आटा-दाल हो गई राजनीति

बड़े खुश नज़र आ रहे हैं छेदी लाल जी, क्या कोई खज़ाना मिल गया है कारूं का। उस दिन छेदी लाल जी थोड़ा अतिरिक्त प्रसन्न मुद्रा में दिखे, तो हमने यूं ही पूछ लिया।
—कहां जी, हमने क्या करना है इस कारूं के खज़ाने को। फिर मियां, कारूं के पास भी आजकल कहां बची है फुर्सत जो वह अपने खज़ाने की थैली का मुंह हम-आप जैसे किसी ़गरीब-गुरबे के लिए खोल सके। छेदी लाल जी ने अपना मुंह हमारे कान के पास लाकर जैसे फुसफुसाने वाले अन्दाज़ में  कहा-कारूं के खज़ाने पर तो आजकल राजनीति की गिद्ध नज़र सदैव लगी रहती है। वैसे, सच्ची बात बताऊं मियां जी, कारूं की अपनी नज़र-ए-इनायत भी आजकल राजनीतिज्ञों की ओर ही लगी रहती है।
—बात तो आपकी पूरे लाख टके की है छेदी लाल जी, किन्तु राजनीति आजकल महंगी भी तो बहुत हो गई है न... आटे-दाल की भांति।’ हमने उनकी हां में हां मिलाते हुए कहा— राजनीतिज्ञों ने जन-सेवा भी तो करनी होती है। बिना पैसों के कैसे करें।
—क्या बात करते हो मियां साहिब! जन-सेवा तो आज बीते कल की बात हो गई है जनाब! आज तो ‘उस हाथ दे, इस हाथ ले’ वाली बात होकर रह गई है। राजनीति यानि कि सियासतदान आजकल देते-दिलाते कुछ भी नहीं, न ही कुछ करते-कराते हैं। बस, टोपियां बदलते रहते हैं... सफेद टोपी पहनी, तो गांधीवादी हो गये। लाल रंग की टोपी खरीद ली, तो समाज-प्रेमी हो गये। फिर भगवा पहना तो, हिन्दूवादी हो गये किन्तु ‘मन अपना पुराना पापी था, बरसों से नमाज़ी हो न सका की तर्ज पर ‘घर वापिसी की आड़ में दल-बदल नये से नये रूप में जारी रहता है।। ’
हमने उनके तेवर पर उंगली रख कर उसकी तेज़ी से भागती सुई को रोक लिया—छेदी लाल जी, रंग तो आज की राजनीति में सभी भ्रष्ट हैं... क्या सफेद, क्या काला, और क्या नीला-पीला। सभी रंग के ऊपर रंगी भी तो सजी है... नारंगी की भांति। ऊपर से पीली, भीतर से लाल।
—तभी तो मियां! आज की राजनीति में सिर्फ राजनीतिज्ञ ही टोपियां नहीं बदलते, ये टोपियां भी पहनने वालों कोबदलने लगी हैं।... अब देर देखो न, कैसे एक नेता जी अपनी तीन-तीन पीढ़ियों द्वारा भोगे गये सत्ता-सुख का स्वयं भी स्वाद चख लेने के बावजूद एक दिन चुपके से, मलेशियाई मेंढक जैसी छलांग लगा कर पड़ोसी की आड़ में नहाने चले गये, किन्तु उधर अभी अपना बदन पोंछा भी नहीं था, कि तौलिया लेने के बहाने फिर पहले वाली मेंढ पर आ बैठे।
—इसी को तो दल-बदल कहते हैं न प्यारे छेदी लाल जी! पहले दल-बदल और फिर घर वापिसी... यह दुनिया ऐसे ही गोलाकार घूमती रहती चली जाती है। ये अपने कितने ही चुनाव आयोगिये पूरी वाह लगा चुके हैं, कि दल-बदल पर जैसे-कैसे रोक लगाई जा सके, किन्तु उनकी कोई सुनता ही नहीं। हमने भी अपना दुखड़ा रोना चाहा था कि छेदी लाल पुन: अपना दायां हाथ नचाते हुए बोले—ना जी मियां जी, ऐसा तो मती कहियेगा। दरअसल, ये सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे होते हैं। सभी का अपना-अपना हलुवा-मांडा है...सभी मिल-बांट कर खाते हैं।
दल-बदल केवल राजनीति में ही तो नहीं होता। साहित्यिक धरातल पर भी बड़े ‘आया राम गया राम’ हुए हैं... गोया आज भी हैं। घास-चारे की बात छोड़िये, कूड़े-कचरे के ढेर पर भी ये आवारा पशु की भांति मुंह मारते रहते हैं। इनकी सितमज़रीफी की हद देखिये, कि कल तक जिस शख्स या जिस दल को पानी पी-पी कर कोस रहे होते हैं, एक मुट्ठी घास के लालच में अगले ही दिन उनके साथ गलबहियां तक होते दिखाई देते हैं। इनका शेवा जैसे यह हो जाता है कि पराये अंगूरों को देखते ही लार टपकाने लगते हैं। छेदी लाल जी ने बात को जैसे एक नाटकीय मोड़ दे दिया था। साहित्य के धरातल पर एक बड़े संत बाबा हुए हैं। एक बार मेहरबान हुए, तो अपने ड्राईवर को ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद दे बैठे। अब उन ड्राईवर महोदय का भाग्य उन पर मेहरबान हुआ, तो उनका बुध और शुक्र, दोनों जाज्वल्यमान नक्षत्र जैसे हो गये। बुध ने उन्हें सत्ता-सुख वाला नवारी पलंग प्रदान कर दिया, और शुक्र बलवान हुआ, तो ज़िन्दगी का प्रत्येक सुख उन के ऊपर कुर्बान होने को आतुर दिखाई देने लगा। देखते ही देखते वह जैसे पूरे का पूरा मजमेबाज़ हो गया।
राजनीति में अक्सर मतवन्नों की पौ-बारह होती है। राजनीतिक मतवन्ने स्वयं को गोद लेने वालों की धन-दौलत और राजनीतिक विरासत के मालिक बन जाते हैं, किन्तु ऐसे मतवन्नों को अक्सर हर अगले मुकाम पर अपनी केंचुल बदलनी पड़ जाती है। वे मुखौटाधारी जीव जैसे हो जाते हैं—कभी नीले रंग का मुखौटा, तो कभी पीले रंग का। कुदरत का करिश्मा देखिये, कि प्रत्येक मुखौटे के साथ उनके चेहरे का रंग गिरगिट द्वारा रंग बदले जाने वाली फितरत की न्याईं पल-पल बदलता रहता है। 
अक्सर ऐसा होता है, अथवा हो जाता है, कि हाथ उन्हीं के जलते हैं जो जलते हुओं को बचाने के लिए आगे बढ़ते हैं। आग लगाने वालों के हाथ इसलिए नहीं जलते, कि अपने बचने का मार्ग उन्होंने पहले ही छत पर परनाले की भांति बना रखा होता है। 
—इसीलिए तो आज तक किसी सियासतदान के हाथ कभी नहीं जले। वे आग लगाते हैं, और फिर लाख के घर वाले चोर दरवाज़े से बच कर आगे निकल जाते हैं।