साझा दर्द
बेटे ने कार का दरवाजा खोल अपनी मां को नीचे उतारा।
‘ये कौन सी जगह है बेटा...?’
‘ये अपना घर है मां! ...कोई ऐसी-वैसी जगह थोड़े ही है।’
‘अच्छा! ...काफी बड़ा है। इसमें सभी हमारी उम्र के लोग दिखाई पड़ रहे हैं...?’
‘हाँ माँ! ...सभी तुम्हारे साथी हैं।’
‘तुम्हें कितना ध्यान है मेरा... अकेलेपन का दर्द समझ गये।’
बेटा बिना कुछ बोले ही उल्टे पैर लौटने को हुआ....
तभी, एक कार उसके सामने रुकी... उस कार से उतरने वाली वृद्धा को देख आगे बढ़ा।
चरण-स्पर्श करने को झूका ही था कि उसने पैर हटा लिए।
दूर ही रहो मुझसे...
तुम्हारे किये की आंच मेरे घर को भी फूंकने वाली है इसलिए मैं खुद अब इस ‘अपना घर’ में रहने चली आई।
‘उस दर्द को साझा करूंगी जो अभी-अभी तुम देकर आ रहे हो।’
-कहलगांव भागलपुर बिहार