बच्चों के जीवन से खेल खेलती ऑनलाइन गेम्स 

 

आजकल बड़े-बुजुर्ग और महिलाओं सहित बच्चे स्मार्ट फोन के आदि हो गए हैं। कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा के बहाने ये विद्यार्थियों की मुट्ठी में आ गए। फिर क्या था, जो खेल भारत की समृद्ध संस्कृति शारीरिक स्वास्थ्य और जीवन के विकास की अभिप्रेरणा थे, वे देखते-देखते भ्रम, ठगी व लालच का जादुई करिश्मा बनकर मन-मस्तिश्क पर छा गए। यहां तक की ‘ब्लू व्हेल’ खेल में तो आत्महत्या का आत्मघाती रास्ता तक सुझाया जाने लगा। बच्चे लालच की इस मृग-मरीचिका के दृष्टिभ्रम में ऐसे फंसे कि धन तो गया ही, कईयों के प्राण भी चले गए। सोशल मीडिया की यह आदत जिंदगी में सतत सक्रियता का ऐसा अभिन्न हिस्सा बन गई कि इससे छुटकारा पाना मुश्किल हो गया। इससे मुक्ति के स्थायी उपाय के अंतर्गत कानून लाने की बात सत्ता-संचलकों ने सोची, लेकिन इनका संचालन वैश्विक स्तर पर है और इनके सर्वर विदेशी धरती पर हैं। अत: कानूनी अंकुश की बात लगभग बेमानी है।
बालमन अत्यंत चंचल होता है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल-लीलाएं इस चरित्र के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। हम जानते हैं कि एक मामूली गेंद को लाने के लिए उन्होंने उस यमुना में छलांग लगा दी थी, जिसमें कालिया जैसा खतरनाक नाग रहता था। चूंकि कृष्ण ईश्वर के अवतार थे, इसलिए वे नाग का मान-मर्दन करने में सफल रहे, लेकिन आज ऑनलाइन खेलों के पीछे बच्चों को गुस्सैल और हिंसक बनाने का खतरनाक खेल खेला जा रहा है। ब्लू व्हेल, जिसे नीली पोर्न फिल्मों की तर्ज पर ‘नीली-व्हेल’ खेल के भी नाम से भी जाना जाता है, कि शुरूआत 2013 में रूस में हुई थी। दिलकश दुनिया रचने वाले इंटरनेट के मायाजाल में यह खेल दुनियाभर में फैल कर बच्चों के दिलो-दिमाग पर छा गया। इस खेल में ऐसी विचित्र चुनौतियां पूरी करने के निर्देश बच्चों को दिए जाते हैं, जिनमें आत्महत्या भी शामिल है। नतीजतन खेल के जनक देश रूस में ही 2022 के अंत तक 130 से ज्यादा किशोरों ने आत्महत्या कर ली। मरने वाले ये किशोर 10 से 15 वर्ष के थे। इस खेल के जाल में फंसकर अपना विवेक खो चुके पहले किशोर ने 2015 में आत्महत्या की थी। इस मृत्यु की सूचना के बाद पुलिस सक्रिय हुई और खेल के अविश्कारक फिलिप बुदिकिन नाम के छात्र को 14 नवम्बर 2016 को मास्को में गिरफ्तार कर लिया गया था। फिलिप को अनैतिक कार्यों में लिप्तता के चलते विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया था। यह मनोविज्ञान का छात्र था। 
इस खेल में सिलसिलेबार कई टास्क यानी कर्त्तव्य पालन के निर्देश नियंत्रक द्वारा दिए जाते हैं। पहले मामूली कामों से शुरूआत होती है, जिससे खिलाड़ी रुचि लेता चला जाए। निरंतर 50 दिन तक चलने वाले इस खेल में आगे बढ़ने के साथ चुनौतियां कठिन होने लगती हैं। इनमें समय पर काम करने की बाध्यता के साथ क्रेन पर चढ़ना, नदी में छलांग लगाना, आधी रात शमशान भूमि में जाना, डरावनी फिल्में देखना, शरीर को ब्लेड से काट लेना, त्वचा को खरोंच कर जांघ पर ब्लू व्हेल का नाम लिखना या चित्र बनाना। सट्टे के खेल में जिस तरह व्यक्ति लुटता-पिटता चला जाता है, उसी तरह इस खेल की सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ने के लिए बालक बाजी इस उम्मीद से लगाते रहते हैं कि किसी एक स्टेज पर तो जीत उनके हाथ लग ही जाएगी। अंतत: उम्मीद की इसी आस में वह आत्महत्या कर लेने के शिखर से छलांग तक लगा देता है। 
 खेल-खेल में कुछ कर गुजरने की यह मनस्थिति भारत समेत दुनिया अनेक बच्चों की जान ले चुकी है। ऑनलाइन खेलों में पब्जी, रोबोलॉक्स, फयर-फैरी, फ्री-फायर भी प्रमुख खेल हैं। ये सभी खेल चुनौती और कर्त्तव्य के फरेब से जुड़े हैं। इन खेलों में दूध और पानी पीने की सरल चुनौतियों से लेकर कई घंटे मोबाइल पर बने रहने, मित्रों से पैसे उधार लेने, छत से कूदने, घुटनों के बल चलने, नमक खाने और बर्फ में रहने तक की चुनौतियां शामिल हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में जनवरी 2022 में 11 वर्षीय सूर्यांश ने फांसी लगा ली थी। इसके पहले 16 वर्षीय विनय रजक और 12 वर्षीय बालिका दुर्गा ने फांसी लगाई थी। पुलिस जांच से पता चला कि ये सभी बच्चे मोबाइल पर हिंसक खेल खेलने के आदि हो गए थे। इसके बाद प्रदेश सरकार द्वारा ऑनलाइन खेलों पर प्रतिबंध लगाने का कानून बनाने का दावा किया गया था, लेकिन परिणाम शून्य रहा। 
पूरी दुनिया में इस समय डिजिटल खेलों का कारोबार बढ़ रहा है। भारत में तो इसका रूप दैत्याकार होता जा रहा है। 2022 में भारत में डिजिटल खेलों की संख्या 510 मिलियन के करीब पहुंच गई है। फिलहाल विश्व में लोकप्रिय डिजिटल खेलों में मोबाइल प्रीमियर लीग (एमपीएल), फैंटेसी स्पोर्ट्स प्लेटफार्म, ड्रीम-11 और लूडो किंग हैं। ये सभी खेल भारत में उपलब्ध हैं। भारत से संचालित होने वाली खेल कंपनियों में चीन सहित कई देशों की कंपनियों की पूंजी लगी हुई है। इन खेलों के अमरीका, चीन, भारत, ब्राजील और स्पेन बढ़े खिलाड़ी हैं। ऐसी उम्मीद है कि 2025 तक भारत में इन खेलों का व्यापार 290 अरब रुपए का हो जाएगा। 
ऑनलाइन शिक्षा के बढ़ते चलन के चलते विद्यार्थियों की मुट्ठी में एनरॉयड मोबाइल जरूरी हो गया है। मनोविज्ञानी और समाजशास्त्री इसके बढ़ते चलन पर निरंतर चिंता प्रकट कर रहे हैं। पालक बच्चों में खेल देखने की बढ़ती लत और उनके स्वभाव में आते परिवर्तन से चिंतित व परेशान हैं। अभिभावक बच्चों को मनोचिकित्सकों को तो दिखा ही रहे हैं, चाइल्ड लाइन में भी शिकायत कर रहे हैं। दरअसल बच्चों का मोबाइल या टेबलैट की स्क्रीन पर बढ़ता समय आंखों की दृष्टि को खराब कर रहा है। साथ ही अनेक शारीरिक और मानसिक बीमारियों की गिरफ्त में भी बच्चे आ रहे हैं।
ऑनलाइन खेल आंतरिक श्रेणी में आते हैं, जो भौतिक रूप से मोबाइल पर एक ही किशोर खेलता है लेकिन इनके समूह बनाकर इन्हें बहुगुणित कर लिया जाता है। वैसे तो ये खेल सकारात्मक भी होते हैं, लेकिन ब्लू व्हेल, पब्जी जैसे खेल उत्सुकता और जुनून का ऐसा मायाजाल रचते हैं कि मासूम बालक के दिमाग की परत पर नकारात्मकता की पृष्ठभूमि रच देते हैं। मनोचिकित्सकों और स्नायु वैज्ञानिकों का कहना है कि ये खेल बच्चों के मस्तिष्क पर बहु आयामी प्रभाव डालते हैं। ये प्रभाव अत्यंत सूक्ष्म किंतु तीव्र होते हैं, इसलिए ज्यादातर मामलों में अस्पष्ट होते हैं। दरअसल व्यक्ति की आंतरिक शक्ति से आत्म्बल दृढ़ होता है और जीवन क्रियाशील रहता है। ये खेल हिंसक और अश्लील होते है, तो बच्चों के आचरण में आक्रामकता और गुस्सा देखने में आने लगता है। दरअसल इस तरह के खेल देखने से मस्तिश्क में तनाव उत्पन्न करने वाले डोपाइन जैसे हारमोनों का स्राव होने लगता है। इस द्वंद्व से भ्रम और संशय की मनस्थिति निर्मित होने लगती है और बच्चों का आत्मविश्वास छीनने के साथ विवेक अस्थिर होने लगता है, जो आत्मघाती कदम उठाने को विवश कर देता है। हालांकि डोपाइन ऐसे हारमोन भी सृजित करता है, जो आनंद की अनुमति के साथ सफलता की अभिप्रेरणा देते हैं। किंतु यह रचनात्मक साहित्य पढ़ने से संभव होता है। बहरहाल इस हेतु भारत सरकार को ही प्रभावी कदम उठाने होंगे। 


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