर्थहीन ब्यान देकर माहौल को जिस प्रकार दूषित किया जा रहा है, उनका जितना नकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ रहा है तथा जिस तरह की प्रतिक्रिया ऐसे ब्यानों के बाद आती है, उसने समूचे समाज में एक बेचैनी तथा अनैतिकता पैदा कर दी है।
पिछले समय में केन्द्र तथा प्रदेश सरकार से संबंधित मंत्रियों द्वारा ऐसे ब्यान दिए जाते रहे हैं, जो समुदायों में दरार डालने वाले थे तथा जिनसे आपसी ऩफरत में वृद्धि हो रही है। ऐसे पदाधिकारियों के ब्यानों को किसी भी स्थिति में निजी ब्यान नहीं कहा जा सकता क्योंकि इनका प्रभाव समूचे समाज पर पड़ता है तथा लोगों में दरार डालने वाला गलत सन्देश जाता है। पिछले समय में यदि समुदायों में दूरियां बढ़ी हैं तथा व्यापक स्तर पर ऩफरत का माहौल सृजित किया गया है तो उसमें ऐसे ब्यानों की बड़ी भूमिका रही  है यदि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को देखा जाए तो संबंधित सरकारें तथा प्रशासन यह कह कर अपना पल्ला झाड़ सकती हैं कि ऐसा ब्यान किसी मंत्री या पदाधिकारी का निजी ब्यान हो सकता है। इस तरह किसी निजी या सरकारी ब्यान को परिभाषित किया जाना बेहद कठिन होगा। हम जस्टिस नागरतना के इस विचार से सहमत हैं कि पदाधिकारियों तथा संबंधित राजनीतिक पार्टियों के सदस्यों द्वारा भाषणों की एक सीमा निर्धारित होना ज़रूरी है क्योंकि पिछले समय में ऐसे ऩफरती तथा ़गैर-ज़िम्मेदाराना भाषणों से समाज का बड़ा नुकसान हुआ है। इस विषय के संबंध में देश की संसद में विस्तारपूर्वक विचार-विमर्श होना चाहिए ताकि ज़िम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्तियों को ज़िम्मेदारी की सीमा में रहने हेतु पाबन्द किया जा सके। ऐसे नियमों से ही समाज में एक अनुशासन पैदा होने की उम्मीद की जा सकती है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द