गेहूं उत्पादन हरित क्रांति तक तथा इसके बाद

गेहूं पंजाब की ही नहीं, भारत की भी प्राचीन फसल है। इसकी पंजाब में 3.5 मिलियन हैक्टेयर तथा भारत में लगभग 34 मिलियन हैक्टेयर रकबे पर काश्त की जाती है। इसके उत्पादन में पंजाब अग्रणी रहा है तथा केन्द्र के गेहूं भंडार में सभी प्रदेशों से अधिक योगदान डालता रहा है, परन्तु अब उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश इस से आगे निकल गए हैं। उत्तर प्रदेश का उत्पादन पंजाब से दोगुणा है। उत्तर प्रदेश 35 मिलियन टन तथा पंजाब 17 मिलियन टन गेहूं पैदा करता है। मध्य प्रदेश की पैदावार 18 मिलियन टन के लगभग है।
वर्ष 1950 से 1960 के दौरान भारत अपने खाने के लिए भी गेहूं पी.एल. 480 अमरीका से मंगवाता था। भारत का गेहूं उत्पादन देश की जनसंख्या के अनुसार खाने में कम था। इस समय के दौरान ज़रूरत महसूस की गई कि अनुसंधान को मज़बूत करके ऐसी गेहूं की किस्में विकसित की जाएं जो अधिक खाद डालने से न गिरें और उत्पादन अधिक दें। यह गेहूं का वैज्ञानिक अनुसंधान वर्ष 1905 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के पूसा (बिहार) में स्थापित होने से शुरू हुआ। इसका आम लोगों को पता उस समय लगा जब अनुसंधान ने गेहूं की किस्मों में बीमारियों का मुकाबला करने की समर्था बढ़ाने की ज़रूरत महसूस की। इन बीमारियों में कुंगी, कांगियारी तथा करनाल बंट आदि शामिल थीं। डा. बी.पी. पाल ने अपने साथियों के सहयोग से पूसा में ऐसी किस्मों का अनुसंधान करने का काम शुरू किया जो बीमारियों का मुकाबला कर सके। इस दौरान बीमारी रहित किस्में विकसित करने में कुछ उपलब्धियां प्राप्त तो हुईं परन्तु पिछली सदी के पांचवें दशक तक गेहूं की उत्पादकता अधिक से अधिक 10 क्ंिवटल प्रति हैक्टेयर तक स्थिर रही। फिर पांचवें दशक के मध्य में वर्ष 1954 में डा. एम.एस. स्वामीनाथन ने ऐसी किस्में जो न गिरे तथा कीमियाई खाद डालकर अधिक उत्पादन देने के विकास का काम शुरू किया। शुरू-शुरू में छोटी तथा सख्त तने वाली किस्मों के विकास पर ज़ोर दिया गया। सख्त तने वाली किस्में कीमियाई खादों को डालने से गिरती नहीं थीं। पहले लम्बे कद वाली किस्में खाद डालते व सिंचाई की सुविधा होते हुए भी झाड़ अधिक नहीं देती थी।
छठे दशक के मध्य के बाद उस समय के केन्द्र के कृषि मंत्री सी. सुब्रामण्यम तथा प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन द्वारा किए प्रयासों से मैक्सिको से नारमन ई बोरलाग के नेतृत्व में बीच की छोटी किस्में लर्मा रोजे, सनोरा 53, सनोरा 64 तथा माइओ 64 के बीज भारत आये। इस उपरांत भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (पूसा दिल्ली) में अनुसंधान मज़बूत हुआ तथा पंजाब के किसानों द्वारा डा. अमरीक सिंह चीमा द्वारा दिए गए उत्साह स्वरूप इन बीजों को अपनाने से हरित क्रांति का आगाज़ हुआ। इस आगाज़ के दौरान प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा गेहूं की क्रांति पर एक टिकट भी जारी की गई। फिर इस उपरांत ‘कल्याण सोना’, ‘सोनालिका’ जैसी किस्में विकसित हुईं। इनके साथ-साथ भारतीय कृषि अनुसंधान ने हीरा, मोती, जनक, अर्जुन, सुजाता, एच.डी. 2285 तथा एच.डी. 2733 आदि जैसी किस्में  अस्तित्व में लाईं। इन किस्मों के विकास में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के प्रसिद्ध ब्रीडर स्वर्गीय वी.एम. माथुर का विशेष योगदान है। इस सूझवान तथा दूर-दृष्टिवान वैज्ञानिक द्वारा उस समय जब पी.ए.यू. के स्वर्गीय डा. खेम सिंह गिल की सबसे अधिक झाड़ देने वाली डब्ल्यू.एल. 711 किस्म करनाल बंट का शिकार होकर खत्म हो गई, स़फल एच.डी. 2329 किस्म विकसित करके किसानों को दी गई। वी.एस. माथुर की एच.डी. 2329 किस्म ने पंजाब के किसानों पर प्रदेश की आर्थिकता को हज़ारों करोड़ों का लाभ पहुंचाया तथा यह किस्म एक लम्बी अवधि तक पंजाब के कृषि की रानी बनी रही। विगत दिवस मार्च में हुई बेमौसमी वर्षा, तेज़ हवाएं तथा ओलावृष्टि से गेहूं की फसल का जो नुकसान हुआ, उससे उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होने की सम्भावना है। चाहे केन्द्र सरकार के खाद्य सचिव द्वारा यह दावा किया जा रहा है कि देश का उत्पादन अभी भी 112 मिलियन टन होगा, क्योंकि वर्षा और तेज़ हवाओं ने ़फसल के दाने की क्वालिटी को अधिक प्रभावित किया है, इसकी उत्पादकता पर कम प्रभाव हुआ है, परन्तु पंजाब में इस बेमौसमी वर्षा, ओलावृष्टि और तेज़ हवाओं व आंधी ने फसल के 40 प्रतिशत तक रकबे का नुकसान किया है तथा क्वालिटी के पक्ष से दाना बदरंग तथा चमक-रहित एवं कई स्थानों पर काला पड़ने की सम्भावना है।  परन्तु सही नुकसान का अनुमान जो गिरदावरी की जा रही है, उसके पूरा होने पर ही पता चल सकेगा।