परेशानियों का घर बनती स्मार्ट फोन की लत

राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद के लोनी स्थित परिवार परामर्श केन्द्र पर पिछले दिनों एक अजीबोगरीब मामला सामने आया। यहां काउंसलर को एक महिला ने दो-टूक कह दिया कि वह पति को छोड़ सकती है, लेकिन स्मार्टफोन नहीं। पति का आरोप था कि वह लगातार घंटों तक वीडियो कॉल करती रहती है, जिससे घर-परिवार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। महिला को काउंसलर, मायके वालों समेत दूसरे रिश्तेदारों ने भी समझाया, लेकिन उसने पति के बजाय स्मार्टफोन को चुना। बहरहाल, इस मामले की परिणति क्या होगी, इस बारे में तो अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन स्मार्टफोन के प्रति दीवानगी की पराकाष्ठा का यह मामला कई सवाल खड़े करता है। क्या अपनों से जुड़े रहने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला मोबाइल ही हमें अपनों से दूर ले जा रहा है? क्या हम एक ‘कम्युनिकेशन इंस्ट्रूमेंट’ के इतने गुलाम हो गए हैं कि वह हमें अपने इशारों पर नचाने लगा है? कहीं हमने स्मार्टफोन को ‘दोस्त’ बनाकर बीमार शरीर के साथ एकाकी जीवन का रास्ता तो नहीं चुन लिया है?
दुनिया में स्मार्टफोन की दस्तक 23 नवम्बर, 1992 को ‘आईबीएम साइमन’ नाम के तीन इंच की टच स्क्रीन वाले मोबाइल फोन के साथ मानी जाती है। इसके करीब पौने दो साल बाद 16 अगस्त, 1994 को यह बाज़ार में आया। जबकि, भारत में टच स्क्रीन फोन एचटीसी कंपनी ने 22 अक्तूबर, 2008 को ‘एचटीसी ड्रीम’ नाम से लांच किया। दुनिया में स्मार्टफोन का चलन बढ़ने के साथ ही इसके फायदे-नुकसान का गुणा-भाग भी शुरू हो गया। कोरोनाकाल में तमाम व्यावसायिक और शैक्षणिक गतिविधियों का डिजिटलीकरण हुआ तो स्मार्टफोन ने अधिकतर घरों में पहुंच बना ली। कोरोना पर लगाम लगने के साथ ही जनजीवन तो काफी हद तक अपने पूर्ववर्ती ढर्रे पर आ गया है, लेकिन जिंदगी स्मार्टफोन की ‘कैद’ से निकलने को तैयार नहीं। मोबाइल ने लोगों से ऐसी ‘दोस्ती’ गांठी है कि यह जीवन-मरण का बंधन बनकर रह गया है। चिंता इस बात को लेकर है कि यह सब रिश्तों और मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य की कीमत पर हो रहा है।
स्मार्टफोन की लत हमें किस रास्ते पर ले जा रही है, इसकी एक बानगी पिछले महीने हैदराबाद में सामने आयी है। यहां एक महिला की देखने की क्षमता लगभग चली गई। नेत्र रोग विशेषज्ञ की जांच में सब कुछ ठीक होने के बावजूद महिला को देखने में बड़ी दिक्कत हो रही थी। आखिरकार, न्यूरोलॉजिस्ट ने जांच की तो पाया कि अंधेरे में घंटों मोबाइल की स्क्रीन देखने से समस्या पैदा हुई है। ‘डिजिटल विजन सिंड्रोम’ के ही एक रूप ‘स्मार्टफोन विजन सिंड्रोम’ से पीड़ित 30 वर्षीय महिला मंजू की आंखों को न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. सुधीर कुमार ने बगैर किसी दवाई और टेस्ट के एक महीने में ही ठीक कर दिया। इसके लिए सिर्फ मोबाइल स्क्रीन से परहेज किया गया। यह हालत सिर्फ मंजू की नहीं है अधिकतर घरों में ऐसे किस्से मौजूद हैं। लगातार घंटों तक मोबाइल स्क्रीन पर टकटकी लगाकर देखने से सिर्फ आंखों से जुड़ी दिक्कत ही पैदा नहीं हो रही है। विशेषज्ञ बताते हैं कि गर्दन दर्द, कंधे में दर्द, सिर दर्द, अंगुली, कलाई व कोहनी में दर्द की सबसे बड़ी वजह मोबाइल का बेतहाशा इस्तेमाल ही है। स्मार्टफोन के दिए दर्द की दास्तान यहीं खत्म नहीं होती। देर रात तक मोबाइल से चिपके रहने से नींद पूरी नहीं हो पाती जो अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, भ्रमित रहना, तनाव और अंतत: अवसाद का कारण बनता है।
पिछले साल उत्तर प्रदेश के मेरठ में मैडीकल कॉलेज और ज़िला अस्पताल के डॉक्टरों ने जनवरी से जून तक 26553 मरीजों का विश्लेषण करके यह निष्कर्ष निकाला कि स्मार्टफोन पर ज्यादा समय बिताने से लोग तनाव, चिड़चिड़ापन और अवसाद का शिकार हो रहे हैं। खास बात यह है कि इनमें से करीब 50 प्रतिशत मरीज 25 से 45 साल के थे। ज़िला अस्पताल के मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. कमलेंद्र किशोर का कहना था कि मोबाइल की लत से युवा देर रात तक जागते हैं और फिर दिन में सोते हैं। यह विकृत जीवनशैली उन्हें अवसाद की ओर धकेल रही है। मैडीकल कॉलेज के मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. तरुणपाल ने तो कई ऐसे लोगों की काउंसलिंग करने की बात स्वीकारी जो स्मार्टफोन से ‘दोस्ती’ कर एकाकीपन का शिकार हो गए और आत्महत्या करने तक की सोचने लगे। लोग किस कदर टचस्क्रीन की लत के शिकार हो रहे हैं, इस बाबत डिजिटल रिसर्च संस्था ‘एप एनी’ की रिपोर्ट डराने वाली है। संस्था ने अपनी 2021 की रिपोर्ट में दावा किया था कि विश्व भर में लोगों ने एक साल में 3.8 लाख करोड़ घंटे मोबाइल पर बिताए हैं। वहीं, भारतीयों ने 69.9 करोड घंटे मोबाइल पर खर्च किये। भारतीय औसतन 4.8 घंटे रोज़ाना मोबाइल की स्क्रीन से चिपके रहे। यह उनके जागने के समय के एक तिहाई के बराबर है। ‘एप एनी’ के सीईओ थियोडोर क्रांत्ज का कहना है कि साल 2021 में गूगल प्ले स्टोर और एप स्टोर से दुनिया भर में 26 अरब 70 करोड एप डाउनलोड किए गए। भारत एप डाउनलोड करने के मामले में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है।
यहां, मोबाइल टावर से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव का जिक्र करना भी जरूरी है। हालांकि, सूचना प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों का दावा है कि शरीर पर इनका गंभीर प्रभाव नहीं पड़ता। ‘गंभीर’ शब्द की आड़ लेकर भले ही मोबाइल टावर का बचाव किया जाता रहा हो, लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने एक दशक पहले ही इसके नुकसान को लेकर चेता दिया था। अपनी 2012 की रिपोर्ट में डब्ल्यूएचओ ने कहा था कि अगर कोई व्यक्ति 8 से 10 साल तक रोज़ाना 30 घंटे टावर से निकलने वाली माइक्रोवेव तरंगों के संपर्क में रहता है, तो उसमें ब्रेन ट्यूमर का खतरा 400 गुना तक बढ़ जाता है। यही तरंगे मोबाइल का इस्तेमाल करने वालों तक भी पहुंचती है, जो अधिक इस्तेमाल करने पर अधिक नुकसान पहुंचा सकती है। अब 5जी और 6जी की होड़ ने इस खतरे को भी बढ़ा दिया है। इंटरनेट की ज्यादा स्पीड के लिए इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों की क्षमता बढ़ाने से ये स्वास्थ्य के लिए पहले से कहीं अधिक घातक हो रही हैं।
हाल ही में नोकिया ने ‘ब्रॉडबैंड इंडिया ट्रैफिक इंडेक्स’ को लेकर अपनी वार्षिक रिपोर्ट में दावा किया है कि भारत में इंटरनेट डाटा की खपत पांच साल में 3.2 गुना तक बढ़ गई है। भारतीय हर महीने औसतन 19.5 जीबी डाटा खर्च कर रहे हैं। साथ ही, संभावना जताई है कि डाटा उपभोग का मासिक औसत 2027 तक 46 जीबी तक पहुंच सकता है। भारत में अगले साल तक करीब 15 करोड़ लोग 5जी तकनीक से लैस मोबाइल का उपयोग करने लगेंगे, जो डाटा खपत बढ़ने की प्रमुख वजह बनेगी। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के लिहाज से ये आंकड़े भले ही उत्साह बढ़ाने वाले हो, लेकिन स्मार्टफोन के अंधाधुंध इस्तेमाल से समाज और शरीर के बीमार होने की कड़वी हकीकत को अनदेखा नहीं किया जा सकता। बेशक, कोरोना काल में स्मार्टफोन से नज़दीकी हमारी मजबूरी बन गई थी, लेकिन इस मजबूरी को अपनी कमजोरी बनने दिया तो अपनों से जुड़े रहने का यह जरिया हमें सिर्फ अपनों से ही नहीं बल्कि खुद से भी दूर कर देगा।


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