राज्यपालों की भूमिका संबंधी राजनीतिक दल बनाएं आम सहमति 

 

31 जुलाई, 1959 को तत्कालीन केरल के राज्यपाल की सिफारिशों पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ईएमएस नंबूदिरीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया था। कई क्षेत्रीय पार्टियों के उभरने से एक बार फिर राज्यपाल की भूमिका सवालों के घेरे में आ गयी है। कुछ प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच कुछ मुद्दों पर असहमति बन जाती है, जैसे बहुमत साबित करने का समय, विधेयकों पर सहमति देने में लम्बा समय, राज्य की नीतियों पर प्रतिकूल टिप्पणी व असहमति तथा राज्य के विश्वविद्यालयों के मामलों में कुलाधिपति की भूमिका आदि।
मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच परस्पर विरोधी रवैया कोई नई बात नहीं है, क्योंकि यह सब पिछले कुछ समय से चला आ रहा है। राजनीतिक दलों, मुख्य रूप से द्रमुक और माकपा ने राज्यपाल के पद को समाप्त करने की मांग की है। कुछ लोगों का तर्क है कि वह लोकतंत्र में अनावश्यक हैं।
पिछले कुछ वर्षों में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, दिल्ली, तमिलनाडु, पुडुचेरी, मध्य प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के राज्यपालों की गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों से पटती नहीं है। इसीलिए ममता बनर्जी, के. चंद्रशेखर राव, एम.के. स्टालिन और पी. विजयन एक स्वर में पद के उन्मूलन के लिए कह रहे हैं। उन्होंने तर्क दिया है कि राज्यपाल केंद्र के एक एजेंट के रूप में कार्य करते हैं और उन्हें नियुक्त करने वालों के अलावा उनकी कोई जवाबदेही नहीं होती है। इन सबसे ऊपर वे अनिर्वाचित हैं।
राज्यपाल के पद को समाप्त करना दूर का सपना हो सकता है, लेकिन इस मुद्दे का समाधान किया जा सकता है। केंद्र-राज्य संबंध और राज्यपाल की भूमिका को और अधिक परिष्कृत किया जाना चाहिए। राज्यपाल केंद्र और राज्य के बीच एक कड़ी होता है। वह एक ऐसे देश में एक माध्यम के रूप में कार्य करता है जो सहकारी संघवाद को बढ़ावा देता है। वह नाममात्र का मुखिया होता है और उसका कार्यकाल पांच वर्ष का होता है लेकिन वह राष्ट्रपति की प्रसन्नता पर रहता है। राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर विधानमंडल को बुलाता है और सत्रावसान करता है। वास्तविक शक्ति निर्वाचित मुख्यमंत्री के पास होती है।
उनके अन्य कर्त्तव्यों में बिल को सहमति देना और रोकना शामिल है। वह पार्टियों के बहुमत साबित करने के लिए समय निर्धारित करता है। संविधान और राजनीतिक विचारों को उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। भारतीय संविधान के निर्माता बी.आर. अम्बेडकर ने संविधान सभा को आश्वासन दिया था कि राज्यपाल के पास अपनी कोई शक्ति नहीं होगी, हालांकि उनके कर्त्तव्य होंगे।
ऐसा नहीं है कि सभी राज्यपाल सहयोग करने वाले नहीं थे, बल्कि कुछ राज्यपालों का योगदान अच्छा रहा है। इससे पहले राजभवनों में प्रतिष्ठित लोगों का कब्जा था। कुछ गैर-विवादास्पद थे और मुख्यमंत्रियों के साथ उनके अच्छे संबंध थे। कुछ राज्यपालों में दिवंगत राम लाल भी शामिल थे, जिन्होंने 1984 में आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव सरकार को बर्खास्त कर दिया था। इंदिरा गांधी को राम लाल को बर्खास्त करना पड़ा और राव को बहाल करना पड़ा, जिनके पास बहुमत था। गोवा के राज्यपाल स्वर्गीय भानु प्रताप सिंह ने एक पखवाड़े के भीतर दो मुख्यमंत्रियों को बर्खास्त कर दिया था और एक को बहाल कर दिया था। नतीजतन, केंद्र ने उन्हें बर्खास्त कर दिया था। केरल विधानसभा ने राज्यपाल आरिफ  मोहम्मद खान के खिलाफ  प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रपति से उन्हें वापस बुलाने को कहा था।
डीएमके के नेतृत्व वाली सरकार और तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि के बीच नवीनतम विवाद ने 9 जनवरी को विधानसभा के उद्घाटन सत्र में एक बदसूरत मोड़ ले लिया। एक अभूतपूर्व तरीके से रवि ने बी.आर. अम्बेडकर, द्रविड़ नेता और द्रविड़ शासन मॉडल को अपने अभिभाषण से निकाल दिया। उन्होंने तमिलनाडु का नाम बदलकर तमिड़गम करने का भी सुझाव दिया। राज्यपाल आवेश में सदन से बहिर्गमन कर गये। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने राज्यपाल के खिलाफ  एक त्वरित प्रस्ताव पेश किया कि रिकॉर्ड में केवल लिखित भाषण ही जाना चाहिए।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय उन्होंने विभिन्न राज्यों पर राज्यपाल थोपे। राज्यपालों की नियुक्ति पर मुख्यमंत्री से परामर्श करने की एक स्वस्थ प्रणाली बदली। केन्द्र ने केवल उन्हें सूचित किया। मुख्यमंत्रियों को बर्खास्त करने के लिए उन्होंने अपने दो कार्यकाल के दौरान कम से कम 50 बार अनुच्छेद 350 का इस्तेमाल किया। क्रमिक केन्द्र सरकारों ने इसे तब तक आगे बढ़ाया जब तक कि बोम्मई के फैसले में यह निर्धारित नहीं किया गया कि सरकार के बहुमत पर निर्णय लेने के लिए शक्ति परीक्षण अंतिम होना चाहिए।
अब समय आ गया है कि राजनीतिक दल राज्यपालों की नियुक्ति और भूमिका पर आम सहमति पर पहुंचें और पद की गरिमा और सम्मान को वापस लायें। केंद्र को राज्यपालों की नियुक्ति करते समय सरकारिया आयोग द्वारा अनुशंसित नीतियों पर मुख्यमंत्री से परामर्श करना चाहिए। उन्हें प्रतिष्ठित व्यक्ति होना चाहिए और पक्षपातपूर्ण राजनीति नहीं करनी चाहिए। उन्हें न केवल निष्पक्ष होना चाहिए बल्कि निष्पक्ष दिखना भी चाहिए। राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच संबंधों का मूल विश्वास होना चाहिए। (संवाद)