तीरन्दाज़ हो जाने का सही रास्ता

अभी-अभी देश में एक नया सर्वेक्षण हुआ है कि भारत के नौजवान अपने जीवन में क्या बनना चाहते हैं? नहीं जनाब, वह वही जो उनके मां-बाप उन्हें बनाना चाहते हैं, बल्कि वह जो वह खुद बनना चाहते हैं। जी नहीं, डाक्टर-इंजीनियर नहीं, क्योंकि उसकी पढ़ाई कठिन है। दाखिले और शिक्षा प्राप्त करने के लिए पैसे बहुत लगते हैं। जब यह डिग्री लेकर जीवन रण में आओ, तो मां-बाप की गांठ में इतने पैसे नहीं होते कि उनके लिए एक बड़ा अस्पताल खोल दें। रो-पीटकर अगर किसी निजी अस्पताल में उन्हें काम मिलता है तो वहां न काम के घंटे निश्चित, कभी रात की ड्यूटी और कभी दिन की और वेतन के नाम पर न ही मामूली किरानी जितना वेतन। इससे तो बेहतर है वाक्-चातुरी के साथ बिना पढ़ाई पर पैसे लगाये नीम हकीम खतरा ए जान बन जाओ। या घोषित कर दो तुम्हारे हाथ में उपचार की कोई चमतकारिक सिद्धि आ गयी है। तुम्हारी बात चल गयी तो तुम्हारे अनुयायी बन सकते हैं। तुम्हारे डेरे की स्थापना हो सकती है। चुनाव नज़दीक हुए तो कोई न कोई छोटा बड़ा नेता तुम्हारी चरणवंदना के लिए पहुंच जाये, तो देश कल्याण का एकाध नारा उछाल दो। फिर देखो तुम्हारी गाड़ी कैसे चल निकलती है। डाक्टर बने बिना भी इन लोगों के बहाने अपनी सात पीढ़ी की गरीबी हटाने के लिए चल निकलोगे।
इसीलिए शायद इस सर्वेक्षण में कहा है कि नई पौध आजकल न डाक्टर बनना चाहती है न इंजीनियर। अरे इंजीनियर बनाने की जगह किसी सड़क या पुल बनने का ठेका हथिया लो, जन्म सफल हो जाएगा। पुल बना या नहीं कौन पड़ताल करता है? बड़ी आसानी से कह देना तुम्हारा बना पुल उसमें बह गया। वैसे भी आजकल निर्माण क़ागजी कार्रवाई में उभरते हैं और उसी में गुम हो जाते हैं। आम लोगों का क्या है, उन्हें तो टूटी-फूटी सड़कों पर दुर्घटनाग्रस्त होने या अधूरे पुलों से कूदकर जान देने की आदत हो गयी है। यह भीड़ भरा देश है। बन्धु कौन कहां मर गया कुछ पता नहीं चलता। कोविड के दिनों को याद कर लो, न जाने कितनी लाशें गंगा की रेत में लावारिस छोड़ दी गयीं। किसी ने देश के रहबरों से यह नहीं पूछा कि ऐ रहबरे मुल्क कौम बता यह किसका लहू था कौन मरा है बस उन प्रसारित आंकड़ों पर विश्वास कर लिया कि इन निकट आपदा के दिनों में कोई अप्रत्याशित मौत नहीं हुई, सब लोग अपनी स्वाभाविक मौत मरे हैं।
इसलिए देश में न डाक्टर चाहिए न इंजीनियर। चाहिए तो नेताओं की पदयात्राओं और शोभायात्राओं में जयघोष करने वाली भीड़ चाहिये, जो जयघोष करती हुई सफलता और उपलब्धियों की भीड़ में तबदील हो जाती है, पता ही नहीं चलता। ये नौजवानों उस या किसी भीड़ का ज़रूरी हिस्सा बने रहना चाहते हैं। क्योंकि एक अकेले महा-मनीषियों का युग अब नहीं रहा। जाति और धर्म में उनकी गिरोह की अलग पहचान हो यही उनकी प्रगति की सटीक सीढ़ी है। इसलिये तो जनगणना भी अब जातिगत और धर्म गत होगी। जिसका झुण्ड जिसका बड़ा होगा, उसकी कामयाबी भी उतनी ही फुटपाथ से उभर कर बहुमंजिली बनेगी। इसलिये सर्वेक्षण ने बताया कि अब किसी को चांद सितारा हो जाने का सपना पालना है तो किसी कट्टर गिरोह के सरगना हो जाओ। डॉनो को नकारो, माफिया गुट्टों को ध्वस्त करने की बात चाहे कर लो, लेकिन ऐसे ध्वस्त करने वालों का एक सक्रिय गुट भी बना लो और जमाने को बदल देने के नारे लगाओ।
कैसे बदलेगा यह जमाना? सर्वेक्षण की अगली पायदान कहती है कि इस बदलते युग में नौजवान पायलट बनना चाहते हैं। जी हां, वह पायलट अपने सपनों के साथ हवा में ऊंची से ऊंची उड़ान भरते हैं और पूरे देश को स्वप्नजीवी हो जाने का संदेश देता है, वही स्वप्नजीवी जो अपने सपनों की बगिया के नये फूल सात समुद्र पार डालर, पाऊंड और रूबल करंसी के देशों में खिलाना चाहते हैं। सपनों के इस अंतरिक्ष में एक पायलट की तरह वह अपने बेबस और गरीब मां-बाप के आंसू विदेशों से कमाये अपने डालरों से पोंछ देना चाहते हैं। पराये देश में पूंजीवादी अवस्था के नम्बर दो बंधुआ मज़दूर बनकर जीने में उन्हें कोई दोष नहीं लगता, बशर्त अपने गांव उन डालरों से लडफड कर अपने देश लौटे और रुपये की गिरती विनिमय दर की मदद उन्हें करोड़पति बना दें। वे विदेश हवाओं में से विजेता पायलट की तरह उतर कर अपने देश अपने गांव में चन्द रोज़ के लिए आयेंगे और पुराने मुहावरों को सच्चा सिद्ध करेंगे ‘लो बाप न मारी मेडकी, बेटी तीरंदाज़।’ बाप की उम्र तो अंधेरी झौपडियों में कट गयी, अब वह आपके लिए प्रासाद बना कर जा रहे हैं।
पृथ्वीराज चौहान के लिये तो कभी एक चन्द बरदाई ने पृथ्वीराज रासो लिखा था। आज तो उठापटक का ज़माना है। कदम-कदम पर कल के ज़िरो आज हीरो बने नज़र आते हैं। जगह बदलती इस भीड़ ने प्रतिदिन एक नया पृथ्वीराज चौहान पैदा करना शुरू कर दिया है। अपनी कलम उठाओ और महफिल-महफिल अपने-अपने पृथ्वीराज के लिए रासो लिखना शुरू कर दो। वे लोग आपकी मणिभुक्ता जैसी वाणी और युगजीवी शब्दों से अमर हो जाना चाहेंगे। वे लोग खुद बोल नहीं पाते, लिख नहीं पाते, तो क्या हुआ? अपनी कलम उठा उनके लिए अमर रचनाओं चिरंजीवी भाषणों की रचनाकारो तुम्हें राजा से रंक बनते देर नहीं लगेगी।