‘मेक इन इंडिया’ के साथ अत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर भारत

 

आजजकल हमें ‘मेड इन इंडिया’ के बजाय ‘मेक इन इंडिया’ के शब्द ज्यादा सुनाई देते हैं। आज से कुछ साल पहले हम अक्सर ‘मेड इन इंडिया’ शब्द ही सुनते थे लेकिन सन 2014 के बाद से हम ‘मेक इन इंडिया’ और ‘मेड इन इंडिया’ दोनों शब्द सुन रहे हैं। अब ऐसा क्यों हैं, इसके मायने क्या हैं, बताता हूं। ‘मेड इन इंडिया’ का मतलब था कि भारत में बना है लेकिन इसमें यह अन्तर्निहित पालिसी नहीं थी कि अगर भारत में बेचना है तो भारत में ही बनाओ।
हम मेड इन इंडिया का स्लोगन लेकर देश में बेचते थे और विदेशों के बाज़ार में प्रवेश की कोशिश करते थे। निर्यात के मामले में हम दुनिया के 700 करोड़ की आबादी में कुछ चुनिंदा करोड़ के बाजार तक ही पहुंच पाते थे। वहीं देश ने अपने दरवाज़े और 125 करोड़ का बाजार दुनिया के लिये खोल रखा था। कोई भी आता था अपना माल बेच कर चला जाता था। तब यह अन्तर्निहित शर्त नहीं थी कि भारत में बेचना है तो भारत में बनाओ जबकि वास्तविकता यह थी कि हम खुद ही अपने आप में एक बड़ा बाजार थे और हैं। अगर यह अन्तर्निहित शर्त पहले लगा देते तो भारत के पास क्र य शक्ति युक्त दुनिया का बड़ा सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार होने के कारण जिसको भारत में बेच कर कमाना है, वह यहां कारखाना लगाने को बाध्य होता।
2014 से पहले ‘मेक इन इंडिया’ की अन्तर्निहित शर्त नहीं होने के कारण कंपनियां विदेशों में बनाकर भारत में बेचा करती थीं। अब ‘मेक इन इंडिया’ पालिसी और इसके तहत जो तमाम सुविधायें और इंसेंटिव दिए गये तो कंपनियां भारत में बेचने के लिये अब भारत में भी सामान बनाने लगीं। इससे केवल उन्हें भारत का ही बाजार नहीं मिला बल्कि विदेशों में भी वे सामान बेचने लगीं। भारत का जो आयात था, वह कम होने लगा और उसी विदेशी तकनीक का माल अब भारत में निर्मित होने लगा। धीरे-धीरे भारत वैश्विक निवेश का केंद्र बनना शुरू हुआ। सस्ता कच्चा माल, सस्ता श्रम, एक जीएसटी, कम दर वाला आयकर, डिजिटल और भौतिक इंफ्रा, इन सब ने मिलकर ‘मेक इन इंडिया’ को सुगम बनाया। अब विदेशी कंपनियों के लिए भारत में सामान बनाना सस्ता होने लगा।
भारत सरकार को यह लगने लगा था कि भारत अगर बाहर से माल खरीदता रहेगा तो, न तो भारत को प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता हासिल होगी और न ही भारत आत्मनिर्भर बन पायेगा। इसीलिए भारत सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ के साथ साथ आत्मनिर्भर भारत भी शुरू किया और सबसे पहले लक्ष्य रखा डिफैंस। भारत सरकार ने यह भी सोचा कि जब बिक्र ी उनकी कन्फर्म है तो क्यों न उन्हें बोलें कि भारत को भारत में ही बना के बेचें। सरकार ने पहली शुरुआत इसकी डिफेंस से की और धीरे-धीरे कई क्षेत्रों में यह होने लगा जिसमें मोबाइल और इलेक्ट्रानिक का बढ़ता हुआ बाज़ार है।  इससे भारत में उत्पादन भी बढ़ा, रोज़गार भी बढ़ा और भारत में लाभ पर टैक्स के रूप में कमाई भी भारत को मिली। ये सब फीचर ‘मेड इन इंडिया’ में सीमित रूप में थे। इसमें कोई अन्तर्निहित शर्त नहीं थी कि भारत में बेचना है तो भारत में बनाओ।
‘मेक इन इंडिया’ ने विदेशी भण्डार के बढ़ाने और चालू खाते का घाटा कम करने में मदद की क्योंकि इससे आयात की मात्रा कम हो गई। सरकार ने इसमें  सहूलियत देने के लिए कुछ टैक्स और कानूनी सुधार भी किये ताकि ‘मेक इन इंडिया’ सफल हो। जैसे सरकार ने भी कार्पोरेट टैक्स रेट घटाकर देश ही नहीं, पूरी दुनिया को चौंका दिया। कुछ चुनिन्दा टैक्स आक्र ामकता को लेकर जो भारत की छवि दुनिया में बनी हुई थी, वह अब बीते कुछ समय से खत्म हो रही है। अब भारत टैक्स टेररिज्म वाला देश नहीं रहा। निवेशकों को भी लगने लगा है कि अब वह दौर चला गया जब पिछली तारीख से टैक्स के कानून बदल जाया करते थे या गैर ज़रूरी टैक्स लाद दिए जाते थे, या कर अधिकारी के उत्साह और आक्र ामकता की वजह से कार्पोरेट को अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते थे। अब सब डिजिटल हो गया है। पूरे देश में एक जीएसटी लगाने से भी टैक्स की परिभाषाओं को समझने की जो सुवधाएं मिलीं, उसका सबने स्वागत किया।
भारत में घरेलू कंपनियों के लिए कारपोरेट टैक्स की प्रभावी दर भी काफी कम हो गई है। यदि कोई घरेलू कंपनी किसी प्रकार का प्रोत्साहन या छूट नहीं ले रही है तो उनके लिए कारपोरेट टैक्स दर 22 फीसदी और यदि ले रही है तो लगभग 25 फीसदी के आसपास होगी। 22 फीसदी टैक्स का विकल्प चुनने वाली कंपनियों को न्यूनतम वैकल्पिक कर (एमएटी) नहीं देना होगा। नई घरेलू निर्माण कंपनी यदि कोई  प्रोत्साहन या छूट नहीं ले रही है तो वह 15 फीसदी कारपोरेट टैक्स दर के हिसाब से टैक्स दे सकती है। ऐसी नई कम्पनियों के लिए सभी सरचार्ज और सेस लगाने के बाद नई निर्माण कंपनी के लिए टैक्स की प्रभावी दर 17.09 फीसदी ही होगी।
भारत के इस कदम से विश्व में भारत की टैक्स साख खूब बढ़ी है और वैश्विक उत्पादन रूझान भारत की तरफ मुड़ने की सम्भावना है जो ‘मेक इन इंडिया’ के लिए अच्छा होगा। अभी चीन में कारपोरेट टैक्स की मानक दर 25 फीसदी है। यदि कोई कार्पोरेट चीन की सरकार द्वारा प्रोत्साहित चिन्हित क्षेत्रों में कारोबार करता है तो उसके लिए कारपोरेट टैक्स की दर घटाकर 15 फीसदी की जा सकती है, हालांकि यह भारत की तुलना में जहां सभी नये उत्पादन यूनिटों के लिए 15 फीसदी की दर है। चाइना की 15 फीसदी की दर काफी प्रतिबंधित है। चीन में इसमें प्रोत्साहन वाले क्षेत्रों में नई व अत्याधुनिक तकनीक और कुछ खास एकीकृत सर्किट का उत्पादन ही शामिल है।
कारर्पोरेट टैक्स की दर घटाने का अमरीकी कारोबारियों ने भी स्वागत किया है। उनका कहना है कि इससे देश की और विश्व की आर्थिक सुस्ती दूर होगी और अमरीकी कंपनियों को भारत में उत्पादन गतिविधियां बढ़ाने का एक नया अवसर मिलेगा। ज्ञातव्य हो कि अमरीका भारत के सबसे बड़े एफडीआई निवेशकों में शामिल है।
जहां तक वित्तीय घाटे का प्रश्न है, इस टैक्स कटौती से राजस्व को होने वाले नुकसान से वित्तीय घाटा अधिक नहीं बढ़ेगा क्योंकि एक तरफ तो यह कटौती होगी और दूसरी तरफ जीएसटी एवं आयकर दोनों कर चुकाने वालों का आधार बढ़ जाएगा और इससे राजस्व की वसूली बढ़ेगी। इस कदम से सबसे पहला फायदा यह है कि इससे भारतीय कंपनियों में कैश फ्लो बढ़ेगा जिसका इस्तेमाल कंपनियां अपने कज़र् चुकाने में करने में और नौकरियां बढ़ाने या उसे स्थिर रखने में कर सकती हैं।
वैश्विक स्तर पर अगर देखें तो जो शीर्ष के 10 उत्पादक देश हैं, उनके यहां भी निर्माण कारखानों पर जो कर की प्रभावी दर है , वह अब भारत से ज्यादा हो गई है। मतलब चीन, ब्रिटेन, कोरिया, इटली, जापान, फ्रांस आदि देशों के कार्पोरेट इनकम टैक्स अब भारत के नए प्रभावी कार्पोरेट इनकम टैक्स से 17 फीसदी से ज्यादा हो गये हैं। ऐसी दशा में जो वैश्विक निवेशक हैं, उनके लिए भारत अब नए विकल्प के रूप में सामने आया है। इसलिए भारत के दृष्टिकोण में  ‘मेड इन इंडिया’ से ‘मेक इन इंडिया’ का जो बदलाव लाया गया है, इससे भारत को दीर्घकाल में लाभ होगा। (अदिति)