मेवे वाली लस्सी और गिरधारी चाचा

गि रधारी चाचा चाट-पकौड़ी का एक ठेला लगाते थे।  जो, कि हमारे विद्यालय के बगल में ही था। जिस पर  वे गर्मा-गर्म पूरियां, छोले, गोलगप्पे और चाट बेचते थे। उनकी चाट, पूरियों और समोसों की प्रसिद्धि बहुत दूर-दूर तक थी। वो अलस्सुबह ही उठकर ठेला लगाते थे और उनके ठेला लगाने भर की बस देर होती। ग्राहक उन्हें चींटियों की मानिंद घेर लेते। हमारे स्कूल के नज़दीक ही एक बस स्टैंड था और उससे कुछ आधा किलोमीटर दूरी पर ही रतनपुर नामक स्टेशन था। एक बार की बात है। एक दिन किसी बड़े आदमी ने जो कि अभी-अभी किसी काम से रतनपुर आया हुआ था और शायद उसने छोले कुलचे गिरधारी चाचा से खाये थें। उसका कोई जरूरी सूटकेस गिरधारी चाचा के ठेले पर छूट गया था। दरअसल उस आदमी का नाम दीपू था। बस स्टैंड के बगल में ही एक स्टेट बैंक की एक ब्राँच थी। जिससे दीपू पैसे  निकालने आया था। दरअसल दीपू की मां बीमार थीं। वो अस्पताल में भर्ती थीं। उस दिन दीपू की मां का अस्पताल में कोई बड़ा ऑप्रेशन होने वाला था। जिसके लिये रूपयों की जरूरत थी। दीपू ने हड़बड़ी में नाश्ता किया और रूपयों से भरा बैग गिरधारी चाचा की दुकान पर ही छोड़कर चला गया। कुछ ही घंटों में वो बदहवास सा भागता हुआ आया।  वो गिरधारी चाचा की दुकान पर पहुँचा और अपना रूपयों से भरा बैग ढूँढ़ने लगा। लेकिन, गिरधारी चाचा उस समय खाना खाने के लिये घर गये हुए थे। गिरधारी चाचा की दुकान पर कोई नया लड़का जो कि उनका अपना ही भतीजा विष्णु था, वो बैठा हुआ था। उसने सारी बात गिरधारी चाचा के भतीजे विष्णु को बताई। विष्णु ने दीपू से कहा आप बिल्कुल भी मत घबराईये। हमारे गिरधारी चाचा बहुत ही ईमानदार व्यक्ति हैं। बैठिये मैं, आपको कागज़ पर उनका पता लिखकर देता हूं। लेकिन, दीपू के चेहरे पर घबराहड़ ज्यों-की-त्यों बनी हुई थी। 
विष्णु ने एक कागज पर गिरधारी चाचा का पता लिखकर दीपू को दिया और दीपू से बोला, यहीं बगल में ही है, गिरधारी चाचा का घर। ऑटो से मुश्किल से पांच मिनट लगते हैं। दीपू किसी तरह ऑटो पकड़कर गिरधारी चाचा के घर पहुँचा। गिरधारी चाचा उस समय भोजन करके लेटे हुए थे। तभी  दीपू घर में दाखिल हुआ। गिरधारी चाचा को सामने देखकर उसकी सांस में सांस आई।  लेकिन, अब भी उसके चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थीं। लेकिन, गिरधारी चाचा केवल मुस्कुरा भर रहे थे। दीपू बदहवास सा उसी हालत में बोला। गिरधारी  चाचा मेरा एक सूटकेस जिसमें करीब दो लाख रूपये थे।  वो शायद आपकी दुकान पर ही छूट गया था। दरअसल मेरी मां बहुत बीमार है और अस्पताल में भर्ती है। उनके इलाज के लिये ही मैं बैंक आया था। बैंक से रूपये निकालकर मैं आपके ठेले पर नाश्ता करने लगा और तभी एक फोन आया और हड़बड़ी में, मैं तुरंत वहां से निकल गया। गलती से शायद मेरा सूटकेस आपके ठेले पर ही छूट गया होगा। क्या, वो आपको मिला था। गिरधारी चाचा ने मुस्कुराते हुए हाँ में सिर हिलाया। फिर वे दीपू से बोले। हाँ, हड़बड़ी में ही शायद तुम वो अपना सूटकेस  छोड़कर चले गये थे। उस समय तो मेरी दुकान पर बहुत भीड़ थी। इसलिये मैं अपने ग्राहकों को निपटाता रहा। लेकिन, जब मैं ग्राहकों से फारिग हुआ। तो देखा एक काले रंग का सूटकेस मेरे ठेले के बगल में रखे बेंच पर पड़ा हुआ था। खोलकर देखा तो उसमें ढेर सारे रूपये थें। वैसे मैनें तुम्हारे हाथ में वो सूटकेस देखा था। लेकिन, मैनें सोचा कि जिसका सूटकेस  होगा। वो खुद ही आकर पैसे  ले जायेगा। दुकान पर इतना पैसा रखना कहीं से भी मुझे ठीक नहीं लगा। इसलिए रूपयों से भरा सूटकेस लेकर मैं सीधे घर खाना खाने चला आया। अभी खाना खाकर लेटा ही था कि तुम चले आये। उन्होंने अपनी पत्नी सुगंधा को आवाज़ दी। गिरधारी चाचा सुगंधा को आवाज़ देकर बोले कि भाई हमारे यहां आज एक मेहमान आये हैं। कुछ लस्सी या शरबत लेकर आओ। थोड़ी देर में सुगंधा चाची लस्सी का एक ग्लास  लेकर आ गयीं। दीपू ना-ना करता रहा। लेकिन, गिरधारी चाचा के सहृदय और कोमल व्यहवार के आगे उसकी एक न चली। सुगंधा चाची की लस्सी वाकई में बहुत ही बेहतरीन थी। जिसमें मेवे और गुलाब जल भी मिला हुआ था। जिसे पीकर उस चिलचिलाती हुई गर्मी में भी दीपू की आत्मा प्रसन्न हो गई। तब गिरधारी चाचा ने अलमारी में रखे सूटकेस को दीपू के हवाले कर दिया। 
सूटकेस थमाते हुए वो दीपू से बोले। गिनकर देख लो रूपये पूरे हैं, या नहीं। दीपू ने सूटकेस खोलकर देखा। जिस तरह से बैंक में नोटों से भरा सूटकेस उसे दिया गया था। वो वैसे ही थे। उसने एक बार  नोटों की गिनती की। नोट गिनती में भी पूरे थे। दीपू ने सूटकेस में से कुछ रूपये निकालकर गिरधारी चाचा को बतौर ईनाम देना चाहा। लेकिन, गिरधारी चाचा ने दीपू से पैसे लेने से मना कर दिया। वो दीपू से बोले। दीपू बेटा  जीवण में मैनें नाम बहुत कमाया है। फिर, मैं शुरू से खुद्दार भी रहा हूँ। आज इतनी उम्र हो गई। खुद कमाता हूँ और अपने कुटुंब का पालन करता हूँ। फिर, तुम्हारे दिये ये थोड़े से रूपये  कितने दिन चलेंगें। मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे ये रूपये। अपनी मां का इलाज तुम इन रूपयों से कराओ। दीपू गिरधारी चाचा को विस्मय से देख रहा था। उसे आश्चर्य हो रहा था कि दुनिया में गिरधारी चाचा जैसे ईमानदार और खुद्दार लोग भी मौजूद हैं।

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