कानखजूरा

 

कानखजूरा रेंगने वाला कृमि जैसा प्राणी है। इसकी लंबाई 3 से.मी. से 15 से.मी. तक होती है वैसे यह 30 सेमी तक के भी पाए गये हैं। इसका रंग लाल या लाल-काला होता है। इसका धड़ कई खंडों से निकलकर बना है। सिर पर दो स्पर्श इंद्री होती हैं, शिकार खाने के लिए दांत और देखने के लिए छोटी आंखें होती हैं। इसके 40 से 50 के बीच पैर होते हैं। धड़ के अगले हिस्से में विष वाले पैर होते हैं जिन्हें यह छोटे-मोटे कीड़े मकोड़ों में गड़ा देता है। यह पैर शिकार में ही रह जाते हैं क्योंकि यह पैर पतले और इतने कमजोर होते हैं कि वापस खींचने पर नहीं निकलते और धड़ से अलग हो जाते हैं। विष से शिकार मर जाता है जिसे बाद में कानखजूरा खा जाता है।
कानखजूरा सीलन भरी जगहों, पत्थरों के नीचे, टूटे मकानों की दीवारों की खोखली जगहों व कूड़े-कबाड़े के बीच रहता है। यूं यह दिन में छुपा रहता है और रात को ही शिकार की तलाश में निकलता है, मगर विशेष परिस्थितियों में इसे कभी-कभी दिन में भी निकलना पड़ता है। इसके पैर यदि आदमी की त्वचा में गड़ जाएं तो दर्द होती है और यह दर्द वर्षों तक रहती है। कानखजूरे दो प्रकार के हैं। अधिक संख्या तो मांसाहारियों की है जो चींटियां और कीड़े मकोड़े खाते हैं परंतु कुछ शाकाहारी भी हैं जो जडें़, बीज आदि खाते हैं। मादा कानखजूरा अंडा देती है और अंडों पर गोल-मोल होकर बैठ जाती है। यह भुरमुरी-नरम मिट्टी पर अंडे देती 
है। कानखजूरा उष्ण क्षेत्रों में दुनियां के अधिकतर भागों में पाया जाता है कानखजूरा घर के आसपास न पनप सके, इसके लिए घर के अंदरूनी और बाहरी हिस्सों में ठीक से सफाई रखनी चाहिए। बड़ी उम्र के कानखजूरे के काटने पर तेज दर्द, सूजन और बुखार हो सकता है, अत: ऐसे में डॉक्टरी मदद लेनी चाहिए।

(उर्वशी)