पहेली से कम नहीं थी ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी की ज़िंदगी 

राष्ट्रगान के रचियता व साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता रबीन्द्रनाथ टैगोर के छोटे भाई की बेटी हेम सुंदरी टैगोर छोटी आयु में ही विधवा हो गई थीं। उन्हें परिवार के नाम, संपत्ति में हिस्सा आदि सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। तंग आकर उन्होंने कलकत्ता (अब कोलकाता) छोड़ दिया, मेरठ चली गईं, ईसाई धर्म अपनाया, नर्स बनीं, उर्दू पत्रकार प्यारे लाल शंकर मेरठी, जो स्वयं ईसाई थे, से शादी की और दो बेटियों को जन्म दिया, जिनमें से एक प्रभावती थीं। प्रभावती स्टेज पर अभिनय व नृत्य करती थीं कामिनी के नाम से। इसी सिलसिले में उनकी मुल़ाकात मास्टर अली बक्श से हुई जो बहेरा, पंजाब, से बॉम्बे (अब मुंबई) आए थे फिल्मों में बड़ा संगीत निर्देशक बनने के लिए, यह आरज़ू तो कभी पूरी न हो सकी, लेकिन पारसी थिएटर में वह हारमोनियम बजाते, संगीत सिखाते, उर्दू शायरी करते और ‘ईद का चांद’ जैसी फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं करते। उन्हें ‘शाही लुटेरा’ जैसी फिल्मों में संगीत देने का अवसर भी मिला, लेकिन अपने आपको वह कभी स्थापित न कर सके। बहरहाल, प्रभावती व अली बक्श के बीच प्रेम हो गया। प्रभावती ने अपना नाम इकबाल बेगम रखा और अली बक्श से शादी कर ली। दोनों दादर, मुंबई, में रूपतारा स्टूडियो के निकट रहने लगे, इस उम्मीद में कि दिन पलटेंगे, लेकिन ऐसा न हुआ, ़गरीबी बढ़ती रही।
जब खुर्शीद के बाद दोनों के यहां दूसरी लड़की महजबीन पैदा हुई एक अगस्त 1933 को तो उनके पास डा. गदरे को फीस देने के लिए भी पैसे न थे, जिन्होंने प्रसव में सहयोग किया था। अली बक्श को लड़का चाहिए था, इसलिए महजबीन को उन्होंने एक मुस्लिम अनाथालय में छोड़ दिया। लेकिन जब वह रोती बच्ची को छोड़कर जा रहे थे, तो उनकी आत्मा ने उन्हें धिक्कारा, वह वापस मुड़े, बच्ची को उठाया, जिसके जिस्म पर चीटियां चल रही थीं और अपने साथ घर ले गये। बहरहाल, पुत्र के लिए मोह ऐसा था कि बच्ची को प्यार से ‘मुन्ना’ पुकारने लगे। पुत्र की चाहत में उनके यहां एक और लड़की महलिका हुई, जो मधु के नाम से जानी जाती है और जिसने बाद में एक्टर महमूद से शादी की। तीसरी लड़की के जन्म से अली बक्श के घर की आर्थिक स्थिति अधिक बिगड़ गई, जिसे सुधारने के लिए वह चार वर्ष की महजबीन को लेकर स्टूडियो के चक्कर काटने लगे। विजय भट्ट की फिल्म ‘लेदरफेस’ (रिलीज़ 1939) में महजबीन को बाल कलाकार की भूमिका मिल गई। वह फिल्मों में काम नहीं करना चाहती थीं, स्कूल जाना चाहती थीं, अन्य बच्चों की तरह पढ़ना चाहती थीं। इसलिए जैसे ही उनका शॉट पूरा होता वह एक कोने में किताब लेकर बैठ जातीं, खुद ही पढ़ने का प्रयास करतीं और जल्द ही उनका नाम ‘रीडइंग महजबीन’ पड़ गया।
बाल कलाकार के रूप में उन्हें ज़बरदस्त सफलता मिली और मात्र चार वर्ष की आयु से ही वह बक्श परिवार को पालने की ज़िम्मेदारी उठाने लगीं और उनका फिल्मी नाम बेबी मीना हो गया। बेबी मीना जब 14 साल की हुईं तो उन्हें रमणीक प्रोडक्शन की फिल्म ‘बच्चों का खेल’ (1946) में बतौर हीरोइन पहली भूमिका मिली और वह बेबी मीना से मीना कुमारी बन गईं। इसके बाद कई फिल्में लगातार आईं, जो न केवल बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त हिट रहीं बल्कि उन्होंने मीना कुमारी को मंझी हुई हीरोइन के रूप में स्थापित किया। फिर जब 1952 में ‘बैजू बावरा’ आयी, जिसके लिए मीना कुमारी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पहला फिल्मफेयर पुरस्कार मिला, तो इस बात की नींव पड़ गई कि वह आगे आने वाले वर्षों में हिंदी फिल्मों में अभिनय का पैमाना बनने जा रही हैं कि उन्हीं को ही सामने रखकर किसी अन्य अभिनेत्री की अभिनय क्षमता तय होगी। यही कारण है कि भारतीय फिल्म आलोचक मीना कुमारी को हिंदी सिनेमा की ऐतिहासिक दृष्टि से बेजोड़ अदाकारा मानते हैं।
मीना कुमारी की अभिनय क्षमता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दिलीप कुमार भी उनके सामने नर्वस हो जाते थे। राजकुमार उनके सामने अपने डायलॉग भूल जाते थे। सत्यजित राय ने उनके बारे में कहा कि ‘बिना किसी शक के उच्चतम कोटि की अभिनेत्री’। मीना कुमारी ने दसवें फिल्मफेयर में ऐसा रिकॉर्ड स्थापित किया जो आजतक नहीं टूटा है, 1963 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के सभी नामांकन उन्हीं के नाम थे और ‘साहिब बीबी और गुलाम’ के लिए उन्हें यह पुरस्कार मिला। इस फिल्म में वह ‘छोटी बहू’ की भूमिका में थीं, जो भारतीय सिनेमा इतिहास में आज तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन माना जाता है। यह भूमिका मीना कुमारी के असल जीवन के भी बहुत करीब मानी जाती है- शानदार करियर, दिल तोड़ने वाले संबंध, शराब की बहुत बुरी लत, गिरता स्वास्थ्य और जिगर खराब होने से मात्र 38 वर्ष की आयु में मृत्यु। उन्होंने भारतीय नारी के संघर्ष को पर्दे पर बखूबी निभाया, जिससे वह परम्परागत भारतीय नारी का परफेक्ट उदाहरण बन गईं। मीना कुमारी ने अपने 30 वर्ष के करियर में 90 से अधिक फिल्मों में काम किया, जिनमें से कुछ तो क्लासिक का दर्जा प्राप्त कर चुकी हैं, जैसे ‘साहिब बीबी और गुलाम’, ‘पाकीज़ा’, ‘मेरे अपने’, ‘बैजू बावरा’ आदि।
मीना कुमारी ने कुछ फिल्मों में गीत भी गाये और उन्हें शायरी करने का बेहद श़ौक था। वह ‘नाज़’ के नाम से शायरी करती थी। यही कारण था कि उन्होंने कमाल अमरोही से प्यार व शादी की, जबकि कमाल पहले से ही विवाहित व तीन बच्चों के पिता थे। यह शादी छुपकर की गई थी और जब इसका पता मीना कुमारी के पिता को चला तो उन्होंने अपने घर के दरवाजे बेटी के लिए हमेशा के लिए बंद कर दिए। मीना कुमारी कुछ दिन महमूद के घर पर रहीं, जिनका विवाह उनकी बहन से हुआ था और फिर वह कमाल अमरोही के साथ रहने लगीं। कमाल ने उन्हें फिल्मों में काम करने की इजाज़त तो दी क्योंकि उनके स्टूडियो का सारा खर्च मीना कुमारी की कमाई से ही चलता था, लेकिन उन्होंने मीना कुमारी पर शर्तें, पाबंदियां लगाईं और उनकी जासूसी कराई। इससे दोनों के रिश्तों में कड़वाहट आयी और वह अलग-अलग रहने लगे। मीना कुमारी ने लिखा- दिल सा साथी जब पाया/बेचैनी भी साथ मिली। कमाल अमरोही ने फिल्म ‘पाकीज़ा’ पर 1956 में काम शुरू किया था।  ‘पाकीज़ा’ 28 फरवरी 1972 को रिलीज़ हुई और 31 मार्च 1972 को मीना कुमारी का निधन हो गया। उन्हें रहेमताबाद कब्रिस्तान, नारिअल्वादी, मुंबई में दफन किया गया।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर