प्राचीन संस्कृति की सुन्दर तस्वीर है सिमलीपाल का नाज़ुक इकोसिस्टम

इस साल टाइम पत्रिका ने जो यात्रा करने हेतु विश्व के 50 ‘महान स्थानों’ की सूची बनायी है, उसमें भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के गृह ज़िले मयूरभंज, ओडिशा को भी शामिल किया है। इसके अतिरिक्त लद्दाख भी इस सूची में है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि लद्दाख सुंदर व आकर्षक है, विशेषकर पैंगोंग त्सो, नुबरा घाटी आदि की वजह से, लेकिन लद्दाख की अपनी यात्रा के बारे में, मैं पहले लिख चुका हूं। फिर मयूरभंज की यह मेरी पहली यात्रा थी और कई कारणों से मुझे यह विशेष लगी।
सिमलीपाल नेशनल पार्क 2,750 वर्ग किमी में फैला हुआ है। आदिवासी बहुल क्षेत्र में स्थित इस पार्क की खासियत यह है कि दुनिया में मेलानिस्टिक (काले) टाइगर्स केवल यहीं पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त यहां स्तनधारियों की 40 से अधिक प्रजातियां हैं, जिनमें एशियाई हाथी व रॉयल बंगाल टाइगर्स भी शामिल हैं। शायद केन्द्र सरकार इसी माह में नवीन टाइगर सेंसस रिपोर्ट जारी करे, लेकिन शुरुआती संकेत यह हैं कि ओडिशा में टाइगर्स की संख्या जो 2018 में 28 थी, उसमें वृद्धि हो गई है। ओडिशा के अधिकतर टाइगर्स सिमलीपाल में हैं, ऐसा मुझे इस नेशनल पार्क की सफारी करते हुए महसूस हुआ। सिमलीपाल का शानदार बायोस्फियर रिज़र्व यूनेस्को वर्ल्ड नेटवर्क ऑफ बायोस्फियर्स का हिस्सा है। इसमें पक्षियों की 260 से अधिक प्रजातियां हैं, रेप्टाइल्स (सरीसृप) की लगभग 40 प्रजातियां हैं और एम्फिबियंस (उभयचर) की दर्जनभर प्रजातियां हैं। इन पशु पक्षियों की 50 प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। 
इस नेशनल पार्क का नाम सिमलीपाल ‘सिमुली’ से पड़ा है, जोकि सिल्क कॉटन ट्री का उड़िया भाषा में नाम है। यह पेड़ यहां बड़ी मात्रा में पाया जाता है। इस पार्क में आर्किड की 93 से अधिक प्रजातियां हैं, मेडिसिनल प्लांट्स की 300 से ज्यादा प्रजातियां हैं और पेड़ व पौधों की लगभग 50 प्रजातियां ऐसी हैं जो लुप्त होने के कगार पर हैं। जब इन जीवों व पेड़ पौधों को देखने से जी भर जाये तो मयूरभंज के तस्वीरी झरनों की ओर रुख करना जिनमें से तीन- जोरंदा, बारेहिपानी व उस्की, तो सिमलीपाल रिजर्व में ही हैं, जबकि सीताकुंड, देवकुंड व ओलुकुदार रिज़र्व की बाहरी सीमा पर हैं। ऊंचे पठार व पहाड़ियों के बीच ये झरने दिलकश नज़ारा पेश करते हैं। इन झरनों में सीताकुंड व देवकुंड का धार्मिक महत्व है। एक सीता माता को समर्पित है और दूसरा देवताओं के स्नान का कुंड है।
सिमलीपाल रिज़र्व अनेक मूल आदिवासी समूहों का घर है और प्रकृति की सुंदरता का संरक्षण करते हुए इन गुटों की जीवनशैली को भी सुरक्षित रखता है। रिज़र्व के अंदर और उसके आसपास लगभग 1,200 गांव हैं, जिनकी 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या अलग-अलग आदिवासी प्रजातियों की है, जिनमें शामिल हैं- एरेंगा खारिया, मंकिडिया, गोंड, मुंडा, कोल्हा व संथल। अपनी जीविका के लिए ये लोग छोटे-छोटे वन उत्पाद व कृषि पर निर्भर हैं, लेकिन प्रत्येक आदिवासी समूह की एकदम अलग जीवनशैली व पहचान है। इनके हैंडीक्रॉफ्ट व हैंडलूम, सबल घास की बुनाई और डोकरा मेटल कासिं्टग विशिष्ट हैं। संरक्षण को प्राथमिकता देते हुए राज्य सरकार ने नाज़ुक इकोसिस्टम और प्राचीन संस्कृति को दुनिया को दिखाने का प्रयास किया है और वह भी आदिवासी जीवनशैली व पहचान में बाधा डाले बिना। सिमलीपाल के बायोस्फियर की अखंडता को सुरक्षित रखने के लिए पार्क में वाहनों की प्रवेश संख्या सरकारी तौर पर अधिकतम 60 प्रतिदिन निर्धारित है। हर साल जून से नवम्बर तक पार्क बंद रहता है। इसके अतिरिक्त देशज मेहमाननवाजी का स्वाद जारी रखने के लिए इको-पर्यटनस्थल- पर्यटकों के लिए सरकारी निवास सुविधाएं का प्रबंधन आदिवासी समूहों के जिम्मे किया गया है। 
मूल आदिवासी अनुभव अधूरा रहेगा अगर आपने काई चटनी नहीं खायी, जिसे सिमलीपाल के मूलनिवासी लाल बुनकर चीटियों (रेड वीवर एंट्स) से बनाते हैं। 
इनके साप्ताहिक हाट या बाज़ार में आज भी बार्टर सिस्टम चलता है यानी कोई चीज़ पैसे से नहीं बल्कि चीज़ के बदले चीज़ मिलती है। दरअसल आदिवासी जीवनशैली ही मुख्यत: अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों को मयूरभंज की ओर आकर्षित करती है। अमरीका, यूरोप और अनेक एशियाई देशों से पर्यटक  ओडिशा प्रकृति व प्रकृति के निकट रह रहे लोगों को देखने के लिए आते हैं। लौटने पर यही पर्यटक अपने दोस्तों व रिश्तेदारों से ओडिशा की यात्रा करने के लिए कहते हैं। यूनेस्को की इंटेनजिबल कल्चरल हेरिटेज लिस्ट पर मयूरभंज का छाऊ नृत्य भी है, जो मार्शल आर्ट्स व लोकनृत्य का मिश्रण है। 

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर