सैकेंडरी परीक्षा यानि शादी एलिजिबिलिटी सर्टीफिकेट

 

हमारा देश शादियों का देश हैं। जितनी शादियां यहां होती हैं उतनी शायद संसार में कहीं न होती हों। यही कारण है कि यहां हर रोज़ कहीं न कहीं किसी न किसी का बैंड जरूर बज रहा होता है। जिसका बैंड बजता है उसके चेहरे की मुस्कान देखकर आप अनुमान लगा सकते हो कि वो हंस रहा है और हंसते हुए जो बजे उसे ही हसबैंड कहते हैं। ये अंग्रेज काफी चालाक रहे हैं इन्होंने पति के लिए अंग्रेजी शब्द अपने बैंड को हमारे हंसने के साथ जोड़कर हसबैंड बनाया। दुनिया भर के पतियों को अंग्रेजो से इसका बदला लेना चाहिए। परंतु हम तो बात कर रहे थे शादियों की। भारत में शादियां बारहमासी हो गई है। पहले ऐसा समय था कि शादियों के लिए कुछ महीनों पर प्रतिबंध था। परंतु शादियों की मारामारी के कारण वे सारे प्रतिबंध अब हट से गए हैं। ऐसा लगता नहीं बल्कि हमारे देश की वास्तविकता यही है कि यहां लोगों के जीवन का अंतिम लक्ष्य ही शादी होता है। लोग सपने भी शादी के लेते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए भी जी तोड़ मेहनत करते हैं। कई स्कूलों, कॉलेजों, संस्थानों में ऐसे छात्र छात्राएं पढ़ते हुए मिल जायेंगे जो बस इसीलिए पढ़ते हैं ताकि उनके लिए कहीं से कोई रिश्ता आए तो यह कहा जा सके कि लड़का बड़ा होनहार है अभी पढ़ रहा है। रिश्ता करने वाले भी लड़के की भोली सूरत देखकर जमीन या प्लॉट का हिसाब किताब लगाकर फट से रिश्ते के लिए हां कर देते हैं। हमारे देश की महानता इसी में है कि यहां रोज़गार से ज्यादा महत्व शादियों को दिया जाता है।
दिया भी क्यों न जाए? मनुष्य मात्र का एक ही लक्ष्य है कि वो अपने जैसी नस्ल उत्पन्न कर पितृऋण से मुक्त हो जाए। हमारे देश की खास बात यही है कि कोई और ऋण चुकाएं या ना चुकाएं पितृ ऋण चुकाने में यहां कोई पीछे नहीं रहना चाहता। इस बात का अनुमान इसी बात से लगा सकते हैं कि बच्चे के जन्म के समय मां-बाप उसकी परवरिश की अपेक्षा उसके विवाह की चिंता अधिक करने लगते हैं। अगर किसी के घर कन्या जन्म ले ले तो कई लोग लोक दिखावे के लिए कह देते हैं कि घर में लक्ष्मी आई है, कोई नहीं कहता कि सरस्वती आई है। ताकि जब कन्या का विवाह करे तो कह सके कि मेरे घर की तो सारी लक्ष्मी चली गई। 
अकसर अधिकारीगण स्कूलों में निरीक्षण करने जाते हैं तो वे प्राय: बच्चों से एक प्रश्न जरूर करते हैं कि वे बड़े होकर क्या बनेंगे? कुछ पढ़ने वाले बच्चों को छोड़कर कोई भी इस प्रश्न का उत्तर उन्हें नहीं देता। अधिकारी यह कहकर उन्हें फटकारते हैं कि कैसे बच्चे हैं आप? आपने अभी तक अपने जीवन का लक्ष्य तय नहीं किया? अब बेचारे बच्चे अधिकारी को क्या कहें? कहें कि वे बड़े होकर बाप बनना चाहते हैं। क्योंकि उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य तो यही है। वे अपने जीवन के इस लक्ष्य को सरेआम बताएंगे तो बाकी बच्चे उन पर हंस सकते हैं और अध्यापक तथा अधिकारी भी उन्हें डांट पिला सकते हैं। इसलिए वे चुपचाप रहते हैं। और मन ही मन अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए दृढसंकल्पित हो जाते हैं। अधिकारी या अध्यापक उन बेचारों की पीड़ा को क्या समझें? जो प्रश्न याद न होने पर अध्यापक की छड़ी की मार चुपचाप इसलिए खा लेते हैं कि बस स्कूल में नाम चलता रहे ताकि कोई रिश्ते वाला आए और उनका रिश्ता हो जाए। 
ऐसे बच्चों के लिए सैकेंडरी की परीक्षा शादी एलिजिबिलिटी सर्टिफिकेट से बढ़कर कुछ भी नहीं। सैकेंडरी परीक्षा पास करते ही वे शादी के लिए योग्य हो जाते हैं। उनके रिश्ते आने आरंभ हो जाते हैं और एक दो साल बाद उनकी शादियां हो जाती हैं। फिर वे अपने जीवन का उद्देश्य पूरा करने में जी जान से जुट जाते हैं। सरकार को भी उनकी सहायता हेतु कुछ न कुछ कदम तो अवश्य उठाने चाहिएं। कम से कम इतना तो सरकार कर ही सकती है कि ऐसे बच्चे जो केवल शादी के लिए योग्यता प्रमाण पत्र लेना चाहते हैं उनके लिए बोर्ड परीक्षा में पास होने के लिए अनिवार्य अंक 33 प्रतिशत से घटाकर बीस प्रतिशत कर दिए जाएं। इस प्रकार वे शान से कह सकते हैं कि उन्होंने भी शादी का सर्टिफिकेट या डिग्री हासिल कर ली है। 
-असगरपुर (यमुनानगर), पिन: 133204
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