बैंकों में बढ़ता एनपीए, घटती वसूली

लगता है बैंकों के बढ़ते एनपीए और घटती वसूली को लेकर केन्द्र सरकार गंभीर होने लगी है। पिछले छह सालों में बैंकों की गैर निष्पादित सम्पत्ति या यूं कहें कि एनपीए या बट्टे खाते में दर्ज राशि बढ़कर 11.17 लाख करोड़ पहुंच गई है। मज़े की बात यह है कि इसमें एनपीए होने वाली राशि में बड़ा हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का ही है। प्राइवेट बैंकों की एनपीए राशि तुलनात्मक रूप से बहुत कम है। सरकार ने इस तरह के कर्जों में से केवल 14 प्रतिश्त की वसूली पर नाराज़गी व्यक्त करते हुए वसूली का स्तर कम से कम 40 प्रतिशत तक लाने के निर्देष दिए हैं। मजे की बात यह है कि अब तो एजुकेशन लोन तक एनपीए होने लगे हैं। भले ही कहा कुछ भी जाएं पर साफ  है कि अब अर्थव्यवस्था को लेकर भी प्रश्न नहीं उठाए जा सकते क्यों कि कोरोना के बाद पिछले दो साल में सभी क्षेत्रों में आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार हुआ है और बाज़ार में तेजी रही है। हालांकि रुस यूक्रेन युद्ध और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के हालात अवष्य गंभीर रहे हैं पर देश में खेती सहित सभी क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था पटरी पर आई हैं। 
दरअसल बैंकों की बैलेंस सीट को साफ सुथरा रखने के लिए किसी भी लोन की लगातार तीन किस्त नहीं जमा होने की स्थिति में उस अकाउंट को एनपीए की श्रेणी में रखते हुए बट्टे खाते के रुप में रख लिया जाता है। यह साफ  होना चाहिए कि एनपीए कोई ऋण माफी नहीं है बल्कि केवल एक व्यवस्था है। इसका स्पष्ट मतलब यह है कि बैंकाें को इस तरह के ऋणों की वसूली पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। क्योंकि इसका सीधा असर बैंकों की आय यानि कि लाभ पर पड़ता है। हालांकि एनपीए में दाखिल होते ही ऋणी के सिबिल पर नकारात्मक असर पड़ता है पर विलफुल डिफाल्टर होने से बचने के प्रयास लगभग नहीं होते। 
दरअसल बैंकों में एनपीए की समस्या आज की या यों कहे कि नई नहीं है। लगभग नब्बे क दशक से एनपीए की यह व्यवस्था बैंकों में लागू की गई और इस समस्या के समाधान के लिए ठोस प्रयास पर मंथन होता रहा। यहां तक कि वसूली संस्था तक बन चुकी हैं और उस संस्था द्वारा बैंकों के उधार लोन की वसूली के ठेके लिए जाने लगे हैं पर परिणाम उतने उत्साहजनक नहीं मिल रहे हैं।
उदारीकरण के बाद देश की बैंकिंग व्यवस्था में तेजी से बदलाव आया है। 24 गुणा 7 का कंस्पेट और उसके बाद अब तो यूपीआई के माध्यम से कभी भी भुगतान के लिए आज खाताधारक स्वतंत्र हो गया है। ऑनलाईन लेन-देन में तेजी आई है और सकारात्मक पहलु यह है कि गली मोहल्ले में ठेला लेकर सब्जी बेचने वाला 5 रुपए के धनिये तक का भुगतान ऑनालाईन प्राप्त करने लगा है। जनधन खातों के चलते आम आदमी की बैंकों तक पहुंच बढ़ी है तो पेपरलेस कार्य भी बढ़ा है। बैंकों से छोटे से लेकर बड़े लोन तक लेना आसान हुआ है और सभी तरह के ऋण बैंकों से आसानी से प्राप्त होने लगे हैं। इसका स्वागत भी किया जाना चाहिए। हालांकि पिछले कुछ सालों में साईबर ठगी के मामलों में भी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हो रही है। साइबर क्राइम के चलते लोगों में भय भी पैदा हुआ है। 
अमरीका में दो बैंकों के डूबने और तीसरे के अस्तित्व पर संकट के चलते देश की बैंकिंग प्रणाली को भी चाकचोबंद करने की आवश्यकता हो गई है। बैंकों द्वारा लोन देने से पहले आवश्यक सभी औपचारिकताएं, प्रोजेक्ट रिपोर्ट, रिपेमेंट की संभावनाओं, कज़र्दार की सम्पत्ति व लोन के भुगतान क्षमता का सकारात्मक सोच के साथ प्रभावी तरीके से अध्ययन करके ही ऋण स्वीकृत किया जाए तो लोन की वसूली को लेकर इतनी समस्याआें का सामना नहीं करना पड़े। दरअसल प्रभाव में आकर या सही तरीके से ऋण आवेदन का परीक्षण नहीं करने या फिर लोन की किश्त नहीं आने की स्थिति में लोनी से लगातार सम्पर्क कर लोन डिफाल्ट होने पर होने वाले नुकसानों से कज़र्दार को अवगत कराया जाए तो काफी संख्या में इन हालातों पर रोक लग सकती है। होता यह है कि बैंक लोन देकर भूल जाते हैं और कज़र्दार से निरन्तर संवाद का अभाव रहता है जिसके कारण एनपीए की समस्या अधिक हो जाती है। 
यह भी साफ  है कि जब एक किश्त जमा कराने में चूक हो जाती है तो फिर दूसरी तीसरी किश्त की चूक आते आते इतनी अधिक हो जाती है कि कज़र्दार के लिए ऋण चुकाना मुश्किल भरा काम हो जाता है। तो सबसे अधिक महत्वपूर्ण तो यह है कि कज़र्दार से लोन देने के दिन से ही लगातार संवाद कायम रखा जाए ताकि किसी तरह की कोई दिक्कत है तो समय रहते उसका हल खोजा जा सके। इसी तरह से एनपीए मामलों में भी बैंकों को वसूली के सख्त प्रयास करने होंगे क्योंकि बैंकों खास तौर से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को यह समझना होगा कि आम आदमी की कड़ी मेहनत की कमाई बैंकों में जमा है। बैंक उस राशि का संरक्षक है। ऐसे में बैंकिंग गतिविधियों में सावधानी और सतर्कता ज़रुरी हो जाती है। इसलिए जहां तक एनपीए बकाया कि वसूली का सवाल है उसके लिए बैंकों को ठोस प्रयास करने ही हाेंगे।

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